सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हिन्दी साहित्य जगत के एक ऐसे हस्ताक्षर हैं, जिनकी लेखनी से कोई विधा अछूती नहीं रही। चाहे वह कविता हो, गीत हो, नाटक हो अथवा आलेख हों। जितनी कठोरता से उन्होंने व्यवस्था में व्याप्त बुराइयों पर आक्रमण किया, उतनी ही सहजता से वे बाल साहित्य के लिये भी लेखनी चलाते रहे। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म 15 सितंबर 1927 को बस्ती (उ.प्र) में हुआ। उन्होंने एंग्लो संस्कृत उच्च विद्यालय बस्ती से हाईस्कूल की परीक्षा पास कर के क्वींस कॉलेज वाराणसी में प्रवेश लिया। एम.ए की परीक्षा उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण की। एक छोटे से कस्बे से अपना जीवन आरम्भ करने वाले सर्वेश्वर जी ने जिन साहित्यिक ऊचाइयों को छुआ, वो इतिहास और उदाहरण दोनो हैं। उनके काव्य सन्ग्रह "खूंटियॊं पर टंगे हुए लोग" के लिये उन्हें १९८३ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। काठ की घंटियाँ, बांस का पुल, गर्म हवाएँ, एक सूनी नाव, कुआनो नदी आदि उनकी प्रमुख क्रतियां हैं। आपने पत्रकारिता जगत में भी उसी जिम्मेदारी से काम किया और आपका समय हिन्दी पत्रकारिता का स्वर्णिम अध्याय माना जाता है।अध्यापन करने तथा आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर रहने के बाद वे बाल साहित्य पत्रिका "पराग" के सम्पादक रहे और "दिनमान" की टीम में अज्ञेय जी के साथ भी उन्होंने काम किया। उनकी देख रेख में हि्न्दी बाल साहित्य ने नये आयाम छुए और आज के समय में बाल साहित्य जगत उनके जैसे रचनाकारों की बड़ी कमी अनुभव करता है। "बतू्ता का जूता", "रा्नी रूपमती और राजा बाज बहादुर", "भौं भौं", इत्यादि इस परिप्रेक्षय में उनकी नामी रचनायें हैं। "पकौड़ी की कहानी" कविता में उनका बाल मन से सहज सम्बन्ध प्रतिबिम्बित होता है:
आई पकौड़ी।
छुन-छुन छुन-छुन
तेल में नाची,
प्लेट में आ
शरमाई पकौड़ी।
दौड़ी-दौड़ी
आई पकौड़ी।"
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना देश के उन साहित्यकारों में हैं जिन्होंने हिन्दी की नई कविता को शैशव से तरुणाई तक सम्हाला और सींचा। वह सर्वेश्वर जी का ही समय था जब हिन्दी कविता तुकान्तात्मकता से बाहर आयी और फ़िर भी कविता बनी रही। मुक्त छ्न्द की कविता इन के सृजन की आत्मा है और इन्हें प्रयोग की स्वतन्त्रता भी देती है। अपनी रचनाओं में जहाँ वे अपने भीतर के आर्तनाद को प्रकट करते हैं, उदाहरणार्थ :
कुछ लपटें
कुछ कोयले
कुछ राख छोड़ता
चूल्हे में लकड़ी की तरह मैं जल रहा हूँ,
मुझे जंगल की याद मत दिलाओ!"
वहीं "पिछडा आदमी" और " शाम-एक किसान" जैसी कवि्ताओं में एक दलित और वंचित व्यक्ति की व्यथा को भी कागज़ पर उतारते हैं।
"लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं ,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं"
ये पन्क्तियां वास्तव में सर्वेश्वर जी की साहित्यिक जीवन यात्रा का चित्रण करती हैं। बचपन एवम यौवन विपन्नता में व्यती्त हुए । निरंतर संघर्ष या तो व्यक्ति को तोड देता है या उसकी उर्जा का स्रोत बन जाता है। सर्वेश्वर जी की रचनाओं में आश्चर्यजनक रूप से, इन दोनो ही बातो का प्रभाव दृश्टिगोचर होता है। उन की कविता में टूटन तथा तड़प भी है और विद्रोह भी। टूटन और तड़प दलित व्यक्ति के खिलाफ़ हो रहे अन्याय की है, वन्चितो के शोषण की है। यही विद्रोह में परिवर्तित हो जाती हैं जो उनके द्वारा अपनाई गई हर सहित्यिक विधा में उमड़ कर आते हैं। फ़िर चाहे वो कविता हो, नाटक हो या उन की पत्रकारिता। उनकी हर रचना में सामाजिक चेतना का ओजपूर्ण आह्वान है। जैसे कि "मैं सूरज को डूबने नहीं दूंगा" कविता में वे कहते हैं:
“अब मै सूरज को नही डूबनें दूँगा।
देखो मैने कंधे चौड़े कर लिये हैं
मुट्ठियाँ मजबूत कर ली हैं
और ढलान पर एड़ियाँ जमाकर
खड़ा होना मैने सीख लिया है।
घबराओ मत
मै क्षितिज पर जा रहा हूँ।
सूरज ठीक जब पहाड़ी से लुढ़कने लगेगा
मै कंधे अड़ा दूँगा
देखना वह वहीं ठहरा होगा।"
सर्वेश्वर जी की भाषा शैली एक आम आदमी की ही तरह है जो उन्हें जन मानस से जोडती भी है। आम बोलचाल के शब्द हों या उर्दू अथवा अन्ग्रेज़ी के शब्द, उन्होंने प्रवीणता से उपयोग किये। स्वेटर एवम "पोस्टमार्टम की रिपोर्ट" में यह पहलू साफ़ दिखता है। जितनी सरल उनकी भाषा है उतना ही पैना उनका व्यंग्य है। "खूंटियों पर टंगे हुए लोग" से एक उदाहरण पर गौर करें:
"क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
बिन अदालत औ मुवक्किल के मुकदमा पेश है।
आँख में दरिया है सबके
दिल में है सबके पहाड़
आदमी भूगोल है जी चाहा नक्शा पेश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।"
यही व्यंग्य की विधा उनके नाटक "बकरी" में भी विद्यमान है जहां उन्होंने सरकार द्वारा जनता के शोषण को आड़े हाथों लिया है। प्रजा को बकरी की संज्ञा देते हुए वे कहते हैं कि:
अपने खिलाये फ़ूलो से भी कुछ न कहेगी,
उस के ही खूं के रंग से इतराएगा गुलाब,
दे उस की मौत जाएगी हर दिल अजीज ख्वाब।
यहां एक तरफ़ वे शासन को कटहरे में खडा करते हं तो साथ ही प्रजा की मूक बन कर सब सह लेने की व्रत्ति को भी इन्गित करते हैं। "बकरी" के "भिश्ती" पात्र में स्वाधीनता के कई वर्ष पश्चात भी तकलीफ़ में रह रहा निचले वर्ग का मजदूर झांकता है, तो "मुक्ति की आकांक्षा" जैसी कविताओं में मानव मन का स्वतन्त्रता के प्रति नैसर्गिक रुझान दिखता है।उनका एक सम्वेदनशील और रूमानी पहलू भी है जो कि "तुम्हारे साथ रहकर" जैसी कविताओं में समझ आता है।
"तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।"
सर्वेश्वर जी हिन्दी साहित्य के एक अमूल्य रत्न हैं और उनकी रचनाएं, विशेषकर युवा पीढ़ी का रक्त उद्वेलित करती रहेंगी और आह्वान करती रहेंगी कि जिस सूरज को वे उदय की दिशा में छो्ड़ गये थे, हम उसे अस्त न होने दें।
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16 टिप्पणियाँ
बहुत खूब... विरले ही होते हैं .... जो बात को दिल छू जाने के अंदाज मे कह पाते है... सुंदर आलेख के लिये बधाई...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब... विरले ही होते हैं .... जो बात को दिल छू जाने के अंदाज मे कह पाते है... सुंदर आलेख के लिये बधाई...
जवाब देंहटाएंआम आदमी से जुडी रचनाओं का अच्छा चुनाव किया है। आलेख परिपूर्ण है।
जवाब देंहटाएंsarveshvar dayaal ji ke bare main padhna bhaut achha laga
जवाब देंहटाएंbhaut hi sunder aur badha hua alekh
सुंदर आलेख ...
जवाब देंहटाएंबधाई...
दिव्यांशु
जवाब देंहटाएंआपने जिस भाषा में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख प्रस्तुत किया है वह आपकी अध्ययन क्षमता और आपकी पकड को दर्शाता है। आदरणीय सक्सेना जी की बेहतरीन कविताओं के सुन्दर गुलदस्ते के साथ जीवन परिचय अच्छी तरह से प्रस्तुत किया है। संग्रहणीय आलेख है।
***राजीव रंजन प्रसाद
आभार दिव्यांशु! सर्वेश्वर जी के जीवन और कृतित्व को बहुत सुंदर शब्दों में समेटा है आपने!
जवाब देंहटाएंसर्वेश्वर दयाल जी की कविता युग की चेतना है. उनकी -जब भी कोई भूख से लड़ने खड़ा हो जाता है सुंदर दीखने लगता है. मुझे बहुत प्रिय हैं. आपने उनकी इतनी समीक्षा की आभार.
जवाब देंहटाएंसर्वेश्वर दयाल की जनवादी कविताओं का सुन्दर संकलन है आपके आलेख में। आपकी प्रस्तुति संभाल कर रखने लायक है। सर्वेश्वर को याद करना सुखद रहा।
जवाब देंहटाएंसाहित्य शिल्पी के तीन चक्कर लगाये और तीनों ही बार एक से बढ कर एक चीजें पढने को मिलीं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को तो लगता है केवल आपने ही याद किया है। हिन्दी हिन्दी चिल्लाने वाले इतने महान कवि को भूल जाते हैं एसे में आपका प्रयास सराहना के योग्य है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर लेख। सर्वेश्चर दयाल सक्सेना जी को याद करने के लिये धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसर्वेश्वर दयाल जी को हमारा भी शत शत नमन... बहुत ही सुंदर आलेख... बधाई
जवाब देंहटाएंसुंदर आलेख उस महान व्यक्तित्व के साथ एक अपेक्षित नैकट्य स्थापित करने मे सफल हुआ।
जवाब देंहटाएंआभार
प्रवीण पंडित
सर्वेश्वर दयाल जी की ज्यादा रचनाएँ तो मैने पढी नहीं हूँ। आपका आलेख पढकर उनके बारे में और जानने की जिज्ञासा हो चली है। अब ढूँढ-ढूँढ कर पढुँगा।
जवाब देंहटाएंबधाईयाँ।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने विपुल मात्रा में बाल साहित्य रचा है। उनकी रची कविताएं बाल साहित्य का आधार स्तम्भ मानी जाती हैं। उनका परिचय प्रस्तुत करने का शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंसर्वेश्वर जी की लेखनी की सहजता ही उन्हे जनमानस से जोडती है..लेखन, अध्यापन, पत्रकारिता सभी विभागों में अत्यन्त कुशलता से निर्वाह करने वाली इस शक्शीयत की सभी रचनायें दिल में गहरे तक उतर जाती हैं..
जवाब देंहटाएंइस लेख में उनके बारे में विस्तार से बताने के लिये आभार.
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