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उजालों की जानिब कहाँ जिन्दगी है [कविता] – आलोक शंकर

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उजालों की जानिब कहाँ जिन्दगी है
दहकती सुबह ,खौलता आसमाँ है
चलो ढूँढ़ते हैं गमों का बहाना
बहुत देर से रोशनी का समाँ है ।

बहुत चाँदनी जी चुकी हैं निगाहें
कि आँखों में सीलन है,कोहरा घना है
न अब ख्वाब डालो हमारी नसों में
उनींदे समय को जरा जागना है ।

कहीं और ढूँढ़ें चलो आशियाने
फ़लक पर बहुत रंज बिखरे पड़े हैं
कहाँ तक सितारे बुझाते रहोगे
तुम्हारे शहर में हज़ारों पड़े हैं

खड़े आईनों में कई अजनबी थे
हमें होश आया संभलते-संभलते
बड़ा प्यार था आदमी से खुदा को
फ़रिश्ता हुआ वो बदलते-बदलते

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19 टिप्पणियाँ

  1. आलोक जी,
    बहुत ही अच्छी कविता... बधाई

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छा लिखा है आलोक शंकर जी आपने।मन भा गया।

    जवाब देंहटाएं
  3. खड़े आईनों में कई अजनबी थे
    हमें होश आया संभलते-संभलते
    बड़ा प्यार था आदमी से खुदा को
    फ़रिश्ता हुआ वो बदलते-बदलते

    सुन्दर प्रस्तुति। कहते हैं कि-

    मुझे भी उस खुदा की तलाश है।
    जो खुदा हो के भी आदमी सा लगे।।

    आपको दीपावली की शुभकामनाएँ।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  4. कविता स्वयं कह रही है कि वह आलोक शंकर की कलम से उत्पन्न हुई है, एसी कसी हुई रचना, उत्कृष्ट बिम्बों के साथ..

    बड़ा प्यार था आदमी से खुदा को
    फ़रिश्ता हुआ वो बदलते-बदलते

    ***राजीव रंजन प्रसाद

    जवाब देंहटाएं
  5. खड़े आईनों में कई अजनबी थे
    हमें होश आया संभलते-संभलते
    बड़ा प्यार था आदमी से खुदा को
    फ़रिश्ता हुआ वो बदलते-बदलते
    bahut sundar likha hai. deepawali ki shubh kamnayen.

    जवाब देंहटाएं
  6. आलोक जी आपका का अंदाज पसंद आया।
    खड़े आईनों में कई अजनबी थे
    हमें होश आया संभलते-संभलते
    बड़ा प्यार था आदमी से खुदा को
    फ़रिश्ता हुआ वो बदलते-बदलते

    बहुत खूब।

    जवाब देंहटाएं
  7. keep it up, you have capabilities.

    Alok Kataria

    जवाब देंहटाएं
  8. आलोक जी! बहुत खूबसूरत कविता है!
    न अब ख्वाब डालो हमारी नसों में
    उनींदे समय को जरा जागना है।
    सचमुच अब ख्वाब देखने से काम नहीं चलेगा. हमें जागना ही होगा तभी हम वक़्त के हमकदम चल सकेंगे.
    बधाई, इस सुंदर रचना के लिये!

    जवाब देंहटाएं
  9. बड़ा प्यार था आदमी से खुदा को
    फ़रिश्ता हुआ वो बदलते-बदलते

    दम है भाई।
    सुन्दर रचना।
    आपको दीपावली की शुभकामनाएँ।

    जवाब देंहटाएं
  10. अनूठे बिम्ब लिये सुन्दर रचना..बहुत पसन्द आई...बधाई

    जवाब देंहटाएं
  11. जितना कहा जाय , कम रहेगा।
    दूर और देरी तक प्रभाव छोड़ने वाली रचना।

    प्रवीण पंडित

    जवाब देंहटाएं
  12. बहुत चाँदनी जी चुकी हैं निगाहें
    कि आँखों में सीलन है,कोहरा घना है

    कहाँ तक सितारे बुझाते रहोगे
    तुम्हारे शहर में हज़ारों पड़े हैं

    बड़ा प्यार था आदमी से खुदा को
    फ़रिश्ता हुआ वो बदलते-बदलते

    वाह!!

    जवाब देंहटाएं
  13. हमेशा की तरह एक और बेहतरीन कविता।

    बड़ा प्यार था आदमी से खुदा को
    फ़रिश्ता हुआ वो बदलते-बदलते

    बधाई आलोक जी। दीपावली की शुभकामनायें।

    जवाब देंहटाएं
  14. बड़ा प्यार था आदमी से खुदा को
    फ़रिश्ता हुआ वो बदलते-बदलते

    अच्छी कविता

    आलोक जी,
    बधाई

    जवाब देंहटाएं
  15. आलोक जी का एक अपना भाव -शिल्प है , पढ़ते ही उनका परिचय दे जाता है।

    प्रवीण पंडित

    जवाब देंहटाएं
  16. आलोक जी का एक अपना भाव -शिल्प है , पढ़ते ही उनका परिचय दे जाता है।

    प्रवीण पंडित

    जवाब देंहटाएं
  17. उजालों की जानिब कहाँ जिन्दगी है
    दहकती सुबह ,खौलता आसमाँ है
    चलो ढूँढ़ते हैं गमों का बहाना
    बहुत देर से रोशनी का समाँ है ।

    बहुत चाँदनी जी चुकी हैं निगाहें
    कि आँखों में सीलन है,कोहरा घना है
    न अब ख्वाब डालो हमारी नसों में
    उनींदे समय को जरा जागना है ।

    कहीं और ढूँढ़ें चलो आशियाने
    फ़लक पर बहुत रंज बिखरे पड़े हैं
    कहाँ तक सितारे बुझाते रहोगे
    तुम्हारे शहर में हज़ारों पड़े हैं

    खड़े आईनों में कई अजनबी थे
    हमें होश आया संभलते-संभलते
    बड़ा प्यार था आदमी से खुदा को
    फ़रिश्ता हुआ वो बदलते-बदलते


    soch raha th akuchh panktiya likhu par sach bahut achi or pakiza rachna

    जवाब देंहटाएं

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