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फिर जग तुझ पर क्यों मरता है [कविता] - प्राण शर्मा

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कौवे ने कोयल से पूछा-हम दोनों तन के काले हैं
फिर जग तुझ पर क्यों मरता है मुझसे नफरत क्यों करता है
कोयल बोली-सुन ऐ कौवे, बेहद शोर मचाता है तू
अपनी बेसुर काय -काय से कान सभी के खाता है तू
मैं मीठे सुर में गाती हूँ हर इक का मन बहलाती हूँ
इसीलिए जग को भाती हूँ जग वालों का यश पाती हूँ

शेर हिरन से बोला प्यारे हम दोनों वन में रहते हैं
फिर जग तुझ पर क्यों मरता है मुझ से नफरत क्यों करता है
मृग बोला-ऐ वन के राजा तू दहशत को फैलाता है
जो तेरे आगे आता है तू  झट उसको खा जाता है
मस्त कुलांचे मैं भरता हूँ बच्चों को भी बहलाता हूँ
इसीलिए जग को भाता हूँ जग वालों का यश पाता हूँ

चूहे ने कुत्ते से पूछा-हम इक घर में ही रहते हैं
फिर जग तुझ पर क्यों मरता है मुझ से नफरत क्यों करता है
कुत्ता बोला-सुन रे चूहे तुझमें सद्व्यवहार नहीं है
हर इक चीज़ कुतरता है तू तुझ में शिष्टाचार नहीं है
मैं घर का पहरा देता हूँ चोरों से लोहा लेता हूँ
इसीलिए जग को भाता हूँ जग वालों का यश पाता हूँ

मच्छर बोला परवाने से हम दोनों भाई जैसे हैं
फिर जग तुझ पर क्यों मरता है मुझ से नफरत क्यों करता है
परवाना बोला मच्छर से तू क्या जाने त्याग की बातें
रातों में तू सोये हुओं पर करता है छिप-छिप कर घातें
मैं बलिदान किया करता हूँ जीवन यूँ ही जिया करता हूँ
इसीलिए जग को भाता हूँ जग वालों का यश पाता हूँ

मगरमच्छ बोला सीपी से-हम दोनों सागर-वासी हैं
फिर जग तुझ पर क्यों मरता है मुझ से नफरत क्यों करता है
सीपी बोली-जल के राजा तुझ में कोई शर्म नहीं है
हर इक जीव निगलता है तू तेरा कोई धर्म नहीं है
मैं जग को मोती देती हूँ बदले में कब कुछ लेती हूँ
इसीलिए जग को भाती हूँ जग वालों का यश पाती हूँ

आंधी ने पुरवा से पूछा- हम दोनों बहने जैसी हैं
फिर जग तुझ पर क्यों मरता है मुझ से नफरत क्यों करता है
पुरवा बोली-सुन री आंधी तू गुस्से में ही रहती है
कैसे हो नुक्सान सभी का तू इस मंशा में बहती है
मैं मर्यादा में रहती हूँ हर इक को सुख पहुंचाती हूँ
इसीलिए जग को भाती हूँ जग वालों का यश पाती हूँ

कांटे ने इक फूल से पूछा-हम इक डाली के वासी हैं
फिर जग तुझ पर क्यों मरता है मुझ से नफरत क्यों करता है
फूल बड़ी नरमी से बोला-तू नाहक ही इतराता है
खूब कसक पैदा करता है जिसको भी तू चुभ जाता है
मैं हंसता हूँ,मुस्काता हूँ,गंध सभी में बिखराता हूँ
इसीलिए जग को भाता हूँ जग वालों का यश पाता हूँ

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24 टिप्पणियाँ

  1. कांटे ने इक फूल से पूछा-हम इक डाली के वासी हैं
    फिर जग तुझ पर क्यों मरता है मुझ से नफरत क्यों करता है
    फूल बड़ी नरमी से बोला-तू नाहक ही इतराता है
    खूब कसक पैदा करता है जिसको भी तू चुभ जाता है
    मैं हंसता हूँ,मुस्काता हूँ,गंध सभी में बिखराता हूँ
    इसीलिए जग को भाता हूँ जग वालों का यश पाता हूँ


    --बहुत ही जबरदस्त...आनन्द ही आ गया!!!

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  2. वाह भाई वाह। क्या तुलनात्मक व्याख्या है? सुन्दर।

    नफरत को मुहब्बत का एक शेर सुनाता हूँ।
    मैं लाल पिसी मिर्ची पलकों से उठाता हूँ।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  3. प्राणों तक को स्‍पंदित करने वाली

    प्राण शर्मा की प्राण दायक सप्राण कविता

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही सटीक तुलना करती हुई एक जानदार.... शानदार और ईमानदार कविता

    तालियाँ...

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  5. nice corelations. very good poem.

    Alok Kataria

    जवाब देंहटाएं
  6. नीति और ज्ञान की यह कविता बहुत पसंद आयी। बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  7. कितनी सहजता से आपने इतनी बडी बडी बाते और दर्शन को समझाया है। आज कल एसी कव्तायें कहाँ पढने को मिलती हैं।

    जवाब देंहटाएं
  8. पुरवा बोली-सुन री आंधी तू गुस्से में ही रहती है
    कैसे हो नुक्सान सभी का तू इस मंशा में बहती है
    मैं मर्यादा में रहती हूँ हर इक को सुख पहुंचाती हूँ
    इसीलिए जग को भाती हूँ जग वालों का यश पाती हूँ
    " kitna mantr mugdh sa kr diya aapke iss kaveeta ne, gajab kee tulna kee hai aapne, jaise saree jindgee ka, prkrtee ka neechod samne rkh diya hai...hairet hai"

    Regards

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  9. सार्थक संदेश वाहक रचना..
    एक ही उदग्म होने के बाबजूद जो गुणों में भिन्नतायें हैं वह किस तरह से जीवन परिवर्तन कर देती है.. उसका जीता जागता प्रमाण है यह रचना... आभार

    जवाब देंहटाएं
  10. एक दार्शनिक ही एसी कविता लिख सकता है।

    जवाब देंहटाएं
  11. सरल शब्दों में गहरी बात.. बेहतरीन रचना |

    जवाब देंहटाएं
  12. मूल समान होते हुए भी चरित्र गत विशेषताओं को बखूबी दर्शाती सार्थक रचना ।

    प्रवीण पंडित

    जवाब देंहटाएं
  13. कांटे ने इक फूल से पूछा-हम इक डाली के वासी हैं
    फिर जग तुझ पर क्यों मरता है मुझ से नफरत क्यों करता है
    फूल बड़ी नरमी से बोला-तू नाहक ही इतराता है
    खूब कसक पैदा करता है जिसको भी तू चुभ जाता है
    मैं हंसता हूँ,मुस्काता हूँ,गंध सभी में बिखराता हूँ
    इसीलिए जग को भाता हूँ जग वालों का यश पाता हूँ
    बहुत सुंदर लिखा है.

    जवाब देंहटाएं
  14. ये लेखन का कमाल आदरणीय प्राण साहेब ही दिखा सकते हैं...सीधे सरल शब्दों में कितनी गहरी बात प्राण साहेब कह जाते हैं ये देखते ही बनता है...विलक्षण लेखन है उनका...
    नीरज

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  15. वाह ! मन मुग्ध हो गया.अतिसुन्दर शब्द भाव,रस के साथ साथ नीति और ज्ञान का अद्भुत संगम है यह कविता.इसमे गोता लगा विभोर हो गए.

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  16. बहुत सारगर्भित सँदेश देती
    सरल कविता
    जो सिध्धहस्त कवि की देन है
    बहुत पसँद आई !
    - लावण्या

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  17. कविता की अंतर्वस्तु सराहनीय।

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  18. जीवन का सार सरल शब्दों में बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ! बधाई स्वीकारें।

    जवाब देंहटाएं
  19. वाह!! एक सदाचारी जीवन के सफल लक्षण-बहुत सुन्दर उपमाओं से बँधी सीख देती रचना. इसे तो पाठय पुस्तक का हिस्सा होना चाहिये स्कूलोँ में. बहुत बधाई प्राण जी को.

    दीपावली के इस शुभ अवसर पर आप और आपके परिवार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

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  20. समीर जी नें बिलकुल सही कहा, एसी रचनायें पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा होनी चाहिये। आपने सरल बिम्बों में कठिन बातें कह दी हैं।

    ***राजीव रंजन प्रसाद

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  21. सहल-सरल और सार्थक कविता
    क्या बात है प्राण जी
    इस जीवंत कविता के लिये नमन करता हूं
    राजीव भाई ऐसी ही कविताएं छापिये

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  22. कांटे ने इक फूल से पूछा-हम इक डाली के वासी हैं
    फिर जग तुझ पर क्यों मरता है मुझ से नफरत क्यों करता है
    फूल बड़ी नरमी से बोला-तू नाहक ही इतराता है
    खूब कसक पैदा करता है जिसको भी तू चुभ जाता है
    मैं हंसता हूँ,मुस्काता हूँ,गंध सभी में बिखराता हूँ
    इसीलिए जग को भाता हूँ जग वालों का यश पाता हूँ

    वाह ....

    बहुत सुंदर ....

    जवाब देंहटाएं
  23. सिर्फ़ अंदाज़-ए-बयां रंग बदल देता है
    वर्ना दुनिया में कोई बात बड़ी बात नहीं

    प्राण साहब आपके अंदा-ए-बयां को सलाम |
    देवमणि पाण्डेय, मुम्बई

    जवाब देंहटाएं

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