हो रहा विकास दूर दूर आस पास का
फ़िर भी लेश मात्र अंत नहीं है क्लेश का
कैसा है विचित्र ये विधान देश का
अवनि से आकाश निपट सहज हुआ
एक ओर खाई दूसरी तरफ़ महज कुआँ
चाँद से भी आगे ये चतुर मनुज है जा चुका
शक्ति की अपार संपदाएँ भी जुटा जा चुका
मापने लगा है यह ताप दिनेश का
फ़िर भी लेशमात्र अंत नहीं है क्लेश का
हो रही प्रगट धरा में नित नयी विभूतियाँ
हिमगिरि शिखा को भी जो दे रही चुनौतियाँ
शब्दभेदी बाण और पुष्पक विमान के
गढ़ दिया वृहद् स्वरुप आदमी ने ज्ञान से
रख रहा हिसाब हरेक पल निमेष का
फ़िर भी लेशमात्र अंत नहीं है क्लेश का
बैठे बैठे कक्ष से देखकर सकल जहाँ
भिज्ञ हो रहा है कौन कैसे और कब कहाँ
संचित निज शक्तियों से स्वयं ही डर रहा
प्राकृतिक विरासतों को चूहे सा कुतर रहा
है गजब गुमान इसे निज विशेषज्ञ का
फ़िर भी लेशमात्र अंत नहीं है क्लेश का
मान्यता एक एक कर सभी दरक रही
सौम्य संस्कारों से ये पीढियां सरक रही
बिम्ब रोज ढह रहे हैं आपसी प्रतीति के
वर्तमान हो रहा आजाद निज अतीत से
अब रहा विश्वास सिर्फ़ उस अशेष का
फ़िर भी लेशमात्र अंत नहीं है क्लेश का
21 टिप्पणियाँ
हो रहा विकास दूर दूर आस पास का
जवाब देंहटाएंफ़िर भी लेश मात्र अंत नहीं है क्लेश का
कैसा है विचित्र ये विधान देश का
इसका उत्तर काश मिल सकता। अच्छी रचना।
बुधराम यादव जी को पहली बार पढा और बहुत प्रभावित हुआ। सुन्दर भाषा, चुनिन्दा शब्द और भावों का प्रस्तुतिकरण इस रचना में है।
जवाब देंहटाएंबिम्ब रोज ढह रहे हैं आपसी प्रतीति के
वर्तमान हो रहा आजाद निज अतीत से
अब रहा विश्वास सिर्फ़ उस अशेष का
फ़िर भी लेशमात्र अंत नहीं है क्लेश का
बहुत ही अच्ची कविता जिसमें भाव और कथ्य दोनों ही गहरे हैं। बधाई।
जवाब देंहटाएंआपका शब्द चयन,भाव गठन अद्भुद है.बहुत ही सुंदर भावपूर्ण मन मुग्ध करने वाली कविता है.यथार्थ का और विडंबनाओं से उपजी पीड़ा का सुंदर निरूपण किया है आपने.
जवाब देंहटाएंफ़िर भी लेश मात्र अंत नहीं है क्लेश का
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ठ रचना के प्रकाशन के लिये आपको एवं आदरणीय सुकवि बुधराम जी को बहुत बहुत बधाई ।
हो रहा विकास दूर दूर आस पास का
जवाब देंहटाएंफ़िर भी लेश मात्र अंत नहीं है क्लेश का
कैसा है विचित्र ये विधान देश का
-बुधराम यादव जी को पढ़कर आनन्द आ जाता है.
हृदय के उदगार फ़ूट पडे हो जैसे ऐसा लग रहा है!! यह कविता वर्तमान की विडंबना को निहारती कातर आंखे प्रतित हो रही है !!
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने कि "कैसा है विचित्र ये विधान देश का" कविता बहुत प्रभावित करती है। बधाई।r
जवाब देंहटाएंमान्यता एक एक कर सभी दरक रही
जवाब देंहटाएंसौम्य संस्कारों से ये पीढियां सरक रही
बिम्ब रोज ढह रहे हैं आपसी प्रतीति के
वर्तमान हो रहा आजाद निज अतीत से
अब रहा विश्वास सिर्फ़ उस अशेष का
फ़िर भी लेशमात्र अंत नहीं है क्लेश का
वाह! बहुत सुंदर
बुधराम जी,
जवाब देंहटाएंबिम्ब रोज ढह रहे हैं आपसी प्रतीति के
अति सुन्दर। भाई वाह। मजा आ गया।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
बिम्ब रोज ढह रहे हैं आपसी प्रतीति के
जवाब देंहटाएंवर्तमान हो रहा आजाद निज अतीत से
अब रहा विश्वास सिर्फ़ उस अशेष का
फ़िर भी लेशमात्र अंत नहीं है क्लेश का
वाह !
बहुत सुंदर रचना ।
बुधराम यादव जी,
बधाई।
I can only say "WAH"
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
मेरे ख्याल में औद्योगिक विकास को क्लेश के अंत से जोड़ना , सम्भव नही है | विकास , लालसा से सम्बंधित है और लालसा क्लेश को जन्म देती ही है |
जवाब देंहटाएंपर जो प्रश्न आप कर रहे हैं कविता क ज़रिये , बहुत ही तार्किक है | विकास के मानदंड एक बार फ़िर से परखने होंगे |
बहुत सुंदर लय के साथ लिखी हुई कविता |:-)
आदमी अब दूसरा ही नाम है क्लेश का.
जवाब देंहटाएंबाजार का चरित्र हो गया है परिवेश का.
जिसे देखिये अपनी जेब भर रहा है अब
फिक्र कौन करता है अब मेरे देश का.
बेचना खरीदना ही मूल काम हो गया
बेडा गरक होगया उत्पादन वाले देश का
बुधराम जी की चिंता वाकई बडी है अब
कौन कर्ण धार होगा डूबते इस देश का?
आपकी चिंताओं मे यादव जी मै शरीक हूं
आपकी सोच को नमन है योगेश का.
आदरणीय की यह रचना सामयिक है जो समाज को संस्कार, संस्कृति और यथार्थ को अक्षुण्ण रखने के साथ विकास के सोपान तय करने की अपेक्षा कर रहा है. उन्हें कालजयी होने की कामना के साथ प्रणाम.
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी कविता .....बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंप्रभावी रचना..भाव पक्ष और भाषा पक्ष दोनों ही प्रभावित करते हैं.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमान्यता एक एक कर सभी दरक रही
जवाब देंहटाएंसौम्य संस्कारों से ये पीढियां सरक रही
बिम्ब रोज ढह रहे हैं आपसी प्रतीति के
निश्चय ही क्लेश के बड़े कारणों मे उपरोक्त सत्य भी है ।सहमत हूं दिव्यांशु शर्मा से,उनका तथ्य विचारणीय है ।
रचना की गुणवत्ता देखते बनती है।
भाषा व भाव दोनों प्रभावी।
प्रवीण पंडित
आदरणीय बुधराम यादव जी की यह कविता उनके अनुभवों का प्र्क़वाहमय प्रस्तुतिकरण है। विकास के बाद भी क्लेश यह जाहिर तो करता है कि व्यवस्था चूक रही है, तंत्र विफल हो रहा है। असमानता का कितना सुन्दर चितण कि खाई कि विशालता को दर्शाने के लिये "महज कुआँ" से तुलना...एसे-एसे बिम्ब कि कविता स्वयं घोषणा करती है कि समकालीन रचनाकारों में बुधराम यादव जी बडे हस्ताक्षर हैं।
जवाब देंहटाएं***राजीव रंजन प्रसाद
बहुत अच्छी शैली है आपकी और भाव भी.. अत्यंत सशक्त कविता
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.