कल रात छत पर लेटकर, मैं था गगन को देखता
अनगिनत तारों ने मिलकर, था जिसे जगमग किया
इस छोर से उस छोर तक, गुच्छों में बिखरे थे सितारे
आकाश लगता था हो जैसे, बाग इक फूलों भरा
या कोई मेला हों जिसमें, मासूम चेहरे मुस्कुराते
देखता निश्चल पड़ा मैं, दृश्य क्या इसमें नया है
सब नजारे हैं वही, बस इन्सान ही बदल गया है
इतने में देखा क्षितिज पर, चाँद का रथ आ रहा था
उस ओर के तारों ने हटकर, शायद उसे रस्ता दिया था
चाँदनी छिटकी ज़मीं पर, सब अँधेरा मिट गया
रहस्यमय था जो नजारा, फिर से मनमोहक हुआ
दिखने लगा इक बार फिर, वो पेड़ थोड़ी दूर का
जिसकी छाँव में खेलते, कितनों का बचपन गया है
सब नजारे हैं वही, बस इन्सान ही बदल गया है
सोचता था मैं हृदय में, काश हो पाता कुछ ऐसा
इन्सान भी मिलजुल के रहता, आकाश के तारों के जैसा
सर उठा पाते न दंगे, देश धर्म समाज के
सुलझते कितने ही मसले, नासूर हैं जो आज के
पर बदल पायेंगे क्या, इन्सान अपनीं आदतें
सोच वो कि स्वार्थ जिसमें, पैठ अंदर तक गया है
सब नजारे हैं वही, बस इन्सान ही बदल गया है
17 टिप्पणियाँ
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसोचता था मैं हृदय में, काश हो पाता कुछ ऐसा
जवाब देंहटाएंइन्सान भी मिलजुल के रहता, आकाश के तारों के जैसा
सर उठा पाते न दंगे, देश धर्म समाज के
सुलझते कितने ही मसले, नासूर हैं जो आज के
पर बदल पायेंगे क्या, इन्सान अपनीं आदतें
सोच वो कि स्वार्थ जिसमें, पैठ अंदर तक गया है
सब नजारे हैं वही, बस इन्सान ही बदल गया है
बहुत अच्छी रचना अजय जी, बधाई।
सोचता था मैं हृदय में, काश हो पाता कुछ ऐसा
जवाब देंहटाएंइन्सान भी मिलजुल के रहता, आकाश के तारों के जैसा
सर उठा पाते न दंगे, देश धर्म समाज के
सुलझते कितने ही मसले, नासूर हैं जो आज के
" na jane kitne dilon ka dard hai, na jne kitne hee dil aisa chahteyn honge, behtreen'
regards
सोचता था मैं हृदय में, काश हो पाता कुछ ऐसा
जवाब देंहटाएंइन्सान भी मिलजुल के रहता, आकाश के तारों के जैसा
सर उठा पाते न दंगे, देश धर्म समाज के
सुलझते कितने ही मसले, नासूर हैं जो आज के
पर बदल पायेंगे क्या, इन्सान अपनीं आदतें
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ हैं, बधाई।
एक मासूम अभिव्यक्ति | सुद्रढ़ रूप से कही गयी|
जवाब देंहटाएंबधाई
behtreen
जवाब देंहटाएंसोचता था मैं हृदय में, काश हो पाता कुछ ऐसा
जवाब देंहटाएंइन्सान भी मिलजुल के रहता, आकाश के तारों के जैसा
सर उठा पाते न दंगे, देश धर्म समाज के
सुलझते कितने ही मसले, नासूर हैं जो आज के
पर बदल पायेंगे क्या, इन्सान अपनीं आदतें
सोच वो कि स्वार्थ जिसमें, पैठ अंदर तक गया है
सब नजारे हैं वही, बस इन्सान ही बदल गया है
बहुत अच्छी सोच है. मानवता की की स्थापना के लिए ऐसी सोच बहुत जरुरी है.
Ajay ji achchi kavita hai
जवाब देंहटाएंअजय जी
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावी रचना है, हर पंक्ति अर्थपूर्ण और सारगर्भित। पूरी कविता ही उद्धरण के योग्य है।
***राजीव रंजन प्रसाद
प्रशंसनीय कविता। बहुत सोचपूर्ण।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता, अजय जी.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब अजय.......
जवाब देंहटाएंअजय जी,
जवाब देंहटाएंकाश ऐसा हो पाता जैसा आपने अपनी रचना में चाहा है..सारगर्भित भावभरी रचना के लिये बधाई
बहुत ही अच्छी कविता अजय जी... बधाई
जवाब देंहटाएंlagta hai raat me taaron ki chadar odh kar aapne yeh kavita likhi hai...pasand aai...
जवाब देंहटाएं---------Anupama
सितारों की झिलमिलाती चदरिया।
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण और अर्थपूर्ण।
प्रवीण पंडित
ajay ji apki kavita padkar bohat achha laga.
जवाब देंहटाएंapne kavita me insan ke bare me jo likha wo bilkul satya he aj insan, insan nahi balki kuch aur hi pratit hota he.
apka apni rachane ke madhaym se hume jo sndesh diya he wo kafi sarahniy hai
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.