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अन्दाज अपना – अपना [लघुकथा] – सूरजप्रकाश


वे एक वरिष्ठ कवि हैं। शहर में उनका नाम है। कई फिल्मों और भजनों के एल्बमों के लिये गीत लिख चुके हैं। उनकी अल्मारी कई तरह के सम्मान प्रतीकों से भरी पड़ी है। यहां तक पहुंचने के लिये उन्हें लम्बा संघर्ष करना पड़ा है।

पिछले साल एक पारिवारिक किस्म की संस्था ने उन्हें साहित्य - सेवा के लिये पुरस्कार दिया। यह संस्था उस किस्म की थी जिसके लिये इस तरह के पुरस्कार देना एक शगल की तरह था और उनके लिये पुरस्कार पाने वाले की कोई अहमियत नहीं थी। अहमियत थी उनकी जो इन पुरस्कारों को देने के बहाने मंच पर सवार होते थे। लेखक तो बेचारे सामने श्रोताओं में से उठ कर पुरस्कार लेने आते थे।

अब संकट यह हुआ कि इन कवि जी को दूसरा पुरस्कार दिया गया था जो कि सिर्फ पांच हजार का था। ग्यारह हजार का पहला पुरस्कार किसी गुमनाम शहर के गुमनाम किस्म के लेखक के हिस्से में आया था और संस्था के नियमों के अनुसार मंच से अपनी बात भी पहले पुरस्कार विजेता के रूप में उसी लेखक को कहनी थी।

कवि महोदय कसमसा रहे थे। यह साफ - साफ उनका और उनकी दीर्घ साहित्य - साधना का अपमान था। उन्हें अज्ञात शहर के अज्ञात लेखक से भी एक सीढ़ी नीचे मान लिया गया था।पुरस्कार तो वे खैर ले आये लेकिन दुखी मन से। अपनी व्यथा मित्रों के बीच अलग - अलग तरीके से व्यक्त कर ही चुके थे लेकिन मन पर रखा बोझ किसी तरह कम नहीं हो रहा था। यह पहली बार हो रहा था कि वे पुरस्कृत भी हुए, दुखी भी।

तभी गुजरात में भयंकर भूकंप आ गया जिस में हजारों लोगों की जान गयी। पूरी की पूरी बस्तियां तबाह हो गयीं। पूरे देश ने खुले हाथों से पीडित व्यक्तियों की मदद करनी शुरु कर दी।

कवि जी ने आव देखा न ताव, पुरस्कार में मिले पांच हजार रूपए भूकंप सहायता कोष में जमा करा दिये और शहर के सभी समाचार पत्रों में प्रमुखता से छपवा दिया - कवि जी ने फलां संस्था से मिले दूसरे पुरस्कार की पांच हजार की राशि भूकंप सहायता कोष में दान कर दी।

सभी समाचार पत्रों में अपनी तस्वीर के साथ छपी आशय की खबर पढ क़र उनके सीने पर इतने दिनों से रखा पत्थर अब हट चुका था।

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17 टिप्पणियाँ

  1. सूरज प्रकाश की रचनाएं अक्सर रोचकता लिये रहती हैं, फिर एक अच्छी रचना पढने मिली।

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  2. ऐसा ही कुछ अंदाज शोभा का है, यहाँ रिश्तेदारों से बहुत से वस्तुएं भेंट में मिलती है। जो रुचिकर न हों उन्हें वह दान कर देती है, अपने आस पास काम करने वालों को।

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  3. आदरणीय सूरज प्रकाश जी की कहानी हमेशा उस 'दूसरे दृष्टिकोण' पर ही होती है। साधारण सी लगने वाली घटना कैसे असाधारण कहानी बन सकती है यह सूरज प्रकाश जी की लेखनी से बेहतर कौन जानता है...

    ***राजीव रंजन प्रसाद

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  4. खाली इनाम से कुछ नहीं होता...नाम भी तो होंना चाहिए....

    रोचकता से भरपूर बढिया कहानी..

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  5. रोचक अऔर सच्चाई को प्रस्तुत करती हुई कहानी।

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  6. सूरज जी,

    कभी कभी नाम..ईनाम से बडा होता है.. और वो भी जब ईनाम पैसे की शक्ल में हो..और खीज या इर्श्या में आदमी क्या कर सकता है इसका एक बढिया उदाहरण है आपकी यह रचना... आभार

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  7. अलग सोच के साथ प्रस्तुत सुन्दर कहानी।

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  8. साहित्यकार-समाज भी सोच के सीमित दायरे के भीतर ही है। अच्छी कहानी..

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  9. नाम,पहचान और प्रशंशा के लोभ से ऊपर उठ पाना विरले ही किसी के लिए सम्भव होता है.बहुत सुंदर ढंग से कहानी में यह दर्शाया गया है.बहुत ही सुंदर कथा है.

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  10. अहं-तुष्टि के अपने अपने तरीक़े हैं।

    क्या वाक़ई, इस बनावटी तरीक़े से संतुष्ट हो जाते हैं लोग।
    कम शब्दों मे भी भरपूर रोचकता बनी रही कथा में।
    प्रवीण पंडित

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  11. कहानी उन लोगों का सही प्रतिनिधित्व करती है जो नाम पाने ,अखबारों में छपने की मानसिकता लिये हुए हैं और वो उसके लिये कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं। सार्थक..........

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  12. बहुत अच्छे से एक साधारण घटना को
    कहानी का रूप दे देना, सच में ,एक कला है....

    बधाई....

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  13. Priy Raajiv jee, Prasidh kathakar Suraj Prakash ne laghu kahani "Andaz apna-apna" kuchh is saadhgee se bunee hai ki unhen dheron badhaaeean dene ko jee chaahtaa hai.Kahne ko to kahani chhotee hai lekin kathaanak kee drishti se bahut badee hai

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  14. सचमुच अंदाज़ तो हर एक का अपना-अपना ही होता है. सूरजप्रकाश जी का ये अंदाज़ भी बहुत अच्छा लगा!

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  15. हा हा हा बहुत बढ़िया. समाचार पत्र में फोटो देखने के लिए न जाने कितने साहित्यकार क्या क्या करते हैं. यह तो ज्यादा महंगा सौदा नहीं रहा. अच्छी कथा.

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