
प्लेटफॉर्म पर छोरों की ज़िन्दगियाँ
ट्रेनों की आहट पर चलती हैं
यात्रियों से उनींदी 'बारह डाउन'
एक नंबर पर अभी आकर लगी है
दनादन छोरे सभी घुस रहे हैं बोगियों में
कोई 'जनरल नॉलेज' की किताबें बेचेगा
कोई अँग्रेजी फर्राटेदार बोलने की
या फिर किस्म-किस्म के हीरो-हीरोईनों की
तेज कदम से कोई
खोमचे का टीन टनटनाते
झालमुढ़ी चिल्लायेगा कोई मुंगफली
स्प्रिंग के खिलौने चलाकर कोई
'इम्पोर्टेड' माल बताएगा तो
कोई 'पें-पें' बजाकर बाजा दिखलायेगा
कोई-कोई तो रख देगा कोकशास्त्र की
किताबें भी चुपके से बाबू-लोगों के पास
मुसाफिरों की नींद में खलल डालती
कठपुतलियों सी हिलती-डुलती
जोकरों के पहनावे में
अबोध मलिन बेढब
भूख से कातर
ये आकृतियाँ ट्रेन में
जमूरे की बोली बोलते
मुसाफिरों को लुभाने का
बहत्तर करतब करते नज़र आयेंगी।
-(दो)-
दो बजे की रात है --
सिहरन भरी,
सन्नाटे में डूबी
लंबी सीटी देकर ट्रेन हौले-हौले
गहरी धुंध में लिपटी रात को
चीरती हुई सरक रही है
घुप्प अँधेरे की ओर
दाँत किटकिटाते छोरे सब
अपनी दुकान कँखियाये
उतर रहे हैं डब्बों से धड़ाधड़
और छितरा रहे हैं इधर-उधर
यात्री-शेडों में ढ़ाबों में
बंद दुकानों की आड़ में
या पेड़ों की ओट में
पसर रहे हैं
गमछे बिछा
अपने बटुए टटोलते
पेट में पैर डाल कर
आधी नींद में
अगली गाड़ी की प्रतीक्षा में।
उसके सपनों में भागते सुख
का पीछा करती
रोज़ कितनी ही जोख़िम भरी रातें
यूँ ही कट रही हैं प्लेटफॉर्म पर
हमारे बच्चों की
इंजन की इन कर्कश
घर्घराहटों के बीच
सोते-जागते,खाँसते-कुहरते
बीमारियों से लड़ते
मौत के साये में
पलते-बढ़ते।
*****
19 टिप्पणियाँ
"प्लेटफॉर्म पर ब्च्चे हमारे" कविता पढ कर ऎसा लगा मानो अभी-अभी किसी स्टेशन से हो आया हूँ.... बिल्कुल सजीव चित्रण है।
जवाब देंहटाएंआज तीसरी दुनियाँ के ये बच्चे अपनी अस्मिता की लडाई लड रहे हैं। सरकारें कागजों में इनके लिए न जाने कितनी योजनाएँ बनाती है, पर वे रेलगाडीयों की तरह ही आती है और चली जाती है। बच्चोँ की व्यथा की कोई सुधि लेने वाला नहीं।... कविता का विम्ब काफ़ी आकर्सक है-
"पसर रहे हैं
गमछे बिछा
अपने बटुए टटोलते
पेट में पैर डाल कर
आधी नींद में
अगली गाड़ी की प्रतीक्षा में।
उसके सपनों में भागते सुख
का पीछा करती
रोज़ कितनी ही जोख़िम भरी रातें
यूँ ही कट रही हैं प्लेटफॉर्म पर
हमारे बच्चों की
इंजन की इन कर्कश
घर्घराहटों के बीच
सोते-जागते,खाँसते-कुहरते
बीमारियों से लड़ते
मौत के साये में
पलते-बढ़ते।"
धन्यवाद इस सुन्दर रचना के लिए।
:जितेन्द्र कुमार
ऐसा लगा जैसे मानो ..मैँ खुद इनके बीच खड़ा इनको देख रहा हूँ....
जवाब देंहटाएंसजीव चित्रण...
Very sensitive.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
संवेदन शील कविता। दृश्य उकेरती हैँ। एक एक पंक्ति समाज की नजर नीची करने में सक्षम
जवाब देंहटाएंसोते-जागते,खाँसते-कुहरते
बीमारियों से लड़ते
मौत के साये में
पलते-बढ़ते।
जनवादी संदर्भों पर आपकी लेखनी सशक्त है। बह्त गंभीर रचना है। संवेदित भी करती है और प्रश्न भी उठाती है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता। एक आम ऑबजरवेशन को इतनी सुन्दर कविता एक अनुभवी कलम ही बना सकती है।
जवाब देंहटाएंउसके सपनों में भागते सुख
जवाब देंहटाएंका पीछा करती
रोज़ कितनी ही जोख़िम भरी रातें
यूँ ही कट रही हैं प्लेटफॉर्म पर
हमारे बच्चों की
इंजन की इन कर्कश
घर्घराहटों के
बहुत ही संवेदशील सच्ची कविता लगी ..
हकीकत से आँखें मिलाती यह रचना संवेदित करती है। कुमार विनोद कहते हैं कि-
जवाब देंहटाएंजग से जीत भले न पाये, खुद से कब है हारा बच्चा।
जग का बोझ लिए काँधों पर, फिरता है बंजारा बच्चा।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
KAVITA PRABHAVIT KARTEE HAI.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्ची अभिव्यक्ति है। इस विषय पर बहुत कम लिखा गया है।
जवाब देंहटाएंये आकृतियाँ ट्रेन में
जवाब देंहटाएंजमूरे की बोली बोलते
मुसाफिरों को लुभाने का
बहत्तर करतब करते नज़र आयेंगी।
ये आकृतियाँ संवेदना को खरोंचती हैं। प्रश्न अक्रती हैं कि विकास की दौड में हम कहाँ हैं।
सोते-जागते,खाँसते-कुहरते
बीमारियों से लड़ते
मौत के साये में
पलते-बढ़ते।
....वो सुबह कब आयेगी पता नहीं।
ब्ळोग्गर पर तकनीकी दिक्कत के कारण टिप्पणी विलंब से कर रहा हूँ।
जवाब देंहटाएंइस संदर्भ पर एसी कविता मैने पहले नहीं पढी। आपका ऑब्जरवेशन पैना है। गहराई से केवल परिस्थिति ही आपने नहीं देखी अपितु उसका प्रस्तुतिकरण कविता को उँचाई प्रदन करता है।
***राजीव रंजन प्रसाद
ये आकृतियाँ ट्रेन में
जवाब देंहटाएंजमूरे की बोली बोलते
मुसाफिरों को लुभाने का
बहत्तर करतब करते नज़र आयेंगी।"
बेहतरीन दृश्य प्रस्तुत किया सुशील जी ....जीवन में बहुत सी ऐसी बातें होती हैं जिनका हमारे जीवन में कुछ सीधा प्रभाव नही होता या हम उसे समझ नही पाते ... जिस जिंदगियों का वर्णन आप ने किया है , ये बच्चे और उनका जीवन उन्हीं में से एक हैं .... सम्हाल कर रखने वाली कविता लिख बैठे हैं आप... बधाई .....
सजीव चित्रण ....
जवाब देंहटाएंसंवेदन शील गंभीर रचना...
बधाई
संवेदनों का संचार करने में सक्षम रचना के लिये बधाई
जवाब देंहटाएंplateform par jeevan bitane wale bachcho ki jindagi ka aisa marmsparshi chitran maine aajtak nahi dekha, shabd jaise khud bol parte hain aur hamari aankhon k saamne sabkuchh ek chhan ke liye jivant ho uthta hai.
जवाब देंहटाएंjaise.........
उसके सपनों में भागते सुख
का पीछा करती
रोज़ कितनी ही जोख़िम भरी रातें
यूँ ही कट रही हैं प्लेटफॉर्म पर
यह सुशील कुमार की विशुद्ध जनवादी कविता है। बाल-श्रमिक रेलवे में भी पेट पालने के खातिर कितनी जोख़िम भरे काम करते हैं!सच्चे अनुभव से लिखी इस कविता के लिये उन्हें बधाई।-अंशु।
जवाब देंहटाएंkafi sambedanshil kavita hai aapki. sachmuch samaaj ko aaina dikhaati hai ye kavita
जवाब देंहटाएंसुशील जी की यह कविता बहुत मर्मस्पर्शी है। बाल-श्रमिकों के रूप प्लेटफार्म पर बच्चे का सच्चा चित्र यहां मिलता है। जनवाद की शिखर को छूती यह कविता अपने उद्देश्य में पूर्णत: सफल हुई है।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.