जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, हिन्दी साहित्य के विकास-क्रम की पहली अवस्था हमें सिद्ध और नाथ योगियों की 'बानी' के रूप में नज़र आती है. यद्यपि इनकी रचनायें विशुद्ध साहित्य की श्रेणी में नहीं आतीं परंतु भाषा के विकास-क्रम और परवर्ती साहित्य पर उनके प्रभाव के चलते, इन रचनाओं पर विचार करना आवश्यक हो जाता है. ये सिद्ध मूलत: वज्रयानी बौद्ध योगी थे जिन्होंने अपने मत के प्रचार के लिये जनता की भाषा को अपनाया. तब तक इसे देश-भाषा के नाम से जाना जाता था. बाद में धीरे-धीरे यह भाषा भी जन-भाषा तो न रही परंतु साहित्य के लिये रूढ़ हो गई. तब इसे अपभ्रंश का नाम दिया गया. 'अपभ्रंश' शब्द सबसे पहले ६५० ई. के आसपास के एक शिलालेख में मिलता है जिसमें संस्कृत, प्राकृत के साथ-साथ इसे भी साहित्यिक भाषा माना गया है.
परंपरा से प्रसिद्ध चले आ रहे चौरासी सिद्धों में 'पउम चरिउ' के रचनाकार स्वयंभू पहले प्रमुख सिद्ध हैं. ये सभी सिद्ध अनेक स्थानों पर भ्रमण करते हुये, अपने मतानुसार वेद, पुराण आदि पर आधारित ब्राह्मणवाद, जातिवाद आदि का विरोध करते हुये परमात्मा के सम्मुख सभी के बराबर होने का प्रचार करते थे और रहस्यवाद का उपदेश देते थे. इनके लिये अपभ्रंश ही सबसे उपयुक्त भाषा थी क्योंकि इनके अनुयायी अधिकतर अनपढ़ वर्ग से थे जो संस्कृत नहीं समझते थे. हालाँकि जनता पर अपने ज्ञान की धाक जमाने के लिये कई सिद्ध संस्कृत में भी काव्य-रचना करते थे; पर उनकी प्रधान भाषा अपभ्रंश ही रही.
सिद्धों की बानियों की एक बानगी देखें:
जहि मन पवन न संचरै, रवि ससि नांहि पवेस
तहि भट चित्त विसाम करु, सरेहे कहिअ उवेस
पंडिअ साल सत्त बक्खाणइ; देहहि रुद्ध बसंत न जाणइ
अमणागमण ण तेन विखंडिअ; तोवि णिलज्जइ भणइ हउँ पंडिअ
बेंग संसार बाड़हिल जाअ; दुहिल दूध के बेटे समाअ
बलद बिआएल गविआ बाँझे; पिटा दुहिए एतिना साँझे
जो स्जो बुज्झी सो धनि बुधी; जो सो चोर सोई साधी
निते निते पिआला षिहे जूझअ; ढेढपाएर गीत बिरले बूझअ
सिद्धों का प्रभाव मूलत: देश के पूर्वी भाग अर्थात बिहार, बंगाल, उड़ीसा आदि क्षेत्रों में अधिक था, अत: इनकी भाषा में पूरबी भाषाओं के अंश भी प्रचुरता में पाये जाते हैं. कालांतर में सिद्ध-मत में गुह्य और रहस्यवाद के चलते विसंगतियाँ और दुराचार बढ़ता चला गया जोकि इस मत के अवसान का कारण बना. वर्तमान कौल-कापालिक इन्हीं सिद्धों के निकटस्थ जान पड़ते हैं.
सिद्धों में बढ़ते दुराचार ने नाथ-मत को जन्म दिया. इस मत का आरंभ सिद्ध जालंधर (जिन्हें आदिनाथ के नाम से भी जाना जाता है) से हुआ. इस मत में सबसे प्रसिद्ध गोरखनाथ हुये. नाथों का प्रसार मुख्यत: पंजाब, राजस्थान आदि में हुआ. इससे इनकी अपभ्रंश में पंजाबी, राजस्थानी के शब्द बहुतायत में हैं.
जैसा कि हम पूर्व में कह चुके हैं कि सिद्धों और नाथों की रचनाओं का उद्देश्य अपने मत का प्रचार मात्र था, इससे इनके काव्य में जीवन के विविध आयाम स्थान नहीं पा सके हैं. जीवन से कुछ अधिक जुड़ा हुआ काव्य हमें तत्कालीन जैन आचार्यों व कुछ अन्य राज्याश्रित कवियों की रचनाओं में नज़र आता है. इनमें हेमचन्द्र, सोमप्रभ सूरि, विद्याधर, मेरुतुंग, शारंगधर आदि प्रमुख हैं. इनकी रचना के कुछ नमूने देखें:
भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु
लज्जेजं तु वयंसिअहु जइ भग्गा घरु एंतु
पिय संगमि कउ निद्दणी, पियहो परक्खहो केंव
मई बिन्निवि बिन्नासिया, निंद्दन ऐंव न तेंव
पिय हउँ थक्किय सयलु दिण तुह विरहग्गि किलंत
थोड़इ जल जिमि मच्छलिय तल्लोविल्लि करंत
जा मति पच्छइ संपजइ सा मति पहिली होइ
मुंज भणइ, मुणालवइ! बिघन न बेढ़इ कोइ
इसके बाद शुरू होता है भारतीय इतिहास का सबसे उथल-पुथल भरा समय जिसमें देश अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था और इनके अधिपति निजी स्वार्थों के अतिरिक्त कभी-कभी तो महज़ वीरता-प्रदर्शन के लिये आपस में लड़ते रहते थे. इसी समय पश्चिमी राज्यों पर मुसलमानों के आक्रमण भी आरंभ हो गये. अत: इस दौर के काव्य में सर्वत्र वीर-रस ही प्रधान है. इसी से कुछ विद्वानों ने इसे वीर-गाथा काल भी कहा है. नरपति नाल्ह का बीसलदेव-रासो (राजस्थान के राजा विग्रहराज चतुर्थ के विवाह, उड़ीसा प्रवास तथा वापसी की कथा सुनाता लगभग १०० पृष्ठों का छोटा सा प्रबंधकाव्य), चंदबरदाई का पृथ्वीराज-रासो (रासो काव्य-परंपरा का सबसे बृहद और लोकप्रिय काव्य), जगनिक का आल्हखंड इस दौर की सबसे प्रमुख रचनायें हैं.
ज्ञात रहे कि इस दौर तक आते-आते अपभ्रंश जन-भाषा नहीं रह गई थी परंतु काव्य में उसका प्रयोग जारी था. अत: इस दौर की अपभ्रंश में हमें कई तरह के प्रयोग नज़र आते हैं. बीसलदेव -रासो में जहाँ राजस्थानी के विशिष्ट प्रयोग दृष्टिगोचर होते हैं, वहीं पृथ्वीराज-रासो में ब्रज-भाषा और खड़ी-बोली के प्रयोग सहज ही ध्यान आकर्षित करते हैं. इसी तरह आल्हखंड में पूर्वी-बोलियों की छाप स्पष्ट नज़र आती है. यद्यपि भाट-शैली की रचनायें होने के कारण आज इनमें से कोई भी अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है. अलग-अलग भाट-गायकों व कवियों ने इनमें भाषा और विषय के स्तर तक मनमाने प्रयोग किये हैं. परंतु कुछ और उपलब्ध न होने के कारण यही उस दौर के काव्य के एकमात्र प्रतीक रह जाते हैं. आल्हखंड तो आज भी उत्तर-मध्य भारत के कई भागों में 'आल्हा' के नाम से गाया जाता है परंतु वह कहीं से भी मूल आल्हखंड नहीं है बल्कि उसके आधार पर अन्य कवियों द्वारा लिखा गया काव्य-मात्र है.
वीर-गाथा काल की इन रचनाओं में अपभ्रंश व सामान्य भाषा के प्रयोग इस कदर मिले-जुले हैं कि कई विद्वानों ने इसे अपभ्रंश काव्य के स्थान पर देश-भाषा काव्य भी कहा है. हाँ, यह कहना बहुत मुश्किल है कि अपने मूल रूप में भी इनकी भाषा का रूप ऐसा ही था या बाद में ऐसा हो गया. रासो-काव्य की एक झलक देखें:
मनहु कला ससभान कला सोलह सो बन्निय
बाल बैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय
विगसि कमलसिग, भ्रमर, बेनु, खंजन मृग लुट्टिय
हीर, कीर अरु बिंब मोति नखिसिख अहिघुट्टिय
- (पृथ्वीराज रासो)
परणब चाल्यो बीसलराय; चउरास्या सहु लिया बोलाइ
जान तणी साजति करउ; जीरह रंगावली पहरज्यो टोप
हुअउ पइसारउ बीसलराव; आदी सयल अंतेवरी राव
रूप अपूरब पेषियइ; इसी अस्त्री नहिं सयल संसार
अति रंग स्वामी सूँ मिली राति; बेटी राजा भोज की
- (बीसलदेव रासो)
इस सारी चर्चा के दौरान, यह कई बार स्पष्ट किया गया है कि यह उस समय की सामान्य भाषा नहीं थी. कई अन्य कवि उस दौर में भी जन-सामान्य भाषा में अपनी रचनायें कर रहे थे. इनमें अमीर खुसरो और विद्यापति जैसे सुप्रसिद्ध कवि भी शामिल हैं. अमीर खुसरो ने पृथ्वीराज-रासो के लगभग सौ साल बाद ही जैसी साफ चलती हिंदी और ब्रजभाषा में रचना की है, उससे साहित्य और समाज में भाषा प्रयोग में अंतर बहुत हद तक स्पष्ट हो जाता है. इसी प्रकार मैथिलकोकिल विद्यापति ने भी अपभ्रंश के साथ-साथ अपने क्षेत्र की जन-सामान्य भाषा मैथिली में जो गीत लिखे, उन्होंने ही उन्हें साहित्य के इतिहास में अमर कर दिया.
एक नार ने अचरज किया, साँप मारि पिंजरे में दिया
ज्यों-ज्यों साँप ताल को खाए, सूखे ताल साँप मरि जाए
गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डाले केस
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस
(अमीर खुसरो)
सरस बसंत समय भल पावलि, दछिन पवन बह धीरे
सपनहु रूप वचन इक भाषिय, मुख से दूरु करि चीरे
तोहर बदन सम चाँद होअथि नाहिं, कैयो जतन बिहकेला
कै बेरि काटि बनावल नव कै, तैयो तुलित नहिं भेला
लोचन तूअ कमल नहिं भै सक, से जग के नहिं जाने
से फिरि जाय लुकैलन्ह जल महँ, पंकज निज अपमाने
भन विद्यापति सुनु बर जोवति, ई सम लछमि समाने
राजा 'सिवसिंह' रूप नरायन, 'लखिमा देइ' प्रति माने
(विद्यापति)
हिन्दी साहित्य के विकास-क्रम की अगली कड़ी में हम भक्तिकालीन साहित्य तथा तत्कालीन साहित्यिक अवधारणाओं को समझने का प्रयास करेंगे.
हिन्दी साहित्य के इतिहास के अन्य अंक : १) साहित्य क्या है? २)हिन्दी साहित्य का आरंभ ४)भक्ति-साहित्य का उदय ५)कबीर और उनका साहित्य ६)संतगुरु रविदास ७)ज्ञानमार्गी भक्ति शाखा के अन्य कवि ८)प्रेममार्गी भक्तिधारा ९)जायसी और उनका "पद्मावत"
18 टिप्पणियाँ
हिन्दी साहित्य और इसकी विशेषताओं को प्रस्तुत करता यह आलेख बहुत अच्छा बन पडा है, अजय जी को इस जानकारी जुटाने और प्रस्तुत करने की बधाई।
जवाब देंहटाएंविषय नीरस है किंतु संग्रह करने योग्य है इसे टुकडो में प्रस्तुत किया जा सकता था। और रोचक बनाने का यत्न करें
जवाब देंहटाएंyou have used good quotations, nice article
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
अच्छा आलेख ....
जवाब देंहटाएंअजय जी,
बधाई ।
अच्छा आलेख ....
जवाब देंहटाएंअजय जी,
बधाई ।
अजय जी,
जवाब देंहटाएंआदिकालीन साहित्य पर इतनी विस्तृत जानकारी प्रस्तुत कराने के लिए आभार.. यह स्तम्भ सहेजने योग्य जानकारी लिए है.
very nice, plz continue
जवाब देंहटाएंअजय जी हिन्दी के itihaas के बारे मैं rochak एवं ज्ञानवर्धक लेख है
जवाब देंहटाएंमुझ जैसे हिन्दी के शिष्यों के लिए महत्वपूर्ण भी
ब्रिजेश शर्मा
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंbahut achha laga padh kar
जवाब देंहटाएंachha prayas tha
shukriya
hume itna sara gyan jo apne diya hai vo anmol hai
kese jutate ho aap itna kuchh iss bhagti-daudti jindgi main
vakyi adbhut !
krpya ise jaari rakhe humara sahyog sada apke sath rahega .........
बहुत अच्छा
जवाब देंहटाएंहिन्दी साहित्य के संदर्भ में ऐसी उपयोगी जानकारी का अब तक अंतर्जाल पर सर्वथा अभाव ही दृष्टिगोचर होता है. ऐसे में साहित्यशिल्पी का यह प्रयास निस्संदेह सराहनीय है.
जवाब देंहटाएंइसे हम तक पँचाने का हार्दिक आभार!
अच्छी जानकारी जुटाई है. इसी क्रम में काव्य के छन्द-विधान आदि अवधारणाओं की भी चर्चा की जा सकती है.
जवाब देंहटाएंआपके इस प्रयास से अंतरजाल पर हिन्दी साहित्य के इतिहास की कमी पूर्ण होगी. कोशिश करें की सामग्री उच्चा स्तर की बनी रहे और यह श्रृंखला पूरी होने के बाद एक सन्दर्भ बन जाय.
जवाब देंहटाएंआदिकालीन साहित्य पर आपके आलेख में आपका शोध दिख रहा है। संग्रह करने योग्य लेख।
जवाब देंहटाएंअजय जी,
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा आलेख, इतनी अच्छी जानकारी देने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद
सारगर्भित आलेख, बहुत अच्छी तरह व अच्छे उदाहरण के साथ। बधाई अजय जी।
जवाब देंहटाएं***राजीव रंजन प्रसाद
विषय पर संपूर्ण लेख है। बधाई।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.