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बेकल मन की बेकल बातें [कविता] - गीता पंडित (शमा)

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बेकल मन की बेकल बातें, मन में ही रह जाती हैं,
सुर गीतों को दे ना पातीं, मन ही मन पछताती हैं,
क्या-क्या भूलें क्या याद करें,मन-मंथन गहरा करके,
नयनों के काजल को, धीमे से गीला कर जाती हैं।

चंचल और वाचाल आँख चुपचाप सभी कुछ सहती है
टिक जाती है एक बिंदु पर, टिकी वहीँ बस रहती है,
विवेक भूलकर नीर-क्षीर का, कहाँ - कहाँ खोई रहती,
बेसुध मन से आस ना जाने क्या-क्या आकर कहती है।

नभ को आँखों में भरकर, नित नयी ऊर्जा पाती है,
मौन अधर पर नेह की वंशी जाने क्या लिख जाती है
टूटे स्वप्नों को जोड़-जोड़कर मन फिर से बुनता सपने,
हाथ लगा माटी को एक, आकार नया दे जाती हैं।

घटित चाहे कुछ भी हो जाये, जीवन चलता जाता है,
जन्म-मृत्यु के लेख अमिट हैं, जन्म मरण को लिख जाता है,
मन जो कुसुमित होता है तो, आता हर पल गा गा कर,
या फिर बन दिनकर दहके, साँझ ढले पिघला जाता है।

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25 टिप्पणियाँ

  1. बेकल मन की बेकल बातें, मन में ही रह जाती हैं

    सही कहा आपने।

    जवाब देंहटाएं
  2. गीता जी का यह गीत मन में ही रह जाने वाला है।

    मन जो कुसुमित होता है तो, आता हर पल गा गा कर,
    या फिर बन दिनकर दहके, साँझ ढले पिघला जाता है।

    बहुत सुन्दर...

    जवाब देंहटाएं
  3. I liked this poem. Please disply the information on website that how to write in hindi?

    alok kataria

    जवाब देंहटाएं
  4. रचना पसंद आई।
    एक साँस में पढने पर कहीं-कहीं अटकती है। मेरे विचार से कहीं-कहीं कुछ पंक्तियाँ छोटी की जा सकती हैं, मसलन

    क्या-क्या भूलें क्या याद करें,मन-मंथन गहरा करके,
    जन्म-मृत्यु के लेख अमिट हैं, जन्म मरण को लिख जाता है,

    ध्यान देंगे।

    रचना के लिए बधाई स्वीकारें।

    जवाब देंहटाएं
  5. गीता जी,


    आपकी यह कविता/गीत बेकल मन को पूरी तरह संप्रेषित कर रहा है।

    क्या-क्या भूलें क्या याद करें,मन-मंथन गहरा करके,
    नयनों के काजल को, धीमे से गीला कर जाती हैं।

    विवेक भूलकर नीर-क्षीर का, कहाँ - कहाँ खोई रहती,
    बेसुध मन से आस ना जाने क्या-क्या आकर कहती है।

    मौन अधर पर नेह की वंशी जाने क्या लिख जाती है

    मन जो कुसुमित होता है तो, आता हर पल गा गा कर,
    या फिर बन दिनकर दहके, साँझ ढले पिघला जाता है।

    कई बार पढ गया हूँ और आपके विचारों तथा रचनाकी गहराई अथाह ही पाता हूँ।


    ***राजीव रंजन प्रसाद

    जवाब देंहटाएं
  6. गीता जी,

    कहा तो गया है

    मन बेकल मन बांबरा मन चंचल चितचोर
    मन की मति चलिये नहीं पलक पलक मन और

    परन्तु ये हो कहां पाता है... मन ही तो है जो सावन में सूखा और सूखे में सावन के दर्शन करवा सकता है..

    भाव भरी सुन्दर रचना के लिये बधाई

    जवाब देंहटाएं
  7. गीता जी का यह गीत उनके अनुभव और दर्शन से मिल कर बना है।

    जवाब देंहटाएं
  8. घटित चाहे कुछ भी हो जाये, जीवन चलता जाता है,
    जन्म-मृत्यु के लेख अमिट हैं, जन्म मरण को लिख जाता है

    बहुत सही लिखा है आपने..

    अच्छी अभिव्यक्ति।

    जवाब देंहटाएं
  9. धीमे से गीला करना
    ने विशेष तौर पर
    ध्‍यान आकर्षित किया है1

    गीतकार में गीत के अतिरिक्‍त
    नए नए उपमान देने की चाहत
    सराहनीय है।

    जवाब देंहटाएं
  10. जन्म-मृत्यु के लेख अमिट हैं, जन्म मरण को लिख जाता है,

    umdaa baat kah di..bahut khobsurat pankti.. bachan ji ki line hai naa "aane k hi saath jagat mein kahalaya jaane wala.."....

    achee soch ki kavita laege humein..

    agar aap ise geet kahtee hain, to vishwadeepak se main bhi ittefaq rakhta hu. gatyaatmakta mein adhchan hai kahi.. :-)

    जवाब देंहटाएं
  11. कहीं काजल ने आंख गीली की, तो कभी वही आंख टिकी रह गयी किसी बिंदु पर । कहीं मन ने स्वप्न जोड़े ,कभी हर पल गाता रहा।
    मन कभी दहका, कभी पिघल गया।
    और चलता रहा जीवन।
    सोच के गहरेपन को अभिव्यक्त करने मे सार्थक है रचना।

    जवाब देंहटाएं
  12. घटित चाहे कुछ भी हो जाये, जीवन चलता जाता है,
    जन्म-मृत्यु के लेख अमिट हैं, जन्म मरण को लिख जाता है,
    मन जो कुसुमित होता है तो, आता हर पल गा गा कर,
    या फिर बन दिनकर दहके, साँझ ढले पिघला जाता है।
    बहुत सुंदर कविता लिखी है गीता जी. सुंदर भावः और भाषा तथा सुदर कल्पना.

    जवाब देंहटाएं
  13. आभार आप सभी का........
    और आभार उन सभी सुझावों के लियें भी
    जो दीपक तन्हा जी और दिव्याशु जी ने दिये......

    एक बार पुनः अवलोकन करुंगी
    गीत की दृष्टि से......


    साभार

    स-स्नेह

    गीता पंडित

    जवाब देंहटाएं
  14. महादेवी जी की अति-सुंदर रचना के लियें

    साहित्य-शिल्पी का आभार..

    जवाब देंहटाएं
  15. नभ को आँखों में भरकर, नित नयी ऊर्जा पाती है,
    मौन अधर पर नेह की वंशी जाने क्या लिख जाती है
    टूटे स्वप्नों को जोड़-जोड़कर मन फिर से बुनता सपने,
    हाथ लगा माटी को एक, आकार नया दे जाती हैं।

    वाह! वाह्!!

    घटित चाहे कुछ भी हो जाये, जीवन चलता जाता है,
    जन्म-मृत्यु के लेख अमिट हैं, जन्म मरण को लिख जाता है,
    मन जो कुसुमित होता है तो, आता हर पल गा गा कर,
    या फिर बन दिनकर दहके, साँझ ढले पिघला जाता है।
    वाह! वाह्!!

    बहुत सुंदर रचना के लिये आपको बधाई....

    जवाब देंहटाएं
  16. भाव की दृष्टि से बहुत सशक्त रचना! परंतु गीत की लयात्मकता कहीं-कहीं भंग होती है. नये उपमान ध्यान आकर्षित करते हैं.
    कुल मिलाकर अच्छी प्रस्तुति! बधाई स्वीकारें!

    जवाब देंहटाएं
  17. "बेकल मन की बेकल बातें
    .....
    .......

    बेकल मन की बेकल बातें, मन में ही रह जाती हैं,
    सुर गीतों को दे ना पातीं, मन ही मन पछताती हैं,
    क्या भूलें क्या याद करें नित,मन-मंथन गहरा करके,
    नयनों के काजल को, धीमे से गीला कर जाती हैं।


    चंचल और वाचाल आँख,चुपचाप सभी कुछ सहती है
    टिक जाती है एक बिंदु पर, टिकी वहीँ बस रहती है,
    विवेक भूलकर नीर-क्षीर का,कहाँ - कहाँ खोई रहती,
    बेसुध मन से आकर आशा, ना जाने क्या कहती है।


    नभ को आँखों में भरकर, नित नयी ऊर्जा पाती है,
    मौन अधर पर नेह की वंशी जाने क्या लिख जाती है
    टूटे पल-पल जोड़-जोड़कर मन फिर से बुनता सपने,
    हाथ लगा माटी को एक, आकार नया दे जाती हैं ।


    घटित चाहे कुछ भी हो जाये, जीवन चलता जाता है,
    लेख अमिट हैं जन्म-मृत्यु के, कोई बदल ना पाता है,
    मन जो कुसुमित होता है तो,आता हर पल गा गा कर,
    या फिर बन दिनकर दहके, साँझ ढले पिघला जाता है।।

    गीता पंडित (शमा)

    जवाब देंहटाएं
  18. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  19. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  20. बहुत सुंदर रचनाएं ..अभिभूत हो रसपान कर ...बधाई गीता जी को ...

    जवाब देंहटाएं

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