धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी
तुम हमारी ही जड़ों से
ख़ाद पानी चूस कर
इतरा रहे हो ?
दर्प की हर शाख से
हमको कुचलते जा रहे हो
और कितने झोपड़ों को
यों उजाड़ोगे.. ....?
'सत्तासुन्दरी' का साथ पाने के लिये…
महल आलीशान की हर नींव में
है दबा कोई हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी
बाढ़ या सूखा
हमें ही उजड़ना क्यों है
मगरमच्छी आंसुओं में
हर बार हमको डूबना क्यों है
स्वर्ग वासी नियामक
हम 'स्वर्गवासी' हैं
'दूरदर्शन' महाप्रिय प्रभु
दर्शन दूर से ही दो
बन्द मुट्ठी में हवा है
अरे उसको छोड़ दो
आपके इस कुटिल सत्ता खेल में
घर उजड़ता है हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी
आस्था के सेतु को
कौटिल्यता से छोड़ दो
युगों से ‘जाग्रत-धरा’ की
‘भावना’ को छोड़ दो
हर न्याय के उपहास को
अपने लिये अब छोड़ दो
अन्यथा…
तूफान आने दो हमारे पास
यौवन है हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी।
20 टिप्पणियाँ
धूप आने दो हमारे पास
जवाब देंहटाएंसूरज है हमारा भी...
-इतना ही पूरा है..वाह!! क्या बात है!
कबिता के भीतर कई कवितायें हैं और सभी बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंवाह! कविता में जो प्रतीकार्थ है वो निश्चय ही प्रभावी है. सुंदर भावः और सुंदर भाषा . कवि को बधाई.
जवाब देंहटाएंप्रभावी रचना।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना।
जवाब देंहटाएंबधाई स्वीकारें।
एक कविता
जवाब देंहटाएंजो अहसास
कराती है
पूरी शिद्दत
के साथ
गुनगुनाहट और
गरमाहट का।
तूफान आने दो हमारे पास
जवाब देंहटाएंयौवन है हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी।
bahut sunder rachana
makrand-bhagwat.blogspot.com
i am not as good writer i am just to blog
need u r guidence if u visit and see my post
श्रीकांत जी, मैं कविता के मर्म तक नही पहुँच पाया! कविता और बेहतर प्रस्तुतिकरण की माँग कर रही है शायद! आख़िरी पेरा में आपकी- कलाम की धार के दर्शन होते हैं पर अर्थ बड़ा उलझा हुआ सा लगा..!
जवाब देंहटाएंश्रीकांत जी की कविता की आलंकारिकता की बात ही अलग है। दृष्टिकोण तो प्रथम दो पंक्तियों में ही स्पष्ट हो जाता है किंतु साथ ही कविता अपने चरम पर आशावादिता और क्रांति का जो शंखनाद करती है वह बहुत प्रभावी पंक्तियों द्वारा प्रस्तुत हुआ है।
जवाब देंहटाएं***राजीव रंजन प्रसाद
बहुत अच्छी कविता, आज के समय में सार्थक।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता, बधाई श्रीकांत जी।
जवाब देंहटाएंधूप आने दो हमारे पास
जवाब देंहटाएंसूरज है हमारा भी
बधाई
स्नेही मित्रो
जवाब देंहटाएंरचना के प्रति आपके स्नेह से सिक्त हूँ ..... साथ ही प्रिय विपुल जी का विशेष आभार.
जहाँ टिप्पणी का प्रश्न है मैं सहमत हूँ कि प्रत्येक रचना का प्रस्तुतीकरण सदैव पहले से बेहतर किया जा सकता है. रही बात अर्थ को लेकर तो मेरा मंतव्य यही है कि वर्ग विशेष द्वारा शोषण और सर्वारक्षण की, अब इंतहा हो चुकी है. यदि यह वर्ग मेरे इन शब्दों की गहराई में छिपी आज के नववंचित युवा पीढ़ी की चेतावनी को शीघ्रातिशीघ्र पढ़ ले तो देश और समाज के भविष्य के लिए है अच्छा होगा.... अन्यथा सुविधाभोगी सर्वारक्षितवर्ग हमारे देश और समाज को किस चौराहे तक पहुंचा चुका है यह सर्वविदित ही है. जैसा कि राजीव जी की टिप्पणी से भी स्पष्ट है
आप सबके स्नेह के प्रति पुनः आभार
श्रीकांत जी! हर बार की तरह इस बार फिर आपकी एक बहुत सुंदर कविता पढ़ने को मिली. आभार!
जवाब देंहटाएंश्रीकांत जी!
जवाब देंहटाएंमकरंद प्रथम दो पंक्तियों से ही झरने लगता है-सूरज है हमारा भी-।
अलंकारिक जागरण है आपकी रचना।
प्रवीण पंडित
सूरज है हमारा भी।
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा | एक दम मजबूत बात कही | अधिकार , हक भीख में नही मांगे जाते .. न जताए जाते हैं.. बस छीन लिए जाते हैं | दलित तभी तक दलित है , जब तक वो ख़ुद को दलित समझता है | ह्रदय से निकली कविता ह्रदय तक पहुँची | बहुत बधाई | :-)
श्रीकान्त जी,
जवाब देंहटाएंहर शब्द में एक संदेश है..
कम से कम मूलभूत सुविधायें तो जन जन तक पहुंचाना हम सब का कर्तव्य है..
सुन्दर रचना के लिये आभार
ati uttam kya kehne
जवाब देंहटाएंkeep it up
धूप आने दो हमारे पास
जवाब देंहटाएंसूरज है हमारा भी
वाह....सुंदर...
श्रीकांत जी !
बधाई...
kaant ji,
जवाब देंहटाएंbahut badhia
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.