
घना है कुहासा
भोर है कि साँझ
डूब गया है
सब कुछ इस तरह
तमस के जाले से
छूटने को मारे हैं
जितने हाथ पाँव
और फंस गया हूँ
बुरी तरह…
वक्त का मकड़ा
घूरता है हर पल
अपना दंश मुझमें
धंसाने से पहले
याद है मुझे
‘'पुरू' हूँ
किन्तु 'पौरूष'
खो गया है
भटक रहा हूँ
युगों से
तलाश में …
उस शमी वृक्ष की
टांगा था मैनें
जिस पर कभी गाँडीव
अज्ञातवास की वेदना
अंधकार में अदृश्य घाव
डूबी नही है
चाह अब तक
एक नये सूरज की
उबारो …उबारो
तो मुझे
ओ ! मेरी
‘सोयी हुयी चेतना’
इस अन्धकार से
चीखता रहूँगा मैं
निस्तेज होने तक
शायद इसी आशा में
कि आओगे एक दिन
‘तुम’जो बिछड़ ग़ये थे मुझसे
अतीत के अनजाने मोड़ पर
8 टिप्पणियाँ
bahut hee jandar. narayan narayan
जवाब देंहटाएंbahut sundar bhaav,
जवाब देंहटाएंpoori kavita mein jindagi ki abhi lasha ji uthi hai .
badhai
vijay
एक ओजस्वि कविता मन को झकझोर कर रख दिया खास कर आज के हालात मे
जवाब देंहटाएंचीखता रहूँगा मैं
जवाब देंहटाएंनिस्तेज होने तक
शायद इसी आशा में
कि आओगे एक दिन
‘तुम’जो बिछड़ ग़ये थे मुझसे
अतीत के अनजाने मोड़ पर..
बहुत खूब श्रीकांत जी।
बहुत अच्छी कविता है। बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी और गहरी रचना है श्रीकांत जी। बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंचीखता रहूँगा मैं
जवाब देंहटाएंनिस्तेज होने तक
शायद इसी आशा में
कि आओगे एक दिन
‘तुम’जो बिछड़ ग़ये थे मुझसे
अतीत के अनजाने मोड़ पर
प्रभावी कविता।
सुन्दर मनोभाव व्यक्त करती व सकारात्मक सोच लिये कविता
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.