अगर इंसान की उम्मीद ही दम तोड़ जाती है
तो अक्सर आरज़ू-ए-ज़ीस्त भी दम तोड़ जाती है
मेरा घर भी उजालों के शहर की हद में है लेकिन
यहाँ तक आते आते रौशनी दम तोड़ जाती है
जो आ कर कोई पत्ता भी मेरी खिड़्की से ट्कराये
मेरे कमरे में छाई ख़ामुशी दम तोड़ जाती है
जहाँ से दोस्ती में फ़ायदा-नुक्सान हो शामिल
हक़ीकत में वहीं पे दोस्ती दम तोड़ जाती है
मैं अपना ग़म सुनाते वक्त दानिस्ता नहीं चुप हूँ
लबों तक आते आते बात ही दम तोड़ जाती है
20 टिप्पणियाँ
जो पंक्तियां उपर पोस्टर में हैं वो तो लाजवाब हैं।
जवाब देंहटाएंग़ज़ल की जितनी प्रशंसा की जाये कम है। हर पंक्ति दिल को छूती है।
जवाब देंहटाएंमैं अपना ग़म सुनाते वक्त दानिस्ता नहीं चुप हूँ
लबों तक आते आते बात ही दम तोड़ जाती है
......
जवाब देंहटाएंमैं अपना ग़म सुनाते वक्त दानिस्ता नहीं चुप हूँ
लबों तक आते आते बात ही दम तोड़ जाती है
वाह ! मर्म स्पर्शी ....
अगर इंसान की उम्मीद ही दम तोड़ जाती है
जवाब देंहटाएंतो अक्सर आरज़ू-ए-ज़ीस्त भी दम तोड़ जाती है
वाह, वाह.
बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता है। बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर पंक्तियाँ हैं। मोतियों जैसे शेर हैं।
जवाब देंहटाएंआदरणीय मंगल नसीम जी,
जवाब देंहटाएंसर्वप्रथम तो अंतर्जाल जगत में आपका और आपकी रचनाओं का स्वागत। ग़ज़ल के क्षेत्र में तो आप पूरी संस्था हैं...प्रत्येक शेर बेहतरीन है।
मेरा घर भी उजालों के शहर की हद में है लेकिन
यहाँ तक आते आते रौशनी दम तोड़ जाती है
जहाँ से दोस्ती में फ़ायदा-नुक्सान हो शामिल
हक़ीकत में वहीं पे दोस्ती दम तोड़ जाती है
मैं अपना ग़म सुनाते वक्त दानिस्ता नहीं चुप हूँ
लबों तक आते आते बात ही दम तोड़ जाती है
आपको इस मंच पर निरंतर निरंतर पढने का सौभाग्य प्राप्त हो, इसी अपेक्षा के साथ...
***राजीव रंजन प्रसाद
जहाँ से दोस्ती में फ़ायदा-नुक्सान हो शामिल
जवाब देंहटाएंहक़ीकत में वहीं पे दोस्ती दम तोड़ जाती
लाजवाब शेर और बेहतरीन ग़ज़ल....वाह वा...
नीरज
गहरी और उम्दा गज़ल।
जवाब देंहटाएंमेरा घर भी उजालों के शहर की हद में है लेकिन
जवाब देंहटाएंयहाँ तक आते आते रौशनी दम तोड़ जाती है
मैं अपना ग़म सुनाते वक्त दानिस्ता नहीं चुप हूँ
लबों तक आते आते बात ही दम तोड़ जाती है
कमाल है भाई. बहुत बढ़िया.
अगर इंसान की उम्मीद ही दम तोड़ जाती है
जवाब देंहटाएंतो अक्सर आरज़ू-ए-ज़ीस्त भी दम तोड़ जाती है
वाह
मैं अपना ग़म सुनाते वक्त दानिस्ता नहीं चुप हूँ
लबों तक आते आते बात ही दम तोड़ जाती है
मंगल नसीम जी !
लाजवाब शेर और बेहतरीन ग़ज़ल..
आदरेय नसीम जी,
जवाब देंहटाएंराजीव रंजन ने बता दिया था कि आप जल्दी ही साहित्यशिल्पी पर प्रगट होंगें.
यक़ीनन आज आपको गज़ल के साथ यहां देख कर मन प्रसन्न हो गया.
बहुत सी पुरानी यादें उभर आईं.
इस उस्तादाना गज़ल के लिये बधाई..
जय हो.........
बहुत उम्दा!!!
जवाब देंहटाएंशुभ दिवस की बधाई एवं शुभकामनाऐं.
आदरणीय नसीम जी,
जवाब देंहटाएंजिन्दगी की तल्ख सच्चाईयों से रुबरु कराने वाली एक उम्दा गजल के लिये आभार.
आगे आने वाली रचनाओं का बेसबरी से इन्तजार रहेगा.
मेरा घर भी उजालों के शहर की हद में है लेकिन
जवाब देंहटाएंयहाँ तक आते आते रौशनी दम तोड़ जाती है
नसीम जी ! आपकी ग़ज़ल ने तमाम माहौल खूबसूरत बना दिया । हर शेर लाजवाब ,पूरी क़ैफ़ियत बयान करते हुए।
आपको और ज़्यादा पढ़ने की तमन्ना
बलवती हो गई।
प्रवीण पंडित
मेरा घर भी उजालों के शहर की हद में है लेकिन
जवाब देंहटाएंयहाँ तक आते आते रौशनी दम तोड़ जाती है
बहुत सुंदर गज़ल है। साहित्य शिल्पी में आपको पढ्र कर अच्छा लगा।
धन्यवाद साहित्य शिल्पी को भी, जिसके माध्यम से ऐसे महान महान हस्तियों को पढने का मौका मिल जाता है।
मैं अपना ग़म सुनाते वक्त दानिस्ता नहीं चुप हूँ
जवाब देंहटाएंलबों तक आते आते बात ही दम तोड़ जाती है
आदरणीय मंगल नसीम जी को नमन!
गज़ल अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंबस मतले के मिसरा-उला और मकते के मिसरा-सानी में "हीं दम तोड़ जाती है" का दुहराव सही नहीं लग रहा।
ध्यान देंगे।
badhiya gajal hai
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया गजल है. मैंने आपको पहली बार ही पढ़ा है और आपका अंदाजे बयाँ बहुत अच्छा लगा. आपकी अन्य रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी. कृपया पोस्टर वाली गजल भी प्रकाशित करें.
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.