
उम्र हो चली अब| किससे कहूं कि मेरा भी ज़माना था। कैसे कहूं कि बड़े- बड़े हाक़िम-हुक्काम, राजे-महाराजे, शाह-नवाब मुस्तैद रहे मेरे साये मे। चाकचौबंद फ़ौज़ें, हाथी-घोड़ों की बे-ख़ौफ़ आवाजाही, अपने ज़ेरे-साये, बहुत देखी है मैने। अलमस्त रंगीनियों,नाच-गानों और महफ़िलों मे गूंजती झंकार से ज़र्रा-ज़र्रा मदहोश होता रहा मेरा। नेज़ों-तलवारों की झमाझम और बिजली सी कौंध और बारूद के स्याह धुएं की खामोश गवाह रही मैं। दुख की दर्दमंद बनी तो सुख की सहेली भी। बेरहम चालबाज़ियों, ज़हरीली करतूतों और फंदेबाज़िओं को भी देखता-सुनता रहा मेरा वजूद। सूबे-इलाक़ों को जीतने की खुशी के जुनून मे ठाठें मारते ज़िंदाबाद-पाइंदाबाद से गरमाये ठहाके भी खूब सुने हैं मैने। क्या-क्या ना देखा--क्या क्या ना जज़्ब किया।
अलमस्त सवेरे, चटख़ दोपहरियां, मलगज़ी शामें और मदहोश रातें…….सब कुछ मेरी पथरीली आँखों मे आज भी क़ैद है। मैं कालखण्ड का सम्पूर्ण इतिहास हूं। मैं समय की साक्षी हूं, थाति हूं, धरोहर हूं, सम्मान हूं, परम्परा हूं, सम्पदा हूं। वर्षों से थपेड़े झेलती, वक़्त का आईना मैं; सदियों से गिरते-संभलते किसी महल की प्राचीर हूं, या क़िले की दीवार या हमाम की सीढी या परकोटे की पौड़ी घर के सम्मानीय बुज़ुर्ग की तरह, यद्यपि हूं ढलती अवस्था मे, तथापि हक़दार हूं सरक्षण की, सम्मान की, स्नेह की।
अभिलाषी हूं कि मेरी रग-रग कुरेद कर अपना-अपना नामा और मुहब्बत-नामा मुझ पर न छापे कोई घुमंतु। पान से ,पीक से, थूक से, छींक से --हरे हरे-- यायावर! तेरे अतीत की नींव हूं मैं -- रक्षा कर मेरी। कभी सोच! तेरे प्राप्य का साध्य भी हूं मैं। मेरा रक्षण- अनुरक्षण, साज-संभार मेरी ज़रूरत भी है और तेरी ज़िम्मेदारी भी। मेरा आर्त्तनाद केवल सुनने के लिये नहीं, तेरी सोच और पहल के लिये है। तू करेगा ना?
18 टिप्पणियाँ
चित्रण इतनी खूबी से किया गया है कि रहस्य में खो कर अंत में संदेश से कहानी समाप्त होती है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा संदेश दिया है आपने इस कथा के द्वारा।
जवाब देंहटाएंसराहनीय प्रयास....
शब्दों पर शब्द ठोकते हुए, किस सफर पर ले कर चल दिय थे।हम भी सरपट....दोड़ते रहें शब्दोम की पटरी पर...अब सोचते हैं.....इस ब्लोग पर, क्या टिप्पणी करें।हम तो पढ़ने में ही खो गए थे।फिर भि कहते हैं.....बहुत बढिया!!!
जवाब देंहटाएंप्रवीण जी,
जवाब देंहटाएंबहुत अची कथा लिखी है . कम शब्दों मैं अधिक कहा है. बधाई स्वीकारें.
सच कहूं... कुछ समझ नहीं आया....
जवाब देंहटाएंकथा क्या है कोई मुझे भी समझाएं. वाकई.... सच बोल रहा हूं....
लघुकथा कविता हो गयी है।
जवाब देंहटाएंbadhe hue shabad aur ek hi saans mein padhi jaane wali katha
जवाब देंहटाएंभाषा-शैली और कथानक की
जवाब देंहटाएंसुंदरता के साथ साथ
एक अति - आवश्यक संदेश ...
जिसके विषय में कम ही लोग सोचते
हैं....... बहुत अच्छा लगा....
पढकर लघु-कथा के रूप में.....
बधाई और
शुभ-कामनाएँ
प्रवीण जी,
जवाब देंहटाएंसाहित्य शिल्पी पर आपको देख कर हार्दिक प्रसन्नता हुई। बहुत से आयामों और दृष्टिकोणों से आपने इस लगुकथा को सज्जित किया है। जितनी बार पढता हूँ उतनी ही बार नये अर्थों में इसे पाता हूँ। आपकी लेखनी और दृष्टिकोण का कायल हुआ जा सकता है।
***राजीव रंजन प्रसाद
सुंदर शब्द और बहुत सुंदर संदेश!
जवाब देंहटाएंLaghu kavita-katha ke liye dhanyawad.
जवाब देंहटाएंवाह प्रवीण जी
जवाब देंहटाएंबहुत खूब . बहुत सुंदर भाषा का प्रयोग किया है आपने.
आपकी रचना के लिये यह कथन सही है कि यह एक कविता-कहानी है। अच्छा प्रयोग भी कहा जा सकता है साथ ही प्रस्तुति में मार्मिक संदेश छिपा है।
जवाब देंहटाएंप्रवीण जी,
जवाब देंहटाएंसाहित्य शिल्पी पर आपको देखकर बहुत अच्छा लगा। रचना वैसे भी आपकी अच्छी तो होती ही है... एक और अच्छी रचना के लिये बधाई
लेखन मे मेरा मनोबल बनाए रखने के लिये आप सभी स्नेही मित्र-वृंद का आभारी हूं।
जवाब देंहटाएंइस क्षेत्र मे स्थापित नहीं हूं, शैशव की आरंभिक अवस्था मे खड़े होने का प्रयास मात्र कर रहा हूं।
क्षमार्थी हूं कि नितांत अपने कुछ माननीय मित्रों तक अपने कथ्य का संदेश नहीं पहुंचा पाया।
फिर सही।
प्रवीण पंडित
प्रवीण जी,
जवाब देंहटाएंएक मिटती हुई याद की.. एक गिरते हुये खण्डहर की और और भूत काल के विशाल कद्दावर भवन की भावनाओं का आपने सुन्दर चित्रण किया है.. परन्तु काल कितना कठोर है... कितना निर्दयी है.. जब कुछ रोंद कर बहता रहता है सिर्फ़ यादें रह जाती है.. कुछ खट्टी कुछ मीठी.......
आभार
बहुत अच्छे प्रवीण जी... कसी हुई शैली और लक्ष्य को भेदती बात... आप बधाई के पात्र हैं !
जवाब देंहटाएंबेहस विचारणीय संदेश।
जवाब देंहटाएंहमारे सारे पर्यटन-स्थल आज यही गुहार लगा रहे हैं।
बधाई स्वीकारें।
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.