
“अबे, कहाँ घुसा आ रहा है !” सिर से पांव तक गंदे भिखारीनुमा आदमी से अपने कपड़े बचाता हुआ वह लगभग चीख-सा पड़ा। उस आदमी की दशा देखकर मारे घिन्न के मन ही मन वह बुदबुदाया, “कैसे डिब्बे में चढ़ बैठा ?... अगर अर्जेन्सी न होती तो कभी भी इस डिब्बे में न चढ़ता। भले ही ट्रेन छूट जाती।”
माँ के सीरियस होने का तार उसे तब मिला, जब वह शाम सात बजे ऑफिस से घर लौटा। अगले दिन, राज्य में बन्द होने के कारण रेलें रद्द कर दी गयी थीं और बसों के चलने की भी उम्मीद नहीं थी। अतः रात की गाड़ी पकड़ने के आवाला उसके पास कोई चारा नहीं बचा था।
एक के बाद एक स्टेशन पीछे छोड़ती ट्रेन आगे बढ़ी जा रही थी। खड़े हुए लोग आहिस्ता-आहिस्ता नीचे फ़र्श पर बैठने लग गये थे। कई अधलेटे-से भी हो गये थे।
“ज़ाहिल ! कैसी गंदी जगह पर लुढ़के पड़े हैं ! कपड़ों तक का ख़याल नहीं है।” नीचे फ़र्श पर फैले पानी, संडास के पास की दुर्गन्ध और गन्दगी के कारण उसे घिन्न-सी आ रही थी। किसी तरह भीड़ के बीच में जगह बनाते हुए आगे बढ़कर उसने डिब्बे में अन्दर की ओर झांका। अन्दर तो और भी बुरा हाल था। डिब्बा असबाब और सवारियों से खचाखच भरा था। तिल रखने तक की जगह नहीं थी।
यह सब देख, वह वहीं खड़े रहने को विवश हो गया। उसने घड़ी देखी, साढ़े दस बज रहे थे। सुबह छह बजे से पहले गाड़ी क्या लगेगी दिल्ली ! रातभर यहीं खड़े-खड़े यात्रा करनी पड़ेगी। वह सोच रहा था। ट्रेन अंधकार को चीरती धड़ाधड़ आगे बढ़ती जा रही थी। खड़ी हुई सवारियों में से दो-चार को छोड़कर शेष सभी नीचे फ़र्श पर बैठ गयी थीं और आड़ी-तिरछी होकर सोने का उपक्रम कर रही थीं।
“इस हालत में भी जाने कैसे नींद आ जाती है इन्हें !” वह फिर बुदबुदाया।
ट्रेन जब अम्बाला से छूटी तो उसकी टांगों में दर्द होना आरंभ हो गया था। नीचे का गंदा, गीला फ़र्श उसे बैठने से रोक रहा था। वह किसी तरह खड़ा रहा और इधर-उधर की बातों को याद कर, समय को गुजारने का प्रयत्न करने लगा। कुछ ही देर बाद, उसकी पलकें नींद के बोझ से दबने लगीं। वह आहिस्ता-आहिस्ता टांगों को मोड़ कर बैठने को हुआ। लेकिन तभी अपने कपड़ों का ख़याल कर सीधा तन कर खड़ा हो गया। पर, खड़े-खड़े झपकियाँ ज्यादा जोर मारने लगीं और देखते-देखते वह भी संडास की दीवार से पीठ टिकाकर, गंदे और गीले फ़र्श पर अधलेटा-सा हो गया।
किसी स्टेशन पर झटके से ट्रेन रुकी तो उसकी नींद टूटी। मिचमिचाती आँखों से उसने देखा। डिब्बे में चढ़ा एक व्यक्ति एक हाथ में ब्रीफकेश उठाये, आड़े-तिरछे लेटे लोगों के बीच से रास्ता बनाते हुए भीतर जाने की कोशिश कर रहा था। उसके समीप पहुँचने पर गंदे, गीले फ़र्श पर उसे यूँ अधलेटा-सा देखकर उसने नाक-भौं सिकोड़ी और बुदबुदाता हुआ आगे बढ़ गया, “ज़ाहिल ! गंदगी में भी कैसा बेपरवाह पसरा पड़ा है !”
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17 टिप्पणियाँ
रोचक और अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंआप विरोधाभासों पर बहुत अच्छा लिखते हैं। आपकी पिछली कहा नी और इस कहानी की यह एक बडी समानता है।
जवाब देंहटाएंपतिस्थिति अच्छे अच्चों को जमीन सुंघाती है। लघुकथा में गंभीर संदेश निहित हैं।
जवाब देंहटाएंजाहिल शब्द को कहानी बखूबी परिभाषित कर रही है। अच्छी लघुकथा।
जवाब देंहटाएंI Liked this short story very much. Intresting.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
हालात जो ना करवाए...अच्छा है
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंघटनाओं का परिवेश वही रहता है बस पात्र बदलते रहते हैं.
बहुत अच्छी लघुकथा है सुभाष नीरव जी, मानसिकता पर अच्छा प्रहार है।
जवाब देंहटाएंसम्पूर्ण जीवन ही विरोधाभासों से भारी पड़ी है. अच्छा लिखा है. आभार.
जवाब देंहटाएंhttp://mallar.wordpress.com
अच्छी लघुकथा।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत .. कबूल करें ना करें कई लोगो क साथ हो भी चुका होगा ऐसा .. अच्छी
जवाब देंहटाएंओब्सेर्वेशन ....
हा हा हा ऐसा ही होता है। दूसरे पर हँसना बहुत आसान है। पर कहावत है ना- भूख ना देखे जूठा भात और नींद ना देखे धोबी का घाट ।
जवाब देंहटाएंह्रदय स्पर्शी और प्रभावी.
जवाब देंहटाएं===================
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
प्रतिकूल परिस्थितियाँ आदमी के दर्प का दमन किस खूबसूरती और आसानी के साथ कर डालती हैं,सुभाष नीरव की लघुकथा 'सफर में' इसका सटीक उदाहरण प्रस्तुत करती है। वह बहुत सीनियर कथाकार हैं और उनकी अनेक लघुकथाओं की तरह यह लघुकथा भी उनके ऊँचे कद का आईना है। इसमें मात्र विरोधाभास नहीं है, बल्कि दर्प-भरे आदमी की हीन-मानसिकता और और उसके मौकापरस्त चरित्र का सजीव चित्रण है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंमेरे दोस्त ,
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी लघुकथा है और हम सब की मानसिकता को दुहरे रूप को दर्शाती है.
बहुत बधाई
विजय
बहुत सटीक परिदृश्य । बहुत उम्दा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंदेखी भाली लगती है कथा।
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.