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गुलाबी कागज का एक टुकड़ा [लघुकथा] - देवेश वशिष्ठ “खबरी”

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उसने उस पूरे दिन हाड़-तोड़ मेहनत की थी| मालिक ने खुश होकर उसे आज रोज से दस रुपये ज्यादा मजदूरी दी थी। शाम के झिटपुटे में उसने रिफाइनरी को देखा। जैसे-जैसे अंधेरा शिकंजा कसता जा रहा था, रिफाइनरी का अहाता और जमगगाता जा रहा था। दूधिया रोशनी को देखकर वो मुस्कुराया। आज उसे पूरे छ: महीने बाद छुट्टी मिली थी, वो भी पूरे पंद्रह दिन की। एक एक पाई बचाकर उसने करीब पांच हज़ार रुपये जोड़े थे....एक कुशल और जिम्मेदार प्रबंधक की तरह जिसका वो हिसाब लगा रहा था।

अहमदाबाद में अपने घर जाने से पहले, मथुरा से मां के लिए उसने रामायण का नया गुटका लिया था। उसे माँ का चश्मा भी बनवाना था, छुटकी ने चलते समय तोड़ी का जोड़ा लाने के लिए कहा था। चांदी की तोले भर की तोड़ी तो उसने देख भी ली थी, लेकिन सुनार उसके दो सौ रुपये मांग रहा था। अब तोड़ी लेकर अपने हाथों से बहन के पांवों में पहनाएगा। उसने जेब में हाथ डाला, दस-पांच और सौ-सौ के नोटों को मिलाकर बड़ी सी गड्डी बन गई थी। वह नोटों को गिनने लगा।

अपनी जी तोड़ मेहनत के बाद कमाये नोटों के बीच उसने एक गुलाबी सा कागज संभालकर रखा हुआ था; जो नोटों की ही तरह मैला-कुचैला सा हो रहा था। तेल की रिफाइनरी में काम करते करते जैसे ही फुर्सत मिलती, वह उस पुर्जे को पढ़ने लगता। अब अगर तेल के हाथों से गुलाबी, काला हो जाए तो उसकी क्या गलती? इस कागज के टुकड़े में न जाने ऐसा क्या था, कि उसकी आंखों में पानी उतर आया। वह खो गया, मटमैले सपनों में, धुंधली यादों में।...।वह ग्रेजुएट था। कॉलेज के दिनों को भला वह कैसे भूल सकता था। वह पढ़ने में भी ठीक-ठाक था.... उस डिबेट कम्पटिशन में उससे पहली मुलाकात हुई थी, फिर पता ही नहीं चला कि कब एक तस्वीर दिल उतरती चली गई। इसी अधबनी तस्वीर की यादें थी इस कागज के टुकड़े में।..।

अक्सर उसके माथे पर पेन से वह बिंदी लगा दिया करता था, तो हंसकर कहती “तुम तो बिल्कुल पागल हो। मैं मुसलमान हूँ। हमारे मजहब में बिंदी नहीं लगाते”। वह खीज जाता. “मुझे हिन्दू मुसलमान से क्या करना? बस बिंदी में तुम अच्ची लगती हो इसीलिए...”।...।नोटों के बीच रखा गुलाबी टुकड़ा उन्हीं यादों का हिस्सा था। उसने अपनी आंखें पोंछीं और अपने मन को समझाया, अरे आज रोने का नहीं, आज तो खुश होने का दिन है। सुबह तक तो मैं ट्रेन से घर पहुंच ही जाऊंगा। उसने नोट और गुलाबी खत, बस्ते में रखी रामायण में रख लिए, और उसी थैले की दूसरी जेब में बहन की तोड़ी।

वह रोज ही पैदल चलकर स्टेशन के पास अपनी झुग्गी तक जाता था, लेकिन आज एक-एक मिनट उसे भारी पड़ रहा था। वह जल्दी से जल्दी घर जाना चाहता था। इन छ: महीनों में आज उसने पहली बार अपने कपड़ों पर धोबी को एक रुपया देकर प्रेस करायी थी। आज पहली बार उसने आटो वाले को स्टेशन तक जाने के चार रुपये दिये थे।..।स्टेशन पर उसकी निगाहें पटरियों की समानांतर दूरी को देख रहीं थीं। ”मैं हिंदू, वो मुसलमान! एकदम समानान्तर!”। तभी ट्रेन ने ट्रैक बदला और समानान्तर पटरी आपस में मिल गईं। उसका चेहरा चमक उठा। वह ट्रेन में चढ़ गया, मटमैले सपने लेकर; धुंधली यादें और अभी अभी खिली उम्मीदों के साथ।

इस समय वो न हिंदू था, न मुसलमान। वो बस प्रेमी था. उसे प्यार था. अपनी मां से, अपनी बहन से, अपने प्यार से. वो न तो राम का भक्त था और न ही उसे रहीम पर यकीन था। अगर वो किसी चीज पर यकीन करता था तो अपने पसीने पर। पसीने से कमाये कुछ हजार रुपयों से ही तो वो इतना खुश था, जितना सुख उसे अपनों से मिलने की बात सोच-सोच कर हो रहा था उतना तो शायद उसे स्वर्ग मिल जाने पर भी नहीं होता।....... स्वर्ग! अरे वो तो अपने घर जा रहा था. यहां स्वर्ग और नरक की बात कहां से आ गई?

पूरी बोगी जला दी गई थी। इस प्रेम के पुजारी पर राम नाम का ठप्पा लगा दिया गया। उसकी अधजली लाश की गिनती कारसेवकों में हुई। उस जैसे बहुत से थे, जो किसी धर्म के न थे, वो बस मजदूर थे। इस घटना के बाद दंगा भड़क गया. धर्म की दुअर्थी किताबों को पढ़कर इंसान, हैवान बन गया। लूट, हत्या और बलात्कार के गदर में उसकी बहन और प्रेमिका जैसी न जाने कितनी मासूमों को बिना गुनाह की सजा मिली।.....। रेल की पटरी के किनारे कूड़ा बीनने वाले को एक बस्ता मिला; रुपये देखकर वह चहक उठा। बाकी का फालतू सामान वहीं फेंक, वह चल दिया अपनी खोली की ओर। समानान्तर पटरियों के बीच रह गया रामायण का नया गुटका, पुराना थैला, उसकी छोटी जेब में रखा तोड़ी का जोड़ा और एक कोने में पड़ा था मैला-कुचैला गुलाबी कागज का एक टुकड़ा......

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17 टिप्पणियाँ

  1. achaa drishya prastut kiya devesh bhai.. kuch batein aisee hoti hain jinhein sab samajhte hain par, fir bhi andekha karte hain.. aisee baato ko sadrashya banaane se wo khul kar logo k saamne atee hain aur insaan apne aap ko us se jod sakta hai.. is dhaarna aur drishya k sambandh ko banane mein kathayein aur laghu kathayen bahut mahatva rakhti hain.. aap ne us mahatva ko pratipaadit kiya hai..
    meri tah -e-dil se badhai sweekarein..

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  2. रोजमर्रा की घटना यह पीडा भी है और दंगे भी हैं। लघुकथा का आखिरी पैराग्राफ मार्मिक है..

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  3. एसी लघुकथा है जिसका अंत बरबस ही आँख नम कर देता है। इसके बाद क्या कहूँ..

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  4. वाह! बहुत सुंदर कथा है. मर्म को स्पर्श करने वाली. देवेशजी को बहुत-बहुत बधाई.

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  5. देवेश जी..

    आपकी इस लघु कथा में बहुत सामयिकता है। आम आदमी के साथ आम घटने वाली घटना है यह तो बताती है कि बारूद कि हम बारूद के ढेर पर खड़े हैं। कहानी जिस जिज्ञासा को समेट कर आगे बढती है अंत होते होते उतनी ही संवेदना पाठक के अंतस में उकेरती है।

    ***राजीव रंजन प्रसाद

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  6. दंगे और आतंकवाद एक अभिशाप हैं, जब तक इनसे निजात नहीं मिलती कितने ही गुलाबी कागज के टुकडे बेमानी होते रहेंगे।

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  7. देवेश जी! कहानी में वर्णित गुलाबी कागज के टुकड़े जैसी छोटी-छोटी चीजें ही जीवन को उसका सच्चा अर्थ प्रदान करतीं हैं. परन्तु अक्सर हम इन्हीं की अनदेखी कर देते हैं और धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र व भाषा के झगड़ों में उलझ जाते हैं.
    सुंदर और मार्मिक कहानी के लिये बधाई!

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  8. छोटी पर विशाल
    विचारों से भरपूर
    कहानी हजूर।

    खबरी नहीं हैं
    सिर्फ आप
    भावनाओं के भी
    सदा हैं साथ।

    लाते हैं खबरों से
    सच निकाल के
    कड़वी सच्‍चाईयां
    हकीकत जान के।

    हकीकत है सब
    घटता है जो अब
    तेरे मेरे उसके साथ
    भाग सके इनसे बचके
    ऐसे नहीं किसी के भाग।

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  9. देवेश जी,

    लघुकथा आरम्भ से अन्त तक पाठक को बांधे रहती है.. सचमुच आंतकियों का कोई धर्म नहीं होता, जाती नहीं होता.. देश नहीं होता वो तो बस हाड मांस के पुतले भर है जिन्हें चाबी भर के चलाया जाता है.. और हमें इनके बहकावे में न आ कर अपना मानसिक संतुलन बनाये रखना ताकि कहीं हम इनके बहकावे में आ कर अमानुश न बन जायें

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  10. विशाल परिदृश्य समेटे आपकी लघु कथा--सामयिक, जीवंत एवं संवेदनशील।
    बधाई।

    प्रवीण पंडित

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  11. लघुकथा अपने ध्येय में सफल होती है। अंतिम पैराग्राफ़ तक सस्पेंश बना रहता है।

    अंत जानकर दु:ख भी होता है और आक्रोश भी।
    परंतु यही तो सच्चाई है, जो हम सबों के सीने पर वार करती रहती है।

    लेखनी की सफलता पर बधाई।

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  12. मार्मिक कथा एवं शानदार प्रस्तुति। दिल लको छूती है ये लघु कथा। आपने ऐसी कड़्वी सच्चाई बयाँ की है जिसे हम सभी जानकर भी नहीं जानना चाहते।

    खैर अच्छी रचना के लिए बधाई....

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  13. itna achha kese likhte ho ap?
    i mean .... jab aap likhte ho to koi angel ati hofi or aapli fingers pe touch kerti hogi or aapki story me itni feelings aa jati hei... hai na?
    or kya aap ko kyaa pata ki angel ati he ya nahi wo koi dikhayi thodi deti wo to invisible hoti hei...

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