HeaderLarge

नवीनतम रचनाएं

6/recent/ticker-posts

पहाड़ी लड़कियाँ [कविता] - सुशील कुमार


पहाड़ी मिट्टी से बनी
सुरमई-कत्थई
पहाड़ी यौवना के माथ से
ढुलकती हैं
टप-टप पसीने की बूँदें
होंठ तक..फिर उसकी देह तक
जब पत्थर तोड़ती वह अपने दुख के
गुनगुना रही होती है
पहाड़ पर कोई पहाड़ी गीत।

छोटानागपुर के नंगे पठार से
राजमहल की ठूँठ पहाड़ियों तक,
कारुडीह के झाड़-झाँखड़ से
सारंडा के उजड़ते जंगलों तक
दीख ही जाती हैं कहीं भी
सखियों-संग विहँसती हुई
खिली हुई जंगली फूलों की तरह
पहाड़ की वह चपला प्रकृति-नारी !

अपनी उपस्थिति-गंध से
आस-पास की हवा महमहाती
मन का बासीपन हरती
हरे-हरे परिधान से सजी
कभी पगडंडियों पर कुलेलती तो
कभी काम करती और गाती,
गाती और काम करती।

घायल पत्थरों के बीच से फूटती
कल-कल झरना-सी
समवेत स्वर-लहरियाँ उसकी
सुनी जा सकती हैं
पूरे झारखंड में बंधना-माघे परब में
बाँसूरी की लय पर
माँदल की थाप पर
लड़कों के दल को अर्धचंद्राकार घेरे
आपस में बाँहों में बाँहे डाले
पंक्तियों में थिरकतीं जब वे
कहीं भी,कभी भी
पहाड़ पर पठार पर घाटियों में
धनकटनी से लेकर
महुआ के फूलने के मौसम तक।

पर जब समूचा जंगल पत्रविहीन हो जाता है
और तवने लगती है पहाड़ की कृशकाया
जेठ की चिलकाती धूप में,
केन्दुपत्ते-महुआ-बरबट्टी-धान सब
ओराने लगते हैं पहाड़ से जब,
पहाड़ पर भूख का जलजला आ जाता है और
भूखे-नंगे पहाड़ के लोग मरने लगते हैं,
भर-भर गाड़ी पहाड़ी कन्याएँ तब
कूच करने लगती हैं नीचे तराई में
काम की खोज़ में
और उसके गीत पहाड़ के दु:ख
से भीगने लगते हैं,
उसके सपने
पेट की आग से जलने लगते हैं।

गहरी अंधेरी खदानों में खनिकों संग
तो कभी ईंट-भट्ठों पर ईँट पाथती हुईं,
बन रही पक्की सड़कों पर भी
बेलदारिन का काम करतीं
कभी अजय-बाँसलोय-स्वर्णरेखा-मयूराक्षी*
के निर्जल मरु में
सिर पर उमस में
भर-भर कठौतियाँ रेत ढोतीं
तो कभी बंगाल के खेतों में दौनी-निकौनी,
बुवाई-कटाई करती हुईं
अपने श्रम-गीतों से बियावानों को जगातीं
अपनी छोटी-सी दुनिया में
फिर भी मगन रहती हैं पहाड़ी बालाएँ।

मैं पूछता हूँ स्वयं से कि,
पहाड़ पर जीवन बचे हैं जहाँ
थोड़े-बहुत जिन
पहाड़ी स्त्रियों की मेहनत-मजूरी से
उनकी पठार-सी काया को भी
कुचल रहे हैं जब-तब
बिचौलिये-महाजन-दिक्कु सब,
वहाँ कब तक यूँ ही अलापती रहेंगी
भग्न होती ये हृदयकंठ-वीणाएँ ?

फिर सोचकर यह व्यथित हो जाता हूँ कि
पहाड़ का अवसान निकट है,
पहाड़ दिन-दिन बिलाते जा रहे हैं जैसे
जंगल जैसे नित सिमटते जा रहे हैं
जैसे सूखती जा रही हैं पहाड़ी नदियाँ
कम पड़ते जा रहे हैं लोगों की ज़मीन
बैल-बकड़ी, कुत्ते, सूअर, गायें
वैसे ही पहाड़ी लड़कियाँ भी
दिन-दिन घटती जा रही हैं,-
गायब होती जा रही हैं वे पहाड़ से और
उनके गीतों के स्वर हर दिन
मद्धिम पड़ते जा रहे हैं
बुझते दीये की थरथराती लौ की तरह।

-----------------------------------
(अजय-बाँसलोय-स्वर्णरेखा-मयूराक्षी*= झारखंड की नदियों के नाम)

(साहबगंज-राजमहल की पहाड़ियों और छोटानागपुर के पठार की तराई पर बसे आदिवासियों की ज़िन्दगी को तेईस वर्षों से देखते हुए)
-----------------------------------

एक टिप्पणी भेजें

32 टिप्पणियाँ

  1. श्री सुशील कुमार की
    कविता पढ़कर महा‍कवि
    निराला की याद हो आई
    उनकी कविता वो तोड़ती पत्‍थर
    पूरे मानस में घूम गई।

    कविता पढ़कर पहाड़ी
    और लड़कियों के संबंध में
    सारी असलियत सारा चिट्ठा
    उकेर दिया है
    अपने असली रंगों में
    जिससे यह सिर्फ कविता
    न रहकर सच्‍चाई का
    एक अमूल्‍य दस्‍तावेज
    बन गई है।

    जवाब देंहटाएं
  2. मैं अविनाश जी से सहमत हूँ, यह एक कालजयी रचना है।

    जवाब देंहटाएं
  3. अपनी उपस्थिति-गंध से
    आस-पास की हवा महमहाती
    मन का बासीपन हरती

    कूच करने लगती हैं नीचे तराई में
    काम की खोज़ में
    और उसके गीत पहाड़ के दु:ख
    से भीगने लगते हैं,
    उसके सपने
    पेट की आग से जलने लगते हैं।

    उनके गीतों के स्वर हर दिन
    मद्धिम पड़ते जा रहे हैं
    बुझते दीये की थरथराती लौ की तरह।

    कविता गहरे ऑबजरवेशन और अनुभूति से निकली है।

    जवाब देंहटाएं
  4. I have no language to express myself...really beautiful poem
    presenting the real picture of tribal girls.Like the Wordsworth and Keats in English.I am very much obliged to read this true life song of the tribal virgins of Jharkhand.we pride,such poets as Sushilji is in our country.Iam very much thankful to the organisers of 'Sahitya-Shipi'
    --Anshu Bharti,Jharkhand.

    जवाब देंहटाएं
  5. चित्र खीचती हुई सी इस बेहतरीन कविता के प्रस्तितिकरण का आभार।

    जवाब देंहटाएं
  6. after "vaha todti patthar" this is the poem with that kind of depth...great.

    -Alok Kataria

    जवाब देंहटाएं
  7. मैं पूछता हूँ स्वयं से कि,
    पहाड़ पर जीवन बचे हैं जहाँ
    थोड़े-बहुत जिन
    पहाड़ी स्त्रियों की मेहनत-मजूरी से
    उनकी पठार-सी काया को भी
    कुचल रहे हैं जब-तब
    बिचौलिये-महाजन-दिक्कु सब,
    वहाँ कब तक यूँ ही अलापती रहेंगी
    भग्न होती ये हृदयकंठ-वीणाएँ ?
    सुशील कुमार जी,
    बहुत ही सुंदर कविता लिखी है. पहाडों का जीवन सजीव हो उठा है.

    जवाब देंहटाएं
  8. सुशील कुमार जी !


    कविता नहीं मानो .. एक सम्पूर्ण अहसास गुजर गया ..... एक अनुभूति जिसके लिए शब्द नहीं हैं. शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  9. घायल पत्थरों के बीच से फूटती
    कल-कल झरना-सी
    समवेत स्वर-लहरियाँ उसकी
    सुनी जा सकती हैं
    पूरे झारखंड में बंधना-माघे परब में
    बाँसूरी की लय पर
    माँदल की थाप पर
    लड़कों के दल को अर्धचंद्राकार घेरे
    आपस में बाँहों में बाँहे डाले
    पंक्तियों में थिरकतीं जब वे
    कहीं भी,कभी भी
    पहाड़ पर पठार पर घाटियों में
    धनकटनी से लेकर
    महुआ के फूलने के मौसम तक।

    सुशील जी बहुत ही गहरी भावना और सोच का मिश्रण मिला आपकी कविता में बहुत ही अच्‍छी कविता है बधाई हो

    जवाब देंहटाएं
  10. साहित्य शिल्पी पर सुशील कुमार की कविताएँ पढ़ते हुए उन आदिवासी लड़कियों के जीवन और संघर्ष को शिद्द्त से महसूस किया जो आज भी तथाकथित विकास की मुख्यधारा से कोसों दूर झारखण्ड के जंगल पहाड़ों में अव्यवस्थित जीवन जीते हुए भी अपनी ठंडी दिनचर्या में जीवन की गरमाहट बचायी हुई हैं।
    न सिर्फ़ भाव वल्कि भाषा शिल्प की हिसाब से भी कविता बहुत ही मह्त्वपूर्ण व स्तरीय है। कविता में सहज प्रवाह और संप्रेषणीयता तो है ही, आदिवासी अंचल के दु:ख-दर्द और गहरी मानवीय संवेदना भी मौजूद है।
    जिस प्रकार कुछ विशिष्ट पत्र-पत्रिकायें स्वत: अपना ग्राहक और पाठक तलाश लेती हैं, ठीक उसी प्रकार सुशील कुमार की कवितायें इस भीड़ में भी स्वत: आज अपना पाठक-वर्ग तैयार कर रही हैं, जो नि:संदेह उनके समाजिक सरोकार से जुडे़ लेखन-कर्म का ही प्रतिफ़ल है।:- अशोक सिंह, दुमका, झारखण्ड. e-mail: ashok.dumka@gmail.com

    जवाब देंहटाएं
  11. कूच करने लगती हैं नीचे तराई में
    काम की खोज़ में
    और उसके गीत पहाड़ के दु:ख
    से भीगने लगते हैं,
    उसके सपने
    पेट की आग से जलने लगते हैं।

    उनके गीतों के स्वर हर दिन
    मद्धिम पड़ते जा रहे हैं
    बुझते दीये की थरथराती लौ की तरह।



    सुशील कुमार जी,

    बहुत सुंदर कविता ....

    पहाडों का चित्र सजीव हो उठा......

    आभार।

    जवाब देंहटाएं
  12. यह एक कालजयी रचना है.बेहतरीन कविता .बधाई

    जवाब देंहटाएं
  13. आपकी रचना के बारें में क्या कहूँ। शब्द ही नही मिल रहे हैं। बहुत ही उम्दा।

    जवाब देंहटाएं
  14. sushil g apki kavita bohat achi lagi man ko chhu gai
    apka prayas sarahniy he
    dhanyavad

    जवाब देंहटाएं
  15. इतनी सुन्दर कविता, मानो सारा कुछ आखों के सामने से गुजर गया हो। पहाड़ी जन-जीवन पर सुशील कुमार जी की कई कवितों से पहले भी रु-ब-रु हुआ हू। इनकी कविताऒं में जीवन को स्पस्ट महसुस किया जा सकता है।

    "घायल पत्थरों के बीच से फूटती
    कल-कल झरना-सी
    समवेत स्वर-लहरियाँ उसकी
    सुनी जा सकती हैं
    पूरे झारखंड में बंधना-माघे परब में
    बाँसूरी की लय पर
    माँदल की थाप पर
    लड़कों के दल को अर्धचंद्राकार घेरे
    आपस में बाँहों में बाँहे डाले
    पंक्तियों में थिरकतीं जब वे
    कहीं भी,कभी भी
    पहाड़ पर पठार पर घाटियों में
    धनकटनी से लेकर
    महुआ के फूलने के मौसम तक।"


    संपूर्ण जनजातीय जीवन को बड़ी ही नेक दिली से प्रस्तुत किया है। नि:संदेह यह कालजयी रचना कही जाएगी।- जितेन्द्र कुमार, झारखंड

    जवाब देंहटाएं
  16. Bahut dinon ke baad ek sashakt
    kavita padhne ko milee hai.achchhee
    rachnaon ko padhkar mun svata hee
    kah uthta hai-"Wah,kya baat hai"!

    जवाब देंहटाएं
  17. I am unable to write in hindi so I am using roman script...
    Sushil Ji ki kavita padhi, ise padhkar aisa mahsus hua jaise patharo ke bich ka vo aadim jeevan aankho ke saamne pragat ho gaya ho. isme aadivasiyo ke pahari jeevan ko bari sundarta ke sath kalamband kiya gaya hai. Ek or jeevan soundarya hai to dusri or usi jeevan se jure kuch karavi sachchaiyan bhi hai. Badhta bichouliyapan aur bajarvad kis tarah es sundarta ko vikrit karta ja raha hai yah bhi dekhne layak hai. Aur iskee parinati jaisa ki likha gayaa hai........

    पर जब समूचा जंगल पत्रविहीन हो जाता है
    और तवने लगती है पहाड़ की कृशकाया
    जेठ की चिलकाती धूप में,
    केन्दुपत्ते-महुआ-बरबट्टी-धान सब
    ओराने लगते हैं पहाड़ से जब,
    पहाड़ पर भूख का जलजला आ जाता है और
    भूखे-नंगे पहाड़ के लोग मरने लगते हैं,
    भर-भर गाड़ी पहाड़ी कन्याएँ तब
    कूच करने लगती हैं नीचे तराई में
    काम की खोज़ में
    और उसके गीत पहाड़ के दु:ख
    से भीगने लगते हैं,
    उसके सपने
    पेट की आग से जलने लगते हैं।
    ek gambhir sanket karti hai.

    जवाब देंहटाएं
  18. कब तक यूँ ही अलापती रहेंगी
    भग्न होती ये हृदयकंठ-वीणाएँ ?
    जब तक ऐसी कविताएँ लिखी जायेँगीँ ..
    पहाड और वहाँ की कन्याएँ गीतोँ मेँ अमर रहेँगीँ ~~
    - लावण्या

    जवाब देंहटाएं
  19. आदरणीय सुशील जी,

    बहुत गहरा अनुभव ही एसे कथ्य के साथ प्रस्तुत हो सकता है
    । एक एक शब्द सजीव है, हर अंतरा चित्र खींचता है और पूरी कविता को पढना एक अविस्मरणीय अनुभव है।

    ***राजीव रंजन प्रसाद

    जवाब देंहटाएं
  20. आपकी रचना पढने के बाद निर्मला पुतुल जी की पंक्तियाँ याद आयी-

    तुम्हारे हाथों के बने पत्ते,
    हजारों पेट भरते हैं।
    पर हजारों पत्ते,
    तुम्हारे पेट नहीं भर पाते।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  21. जीवंत दृश्‍य उपस्‍थि‍त कि‍या है आपने-
    सखियों-संग विहँसती हुई
    खिली हुई जंगली फूलों की तरह
    पहाड़ की वह चपला प्रकृति-नारी !

    इनका नृत्‍य देखने का अवसर भी मि‍ला है, इन पंक्‍ति‍यों से वो दृश्‍य भी याद हो आया-
    पूरे झारखंड में बंधना-माघे परब में
    बाँसूरी की लय पर
    माँदल की थाप पर
    लड़कों के दल को अर्धचंद्राकार घेरे
    आपस में बाँहों में बाँहे डाले
    पंक्तियों में थिरकतीं


    पूरी कवि‍ता लाजवाब लगी।

    जवाब देंहटाएं
  22. अनुपम एवं अविस्मरणीय रचना।
    सुशील जी !सुने हुए को जीना इसे ही कहते हैं ।पहाड़ी जन जातीय वातावरण अपनी संपूर्ण पारदर्शक तस्वीर के साथ उभर आया।आपकी दृष्टि के ईमानदार अवलोकन के लिये शुभकामना।

    प्रवीण पंडित

    जवाब देंहटाएं
  23. सुन्दर सरस रचना...प्रकृति के एक दम नजदीक प्रतीत होती हुई.. आभार

    जवाब देंहटाएं
  24. सुशील कुमार जनपद के कवि हैं। उनकी हर कविता में जनपद के दुख-दर्द का बयाँ रहता है।यहाँ 'पहाड़ी लड़कियाँ' कविता भी पहाड़ की महिलाओं के जीवन का महाकाव्य ही है जिसमें उसके संघर्ष और दुख की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।-राघव कुमार अनिल

    जवाब देंहटाएं
  25. आदिवासी लड़कियों के माध्यम से उसकी जीवन - गाथा का सजीव चित्रण हुआ है।बधाई।- नंद

    जवाब देंहटाएं
  26. बेहद उम्दा रचना।
    पहाड़ी जीवन के बारे में बहुत कुछ बयां करती है यह रचना।

    रचनाकार को ढेरों बधाईयाँ।

    जवाब देंहटाएं
  27. कवि-लेखक-पाठकों की प्रतिक्रिया और उनके स्नेह के लिये अतिशय धन्यवाद!’साहित्य-शिल्पी’ टीम को भी।-सुशील कुमार।

    जवाब देंहटाएं
  28. Bas Allhabad change hua hai CHota Nagpur se....
    Waise ek Shabd men, "Sarvottam"

    Dhnywaad

    जवाब देंहटाएं
  29. आप की यह कविता अपने आप मे इतनी अनुभुतियो का हमे एह्सास करा सकता है कि जिसका कोइ जोर नही।

    जवाब देंहटाएं
  30. आप की यह कविता अपने आप मे इतनी अनुभुतियो का हमे एह्सास करा सकता है कि जिसका कोइ जोड़ नही।

    जवाब देंहटाएं
  31. Susheel ji is rachna ne poora ka poora adivasi chitra viratta se shabdon se jaya hai
    कूच करने लगती हैं नीचे तराई में
    काम की खोज़ में
    और उसके गीत पहाड़ के दु:ख
    से भीगने लगते हैं,
    उसके सपने
    पेट की आग से जलने लगते हैं।
    naye saal ke aagaaz ki yeh kavita hamesha yaad rahgi

    जवाब देंहटाएं

आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.

आइये कारवां बनायें...

~~~ साहित्य शिल्पी का पुस्तकालय निरंतर समृद्ध हो रहा है। इन्हें आप हमारी साईट से सीधे डाउनलोड कर के पढ सकते हैं ~~~~~~~

डाउनलोड करने के लिए चित्र पर क्लिक करें...