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वॉकर [लघुकथा] - सुभाष नीरव

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“सुनो जी, अपनी मुन्नी अब खड़ी होकर चलने की कोशिश करने लगी है।” पत्नी ने सोयी हुई बेटी को प्यार करते हुए मुझे बताया।

“पर, अभी तो यह केवल आठ ही महीने की हुई है !” मैंने आश्चर्य व्यक्त किया।

“तो क्या हुआ ? मालूम है, आज दिन में इसने तीन-चार बार खड़े होकर चलने की कोशिश की।” पत्नी बहुत ही उत्साहित होकर बता रही थी, “लेकिन, पाँव आगे बढ़ाते ही धम्म से गिर पड़ती है।”

मुन्नी हमारी पहली सन्तान है। इसलिए हम उसे कुछ अधिक ही प्यार करते हैं। पत्नी उसकी हर गतिविधि को बड़े ही उत्साह से लेती है। मुन्नी का खडे होकर चलना, हम दोनों के लिए ही खुशी की बात थी। पत्नी की बात सुनकर मैं भी सोयी हुई मुन्नी को प्यार करने लग गया।

एकाएक पत्नी ने पूछा, “सुनो, वॉकर कितने तक में आ जाता होगा ?”

”यही कोई ढ़ाई-तीन सौ में...।” मैंने अनुमानतः बताया।

“कल मुन्नी को वॉकर लाकर दीजियेगा।” पत्नी ने कहा, “वॉकर से हमारी मुन्नी जल्दी चलना सीख जायेगी।”

मैं सोच में पड़ गया। महीना खत्म होने में अभी दस-बारह दिन शेष थे और जेब में कुल तीन-चार सौ रुपये ही बचे थे। मेरे चेहरे पर आयी चिन्ता की शिकन देखकर पत्नी बोली, “घबराओ नहीं, दो सौ रुपये मेरे पास हैं, ले लेना। वक्त-बेवक्त के लिए जोड़कर रखे थे। कल ज़रूर वॉकर लेकर आइयेगा।”

सुबह तैयार होकर दफ्तर के लिए निकलने लगा तो पत्नी ने सौ-सौ के दो नोट थमाते हुए कहा, “घी बिलकुल खत्म हो गया है और चीनी-चाय पत्ती भी न के बराबर हैं। शाम को लेते आना। परसों दीदी और जीजा जी भी तो आ रहे हैं न !”
मैंने एक बार हाथ में पकड़े हुए नोटों को देखा और फिर पास ही खेलती हुई मुन्नी की ओर। मैंने कहा, “मगर, वह मुन्नी का वॉकर...।”

“अभी रहने दो। पहले घर चलाना ज़रूरी है।”

मैंने देखा, मुन्नी मेरी ओर आने के लिए उठकर खड़ी हुई ही थी कि तभी धम्म् से नीचे बैठकर रोने लगी।

***** 

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19 टिप्पणियाँ

  1. आम मध्यमवर्गीय घर-घर की कहानी है। प्रभावी लघुकथा।

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  2. आम मजबूरी , बढ़ते हुए बच्चे , बढ़ते हुए खर्चे , सपने , हकीकत , समझौता ...सभी कुछ बेहतरीन ढंग से पिरोया है एक ही लघुकथा में | सुंदर प्रयास |

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  3. कम शब्दों में मर्म को कस कर बांध लिया गया है इस रचना में... सुन्दर प्रस्तुति

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  4. सिमित शब्दों में एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के जीवन की पूरी व्यथा कथा आपने कह सुनाई.बहुत बहुत सुंदर और प्रभावशाली लेखन के लिए आभार..

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  5. आम आदमी के दर्द को प्रस्तुत करती आपकी कहानी बहुत पसंद आयी। बधाई।

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  6. "मैंने देखा, मुन्नी मेरी ओर आने के लिए उठकर खड़ी हुई ही थी कि तभी धम्म् से नीचे बैठकर रोने लगी।" कहानी के अंत में आपकी ये पंक्तियाँ जैसे द्रवित कर देती हैं।

    ***राजीव रंजन प्रसाद

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  7. आजकल के महंगाई के ज़माने में आम आदमी के रोज़ाना की ज़िंदगी को बहुत ही संक्षिप्त परंतु ठोस तरीके से आपने एक लघु कथा के माध्यम से व्यक्त किया है। कहानी कैसे खत्म हो जाती है पता भी नहीं लगता, परंतु खत्म होते होते अंदर से झकझोर जाती है।

    बहुत अच्छी कहानी।

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  8. नीरव जी आपने यह लघुकथा रोजमर्रा से तलाश ली है, हर आदमी भुगत रहा है आज यह।

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  9. Aajkal kee lambee kahaanian jahan
    anavashyak vistaar se kheejh paida
    kartee hain vahin laghu kahanion
    ko padh kar ek anokha hee anand
    aataa hai.Rachna vo jo mun ko bhaaye. ek achchhee laghu kahaani
    ke liye Shri Subhash Neerav ko
    badhaaee deta hoon main

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  10. बहुत अच्छी लघुकथा। प्राण सर से सहमत हूँ कि लघुकथाओं का ही दौर है और यह कहानी के बनिस्पत अधिक पढी जायेंगी।

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  11. सुभाष नीरव जी की लघु-कथाएँ जीवन के द्वंद्व को बड़ी गहराई से रेखांकित करती है।यहाँ भी एक ओर माँ की ममता है तो दूसरी ओर उस सामाजिकता का खयाल भी जिस समाज हम रहते हैं, और उसमें संघर्षरत,कुटता-पीसता आदमी। कुरेदने वाली लघुकथा है यह।-सुशील कुमार।

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  12. पत्नी बोली, “घबराओ नहीं, दो सौ रुपये मेरे पास हैं, ले लेना। वक्त-बेवक्त के लिए जोड़कर रखे थे। कल ज़रूर वॉकर लेकर आइयेगा।”

    उद्वेलित करने वाली कहानी...बधाई हो.

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  13. दिल के किसी कोने में टीस सी पैदा करती कहानी.....


    आम मध्यम वर्ग की परेशानियों को सही ढंग से उकेरा है सुभाष नीरव जी ने....बधाई

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  14. अंत ने द्रवित कर दिया।
    शहसवार है , अब पैरों के बल खड़ी होगी और पिता का अभिमान बनेगी।

    प्रवीण पंडित

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  15. नहीं जानता था कि "साहित्य शिल्पी" में छ्पने पर मेरी लघुकथा "वॉकर" पाठकों द्वारा इतनी पसंद की जाएगी। मैं उन सभी पाठकों का दिल से आभारी हूँ कि जिन्होंने अपनी राय से अवगत कराया। "साहित्य शिल्पी" का भी आभारी हूँ कि उसने मेरी लघुकथा को प्रकाशित कर इतने विशाल पाठक समुदाय के सम्मुख रखा।

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  16. मार्मिक.....

    सुंदर प्रयास ...
    बधाई ।

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