
दुनियाँ एक कसाई बाडा, कत्ल यहाँ अरमानों का,
देख यहाँ पर सौदा होता, निसदिन ही मुस्कानों का।
तेज हवायें क्या कर लेंगी, मेरे मन की कश्ती का
हमने तो बचपन से सामना, रोज किया तूफानों का।
जब विकास की ज़द में आईं, सड़कें छाती चढ़ बैठीं
नगरी में बिछ गया जाल, बस तहखानों-तहखानों का।
कई सपेरे मिल कर अब तो, ढूंढ रहे उस नागिन को
जिसने डसवाया बस्ती से, सुख साया इमकानों का।
उसको तो भाते हैं किस्से, केवल सुर्ख गुलाबों के
जिसके घर में इन्तज़ाम है, रोज सुनहरे दानों का।
इक चंबल सुनते थे, अब तो बस्ती-बस्ती चंबल है
राजभवन में राज हुआ है, जंगल के शैतानों का।
रात अचानक मन में आया, शेर मियां दो-चार कहूं
गुजर गया भई दौर आजकल, बड़े-बड़े अफसानों का।
दहशत का है दौर, कि जिसमें धंधे सारे सहम गये
चेहरा उतरा हुआ ‘मौदगिल’, नगरी में दूकानों का।
17 टिप्पणियाँ
आदरणीय मौदगिल जी,
जवाब देंहटाएंआपकी गज़लों का मैं हमेशा ही कायल रहा हूँ। दुनियाँ को जिस कठोरता से आप कसाईबाडा कहते हैं उतनी ही निर्ममता से आपका शेर, मुस्कानों के कत्ल होने को स्थापित करता है। दूसरा शेर जितना आशावादी है आगे की गज़ल उतनी ही जनवादी सरोकारों को उजागर करती है। आपका आखिरी शेर दिल्ली में हुई आतंकवादी घटना के मद्देनज़र बेहद सामयिक हो गया है। बेहद उत्कृष्ट रचना..
***राजीव रंजन प्रसाद
बहुत बेहतरीन रचना मौदगिल जी!!
जवाब देंहटाएंसाहित्य शिल्पी पत्रिका का आभार एवं साधुवाद.
धंधे सारे सहम गए
जवाब देंहटाएंपर धंधा चढ़ा आतंकवादी का
धंधा बिल्कुल गंदा है
इसे जुड़ा जो भी बंदा है
बंदा नहीं वो ........
aaghaaz hi aisa hai to anjaam k kya kahne.....Umda ghazal..Aag se bhari hui..
जवाब देंहटाएंSahityashilpi samooh badhai ka paatra hai....
jai hind
jai hindi
तेज हवायें क्या कर लेंगी, मेरे मन की कश्ती का
जवाब देंहटाएंहमने तो बचपन से सामना, रोज किया तूफानों का।
दहशत का है दौर, कि जिसमें धंधे सारे सहम गये
चेहरा उतरा हुआ ‘मौदगिल’, नगरी में दूकानों का।
सभी शेर उम्दा हैं।
बहुत सुंदर गज़ल! हर शेर बहुत खूबसूरत और वज़नदार है. मुझे खासतौर पर यह शेर पसंद आया:
जवाब देंहटाएंजब विकास की ज़द में आईं, सड़कें छाती चढ़ बैठीं
नगरी में बिछ गया जाल, बस तहखानों-तहखानों का।
आपका आखिरी शेर कल की घृणित आतंकी घटना के बाद अत्यंत सामयिक हो गया है, पर इसी शेर में हमें लयबद्धता बनाये रखने के लिये ’दुकानों’ की जगह ’दूकानों’ पढ़ना पड़ता है जो भाषागत दृष्टि से ठीक नहीं है. परंतु भाव की गहनता के सम्मुख यह कमी छोटी पड़ जाती है.
मौदगिल जी
जवाब देंहटाएंएक से एक बढ़िया शेर हैं इस गजल में सभी दिल को छूने वाले
उसको तो भाते हैं किस्से, केवल सुर्ख गुलाबों के
जिसके घर में इन्तज़ाम है, रोज सुनहरे दानों का।
कितना सच है इस शेर में. काश हर कोई हर किसी का दर्द भी समझ सकता तो यह दुनिया कितनी सुंदर हो जाती.
रंजन जी,
जवाब देंहटाएंआपके प्रेम के प्रति नतमस्तक हूं.
आज आपका जब रचना प्रकाशन के संदर्भ में Phone आया तो उस समय मैं कुरूक्षेत्र में था.
'हरियाणा साहित्य अकादमी' के सौजन्य से प्रकाशित मेरे नये गजल संग्रह 'अंधी आंखें गीले सपने' का विमोचन हरियाणा के शिक्षा मंत्री माननीय मांगेराम गुप्ता एवं प्रख्यात साहित्यकार प्रभाकर श्रोत्रिय के हाथों सम्पन्न हुआ.
मैं अभी पानीपत पहुंचा हूं.
'साहित्यशिल्पी' का अंक देख कर अभिभूत हो गया.
विस्तार में अगली बार. फिलहाल विराम लेता हूं.
अब तक उपस्थित समस्त टिप्पणीकारों का आभार प्रदर्शित करते हुए आपकी समस्त टीम को जोरदार बधाई.
शुभाकांक्षी,
-योगेन्द्र मौदगिल
yogenra ji aap ki soch aur lekhan ko main hamesha padhati hoon
जवाब देंहटाएंjab bhi khud ke saath baith kar kuch achha padhne ka man hota hai
main "shabdon ka safar" yaa aapka aur seema gupta ji ka blog khol kar baith jaati hoon
meri soch ko jaise ek nayi safurti de jaati hai aapki gazalen
khud se milna bhaut achha lagata hai
aapki ye gazal bhi apne main ek misaal hai
aapki nayi kitaab ke liye aapko bhaut si subhkamanaye
दुनियाँ एक कसाई बाडा, कत्ल यहाँ अरमानों का,
जवाब देंहटाएंदेख यहाँ पर सौदा होता, निसदिन ही मुस्कानों का।
एक बहुत सुंदर रचना ....मौदगिल जी
आपको बधाई....
और ... साहित्य शिल्पी .....का आभार...
सस्नेह
गीता पंडित
आदरणीय मौदगिल जी,
जवाब देंहटाएंसाहित्य शिल्पी मे आपको देखकर हमे बहुत ही खुशी हो रही है....
गजल बहुत ही खुबसुरत है...
achcha praahar hai maudgil ji
जवाब देंहटाएंसभी शेर उम्दा हैं। रदीफ, बहर, काफिया सभी जमे हुए हैं।
जवाब देंहटाएंदूसरे शेर के बारे में कहना चाहुँगा कि "हमने तो बचपन से सामना" में सामना बहर के अनुसार थोड़ा जम नहीं रहा।
फिर से देखियेगा।
बधाई!
जी योगेन्द्र जी, अच्छा कहा आपने -अफ़सानों का दौर नहीं है।
जवाब देंहटाएंहाला कि ,हर शे'र ख़ुद मे अफ़साना बन गया।
और आख़िरी शे'र --तमाम शहर -या ठीक से कहूं तो मुल्क़ के दर्द को ख़ूब उजागर कर गया।
प्रवीण पंडित
योगेन्द्र जी बहुत बहुत स्वागत
जवाब देंहटाएंAadarniya Maudgil ji,
जवाब देंहटाएंSahitya Shilpi ke shubharambh par hardik badhai.Internet par is se behtar sahitya patrika ki aaj ki taarikh me to kalpana nahi ki ja sakti. Samagri bhi umda hai.
Adhikasya adhikam falam...
prakash chandalia
editor-Rashtriya Mahanagar
kolkata
मंचीय कविता के ज़रिये ग़ज़लों तक पहुँचे योगेन्द्र शिल्प के प्रति सावधान होकर सोने में सुहागा और सुई में धागा भी डाल सकेंगे. वे चाहें, तो इसके लिये मोबाइल अथवा ई-मेल द्वारा मुझसे सम्पर्क करें.
जवाब देंहटाएंbhuwaneshkumar220@yahoo.com
Mob. 09891201047
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.