क्या होता है अस्तित्व? जिसे तुम जानते हो या जिसे मैं? सच, कितनी विचित्र स्थिति होती है, स्वयं ही खो जायें, कोई पुकारे और आभास ही ना हो ।
हाँ, यही हुआ मेरे साथ । मैं, यानि "आरती" एक सीधा - साधा व्यक्तित्व, सरल, सुंदर, संस्कारी एक आम भारतीय नारी। माता-पिता, भाई-बहिन और मैं, यही एक दुनियाँ जो जानी थी, होश सम्भालने के बाद। बी. ए. की शिक्षा लवाकर कह दिया गया कि बहुत हो गयी पढाई, नौकरी करनी नहीं है, हाथ पीले कर देते हैं।....। मैं पढना चाहती थी। पैरों पर खड़े हो जाने के पश्चात विवाह करना चाहती थी।...लेकिन नहीं, हो गये हाथ पीले। मैं सम्मिलित थी क्या कहीं? हाँ विदाई के समय कहना नहीं भूले कि अब ये घर तुम्हारे लियें पराया है, ससुराल तुम्हारा अपना घर है, वहाँ से अब अर्थी ही निकलनी चाहिये।
नया घर, नये लोग, अपरिचित स्थितियाँ - सब स्वीकृत और रंग गयी उस रंग में। इतनी जल्दी तैय्यार नहीं थी लेकिन बन गयी दो बच्चों की माँ । दुर्दैव, एक दिन --अचानक सिंदूर पोंछकर बिंदी मिटा दी गयी, चूड़ीयाँ तोड़ी गयीं, श्वेत साड़ी में लपेट दिया गया- ये कहकर कि तुम्हारा सुहाग अब नहीं रहा। अवाक, मैं बोधहीना समझ नहीं पा रही थी समय की चाल।...। माता-पिता आये और ले गये अपने घर, जो मेरे लियें पहले ही पराया कर दिया गया था। आज ससुराल का घर भी पराया हो गया । एक बार फिर से हो गयी बेघर। पच्चीस वर्ष की उम्र -विधवा -उस पर दो बच्चों की माँ, कैसे सम्भालेगी ? पढाई भी कम है..विवाह होना आवश्यक है।
और फिर से भर दिये रंग, मेरे तन पर रंगीन साड़ी लपेटकर। वही सिंदूर, वही बिंदी, वही कंगन - पायल, बिछिया। क्या मैं भी थी वही? कहाँ रह गयी मालूम नहीं मुझे।...। बच्चों को सहारा मिल गया। माता-पिता का फिर से एक बार बोझ हल्का हो गया लेकिन बोझ- जो रखा गया मेरे मन पर, एक के बाद एक, क्या देखा किसी ने, जो होता गया स्पंदनहीन ।
बेटी, बहिन, पत्नि, माँ, विधवा, सधवा -- सारी संज्ञाएँ मेरी ही तो थीं। क्या मैं भी थी वहाँ? मेरा भी था एक अस्तित्व। जाने कहाँ खो गया? खोज रही हूँ।
कोई है, जो मिला सकता है मुझे मेरे अस्तित्व से ?????
20 टिप्पणियाँ
तीन चित्र उपस्थित किये हैं आपने और तीनों ही पात्र की सोच को प्रस्तुत करते हुए उसके अस्तित्व की अंतहीन तलाश को सफलता पूर्वक प्रस्तुत करते हैं।
जवाब देंहटाएं"बेटी, बहिन, पत्नि, माँ, विधवा, सधवा -- सारी संज्ञाएँ मेरी ही तो थीं। क्या मैं भी थी वहाँ? मेरा भी था एक अस्तित्व। जाने कहाँ खो गया? खोज रही हूँ।"
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी प्रस्तुति।
अपना अस्तित्व तो ख़ुद ही तलाशना और तराशना पड़ता है .तभी आगे ज़िन्दगी जी जा सकती है
जवाब देंहटाएं"...... बेटी, बहिन, पत्नि, माँ, विधवा, सधवा -- सारी संज्ञाएँ मेरी ही तो थीं। क्या मैं भी थी वहाँ? मेरा भी था एक अस्तित्व। जाने कहाँ खो गया? खोज रही हूँ।
जवाब देंहटाएंकोई है, जो मिला सकता है मुझे मेरे अस्तित्व से ????? "
हे बेटी ! हे बहना ! और जगदात्री माँ ..... !
तुम्हे तुम्हारे अस्तित्व के दर्शन कौन करा सकता है .. !!!! ????
एक पुरूष ....... नगण्य ...... जो चलना ही तुम्हारी गोद से सीखता है ...
........
आदरणीय गीता जी !
....वर्षों से इसी प्रश्न का ह्रदय की अंतरतम भावनाओं के साथ उत्तर ढूँढते हुए, सर्व आयुवर्ग की कक्षाओं में कई बार इसी बात पर चर्चा करता हूँ. अपनी बेटियों को इसी प्रश्न से ऊपर उठाने के प्रयास में लगा भी हूँ. किंतु ....... क्या आप सब भी तैयार हैं ...? इस प्रश्न को प्रस्तुत करते हुए मैं टिप्पणी की सीमा से परिचित हूँ. आपकी कथा लघुकथा नहीं है, कथा में बहुत सारी कथाएँ और प्रश्न हैं. जिन्हें हम सब मिल कर ढूढेंगे तो उत्तर भी मिलेंगे. उन उत्तरों की आहट भी निकट भविष्य में देख सुन रहा हूँ ..... विचारों का विस्तार तो संभवतः किसी रचना को लेकर ही आमुख हो सकूं .
तब तक बस निवेदन ही कर रहा हूँ सम्पूर्ण नारी समाज से ......
हे माँ ...! हे बेटी....! हे बहना.....! तुम्हारे गर्भ से उत्पत्ति है सम्पूर्ण स्रष्टि की ..... बहुत सारे जटिल कारकों की परिणति है एक बेटे और बेटी के जन्म पर होने वाला भेदभाव जो प्रायः घर ..... परिवार से आरम्भ होता है. जिस दिन यह मिट जायेगा, आपको आपका अस्तित्व मिल जायेगा.
मार्मिक लघुकथा के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति, मन को विह्वल करजाने वाली..
जवाब देंहटाएंतीसरा रंग कहानी को स्थापित करता है। व्यथा की सुन्दर कथा है।
जवाब देंहटाएंगीता जी, आपकी कहानी एक यथार्थ है। यह अंतहीन तलाश है। एक लेखिका के तौर पर आप सफल हैं।
जवाब देंहटाएंprashn ka uttar koun dega?
जवाब देंहटाएंएक कश्मकश है, जो एसा प्रश्न खडा कर रही है जिसका कोई उत्तर नहीं।
जवाब देंहटाएंऔर फिर से भर दिये रंग, मेरे तन पर रंगीन साड़ी लपेटकर। वही सिंदूर, वही बिंदी, वही कंगन - पायल, बिछिया। क्या मैं भी थी वही? कहाँ रह गयी मालूम नहीं मुझे।...। बच्चों को सहारा मिल गया। माता-पिता का फिर से एक बार बोझ हल्का हो गया लेकिन बोझ- जो रखा गया मेरे मन पर, एक के बाद एक, क्या देखा किसी
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत सुंदर कथा है.
मार्मिक अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंKatha,bhasha,shailee aur shilp
जवाब देंहटाएंhar drishti se achchhe rachnahai.
meree badhaaee sveekar karen.
श्री कान्त जी !
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ आपकी लेखनी ने
स्पष्ट कर दिया.....
आभार..
स्नेह
आभार...रंजना जी...
जवाब देंहटाएंउत्तर समय स्वयं देगा....
स्नेह..
bahut sunder, kaafi kuch keh diya aapne is laghu katha main, shayaad bhaarat desh main naari ki stithi yahi hai
जवाब देंहटाएंअपने अस्तित्व को तलाशता हुआ यह चरित्र ,लगता नहीं कि वह इस कथा का पात्र मात्र है। कहीं जीता हुआ लगा।कथा एक मूक संवाद स्थापित करती है, उस खोजी नायिका से। न तो प्रश्न सरल है,और नही उत्तर ।
जवाब देंहटाएंपरंतु उत्तर आएंगेअवश्य।
आदरणीय श्रीकांत जी से सहमत हूं,और उनकी उस कथा की प्रतीक्षा भी रहेगी,जिसमे इन विसंगतियों पर भरपूर दृष्टि केंद्रित होगी।
रंजना जी का स्वयं को तलाशने -तराशने का विश्वास हौसला देता है ,किंतु नारी के लिये विसंगतियां पैदा करने वाले उसके अपने ही हैं और तलाश और तराशने की उत्कट इच्छा की धार खुट्टल हो जाने की घोर संभावनाएं हैं।
चलते चलते-नारी ही समय का पर्याय सिद्ध होगी और समुचित उत्तर प्रस्तुत करेगी।
प्रवीण पंडित
you made me think. A nice short story.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
अअदरणीय गीता जी,
जवाब देंहटाएंलघुकथा वस्तु: मनोवैज्ञानिक सोच के साथ प्रस्तुत हुई है और पाठक के मन को प्रभावित करते हुए एक कश्मकश के साथ छोडती है। अस्तित्व पर बहुत सी बहसें हैं लेकिन आयाम यह कहानी प्रस्तुत कर रही है।
बेहद सार्थक कहानी के लिये बधाई स्वीकारें।
***राजीव रंजन प्रसाद
यह मेरी पहली लघु-कथा है...यह विषय बहुत लम्बे समय से मेरे मन-मस्तिष्क को विचलित करता रहा है इसे एक दो पृष्ठ में समेटना असम्भव है...लेकिन मैने कोशिश की कि कम शब्दों में अपनी बात पाठकों के समक्ष रख सकूँ.....
जवाब देंहटाएंआप सभी की प्रतिक्रिया से अभिभूत हूँ....
सभी का आभार...
यह प्रारम्भ है इस विषय का... आगे क्या लिख पाती है मेरी लेखनी देखते हैं.....
साभार..
स-स्नेह
गीता पंडित (शमा)
सशक्त भाव भरी लघुकथा...
जवाब देंहटाएंसबसे अधिक भार तो नीवं के पहले पत्थर पर ही होता है जो न किसी को दिखता है न ही कोई उसका कभी जिक्र करता है मगर अस्तित्व तो नकारा नहीं जा सकता... स्वंय को मिटा कर दूसरों को पल्लवित करना किंचित नारी जीवन की यही महानता है.
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.