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धूप आने दो [कविता] – श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'

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धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी

तुम हमारी ही जड़ों से
ख़ाद पानी चूस कर
इतरा रहे हो ?
दर्प की हर शाख से
हमको कुचलते जा रहे हो
और कितने झोपड़ों को
यों उजाड़ोगे.. ....?

'सत्तासुन्दरी' का साथ पाने के लिये…
महल आलीशान की हर नींव में
है दबा कोई हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी

बाढ़ या सूखा
हमें ही उजड़ना क्यों है
मगरमच्छी आंसुओं में
हर बार हमको डूबना क्यों है
स्वर्ग वासी नियामक
हम 'स्वर्गवासी' हैं
'दूरदर्शन' महाप्रिय प्रभु
दर्शन दूर से ही दो
बन्द मुट्ठी में हवा है
अरे उसको छोड़ दो
आपके इस कुटिल सत्ता खेल में
घर उजड़ता है हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी

आस्था के सेतु को
कौटिल्यता से छोड़ दो
युगों से ‘जाग्रत-धरा’ की
‘भावना’ को छोड़ दो
हर न्याय के उपहास को
अपने लिये अब छोड़ दो
अन्यथा…
तूफान आने दो हमारे पास
यौवन है हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी।

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20 टिप्पणियाँ

  1. धूप आने दो हमारे पास
    सूरज है हमारा भी...


    -इतना ही पूरा है..वाह!! क्या बात है!

    जवाब देंहटाएं
  2. कबिता के भीतर कई कवितायें हैं और सभी बेहतरीन।

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह! कविता में जो प्रतीकार्थ है वो निश्चय ही प्रभावी है. सुंदर भावः और सुंदर भाषा . कवि को बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  4. बेहतरीन रचना।
    बधाई स्वीकारें।

    जवाब देंहटाएं
  5. एक कविता
    जो अहसास
    कराती है
    पूरी शिद्दत
    के साथ
    गुनगुनाहट और
    गरमाहट का।

    जवाब देंहटाएं
  6. तूफान आने दो हमारे पास

    यौवन है हमारा भी

    धूप आने दो हमारे पास

    सूरज है हमारा भी।

    bahut sunder rachana

    makrand-bhagwat.blogspot.com
    i am not as good writer i am just to blog
    need u r guidence if u visit and see my post

    जवाब देंहटाएं
  7. श्रीकांत जी, मैं कविता के मर्म तक नही पहुँच पाया! कविता और बेहतर प्रस्तुतिकरण की माँग कर रही है शायद! आख़िरी पेरा में आपकी- कलाम की धार के दर्शन होते हैं पर अर्थ बड़ा उलझा हुआ सा लगा..!

    जवाब देंहटाएं
  8. श्रीकांत जी की कविता की आलंकारिकता की बात ही अलग है। दृष्टिकोण तो प्रथम दो पंक्तियों में ही स्पष्ट हो जाता है किंतु साथ ही कविता अपने चरम पर आशावादिता और क्रांति का जो शंखनाद करती है वह बहुत प्रभावी पंक्तियों द्वारा प्रस्तुत हुआ है।

    ***राजीव रंजन प्रसाद

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत अच्छी कविता, आज के समय में सार्थक।

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत अच्छी कविता, बधाई श्रीकांत जी।

    जवाब देंहटाएं
  11. धूप आने दो हमारे पास
    सूरज है हमारा भी


    बधाई

    जवाब देंहटाएं
  12. स्नेही मित्रो
    रचना के प्रति आपके स्नेह से सिक्त हूँ ..... साथ ही प्रिय विपुल जी का विशेष आभार.

    जहाँ टिप्पणी का प्रश्न है मैं सहमत हूँ कि प्रत्येक रचना का प्रस्तुतीकरण सदैव पहले से बेहतर किया जा सकता है. रही बात अर्थ को लेकर तो मेरा मंतव्य यही है कि वर्ग विशेष द्वारा शोषण और सर्वारक्षण की, अब इंतहा हो चुकी है. यदि यह वर्ग मेरे इन शब्दों की गहराई में छिपी आज के नववंचित युवा पीढ़ी की चेतावनी को शीघ्रातिशीघ्र पढ़ ले तो देश और समाज के भविष्य के लिए है अच्छा होगा.... अन्यथा सुविधाभोगी सर्वारक्षितवर्ग हमारे देश और समाज को किस चौराहे तक पहुंचा चुका है यह सर्वविदित ही है. जैसा कि राजीव जी की टिप्पणी से भी स्पष्ट है

    आप सबके स्नेह के प्रति पुनः आभार

    जवाब देंहटाएं
  13. श्रीकांत जी! हर बार की तरह इस बार फिर आपकी एक बहुत सुंदर कविता पढ़ने को मिली. आभार!

    जवाब देंहटाएं
  14. श्रीकांत जी!
    मकरंद प्रथम दो पंक्तियों से ही झरने लगता है-सूरज है हमारा भी-।
    अलंकारिक जागरण है आपकी रचना।

    प्रवीण पंडित

    जवाब देंहटाएं
  15. सूरज है हमारा भी।

    बहुत उम्दा | एक दम मजबूत बात कही | अधिकार , हक भीख में नही मांगे जाते .. न जताए जाते हैं.. बस छीन लिए जाते हैं | दलित तभी तक दलित है , जब तक वो ख़ुद को दलित समझता है | ह्रदय से निकली कविता ह्रदय तक पहुँची | बहुत बधाई | :-)

    जवाब देंहटाएं
  16. श्रीकान्त जी,
    हर शब्द में एक संदेश है..
    कम से कम मूलभूत सुविधायें तो जन जन तक पहुंचाना हम सब का कर्तव्य है..
    सुन्दर रचना के लिये आभार

    जवाब देंहटाएं
  17. धूप आने दो हमारे पास
    सूरज है हमारा भी

    वाह....सुंदर...

    श्रीकांत जी !
    बधाई...

    जवाब देंहटाएं

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