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झुलसा फकीर [कविता] – योगेश समदर्शी

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पीपल, बरगद, महुआ, नीम,
धीमर, छिप्पी, टौंक, हकीम,
पंडित, ठाकुर, राम, रहीम,
कैसे सबकी बदल गई है देखो तो तकदीर,
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर.

रामू पंडित, भोला धोबी,
दल्लू धीमर, कालू छिप्पी
बलबीरे ठाकुर की खोली
वो बदलू कुम्हार की बोली
जात बताते नाम नहीं ये
व्यक्ति की पहचान बने थे
अब से पहले कभी नही यूं
जात के नाम पे लोग तने थे
कुछ पढे लिखे पैसे वालों ने रची नई तहरीर
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर.

अपनी किस्मत, अपना हिस्सा,
सबका अपना अपना किस्सा,
कोई बडी जमीं का मालिक
कोई बोये बिस्सा बिस्सा,
खेत किसी के किसी की मेहनत
फसलें सब साझी होती थीं
सारे गांव की जनता मिलकर
खेतों में फसलें बोती थीं
ऊंच नीच, बडके छोटे की खिंच गई एक लकीर
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर.

पाठशालाओं के रस्ते अब,
कालेज पहुंच रहे हैं गांव.
सभ्य होने की इस कोशिश में
सभ्यता की डूबी नांव
अफसर, मालिक और अमीर,
बनते देखें गांव के लोग.
धीरे धीरे से हमने अब,
छंटते देखे गांव के लोग
आपसदारी और प्रेम की टूट गई तस्वीर
गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर. 

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18 टिप्पणियाँ

  1. आपसदारी और प्रेम की टूट गई तस्वीर
    गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर.

    चित्र प्रस्तुत कर दिया आपनें। बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  2. योगेश जी मिट्टी के कवि हैं। जमीन से जुडा रहना और उसे शब्द देना केवल कविता ही नहीं है बल्कि आह्वाहन भी है।

    जवाब देंहटाएं
  3. गाँव पर ही योगेश जी की पिछली कविता थी, यह कविता भी उसी कडी में एक और बेहतरीन प्रस्तुति है। बहुत सी बाते और समस्यायें भी उकेरी हैं।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत खूब। ठेंठ गँवई शब्दों के प्रयोग ने इस रचना को और सुन्दर बना दिया है।

    कुछ पढे लिखे पैसे वालों ने रची नई तहरीर
    गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर.

    वाह। चलिए मैं भी तुक मिला दूँ-

    स्वार्थ घिनौना ऐसा है कि बेची गयी जमीर।
    अलख जगाने आएगा ही फिर से एक फकीर।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  5. rआपने बखूबी स्थापित किया है कि भारत गाँवों मे ही बसता है। बहुत अच्छी कविता।

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  6. बहुत सुंदर । पर भेद भाव तो तब भी था । जमीदार किसानं की मेहनत खा जाते थे . साहूकार झूटे कागज पर दस्तखत लेकर जमीने हडप लेते थे । जाति के नाम पर कूएँ का पानी नही लेने दिया जाता था और न जाने क्या क्या ।।

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  7. सत्य का चित्र उकेरती देशीय शब्दों से सजी एक भावपूर्ण रचना

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  8. गाँव का बहुत ही मर्मिक चित्रण किया है आपने..... आज की वास्तुस्थिति भी यही है.. बधाई स्वीकारें

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  9. वाह समदर्शी साहब | आज से मुरीद हुए हम आप के | ग़ज़ब की चित्रात्मक शैली है आप की | मन में चित्र उमड़ आता है , गाँव की गलियों में घूमता फिरता एक फकीर गाता चला जा रहा है | इस पर धुन भी बनाई जा सकती है | काफी जमेगी | गाँव से जुड़ी रचनाओं में अक्सर एक खोखली रूमानियत महसूस होती है मुझे | ये एक ओरिजनल प्रयास था और आप निसंदेह सफल हुए उस में | बधाई | :-)

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  10. A poem that is reality of today. Very nice composition. Thanks.

    Alok Kataria

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  11. बहुत खूब। ....।एक भावपूर्ण रचना बधाई

    जवाब देंहटाएं
  12. फकीर के माध्यम से आपने बड़ी हीं गहरी बात कही है। दिमाग कहता है कि सच्चाई यही है लेकिन दिल कहता है कि काश ऎसा न हो।

    बधाई स्वीकारेम।

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  13. तमाम तरह के चरित्र और तैय्यार सैट , बस शूट करना बाक़ी है ।
    लग रहा है कि किसी ठेठ गांव मे खड़ा हूं ।

    प्रवीण पंडित

    जवाब देंहटाएं
  14. वाह,बहुत ही सुंदर शब्द संरचना.यथार्थ को चित्रित करती अति सुंदर मनमोहक भावपूर्ण कविता के लिए आभार.

    जवाब देंहटाएं
  15. योगेश जी की कविताओं में मिट्टी की सोंधी खुशबू है। उनकी यह कविता एक घोषणा है कि माटी कलम का विषय अब भी है, और वास्तव में लेखन यही तो है। अपने कवि धर्म का निर्वाह करते हुए योगेश जी गंभीर सवाल भी खडे करते हैं वह भी बिना लाग-लपेट...

    ***राजीव रंजन प्रसाद

    जवाब देंहटाएं
  16. कविता में इतना धरातल का तल
    ये मेरा मन मिट्टी मिट्टी हो गया
    बेसुध हो मैं सिट्टी पिट्टी खो गया।

    जवाब देंहटाएं
  17. "सभ्य होने की इस कोशिश में
    सभ्यता की डूबी नांव"

    बहुत बढ़िया कविता योगेश जी. मन को छू गयी. काश हर झुलसे फकीर तो उसकी छाँव जल्द ही नसीब हो और हम सभ्य होने के साथ साथ सभ्यता की नाव को भी डूबने से बचा सकें.

    जवाब देंहटाएं

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