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पुरू [कविता] - श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'


घना है कुहासा
भोर है कि साँझ
डूब गया है
सब कुछ इस तरह
तमस के जाले से
छूटने को मारे हैं
जितने हाथ पाँव
और फंस गया हूँ
बुरी तरह…
वक्त का मकड़ा
घूरता है हर पल
अपना दंश मुझमें
धंसाने से पहले
याद है मुझे
‘'पुरू' हूँ
किन्तु 'पौरूष'
खो गया है
भटक रहा हूँ
युगों से
तलाश में …
उस शमी वृक्ष की
टांगा था मैनें
जिस पर कभी गाँडीव
अज्ञातवास की वेदना
अंधकार में अदृश्य घाव
डूबी नही है
चाह अब तक
एक नये सूरज की
उबारो …उबारो
तो मुझे
ओ ! मेरी
‘सोयी हुयी चेतना’
इस अन्धकार से
चीखता रहूँगा मैं
निस्तेज होने तक
शायद इसी आशा में
कि आओगे एक दिन
‘तुम’जो बिछड़ ग़ये थे मुझसे
अतीत के अनजाने मोड़ पर

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8 टिप्पणियाँ

  1. bahut sundar bhaav,

    poori kavita mein jindagi ki abhi lasha ji uthi hai .

    badhai

    vijay

    जवाब देंहटाएं
  2. एक ओजस्वि कविता मन को झकझोर कर रख दिया खास कर आज के हालात मे

    जवाब देंहटाएं
  3. चीखता रहूँगा मैं
    निस्तेज होने तक
    शायद इसी आशा में
    कि आओगे एक दिन
    ‘तुम’जो बिछड़ ग़ये थे मुझसे
    अतीत के अनजाने मोड़ पर..

    बहुत खूब श्रीकांत जी।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत अच्छी कविता है। बहुत बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत अच्छी और गहरी रचना है श्रीकांत जी। बहुत बहुत बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  6. चीखता रहूँगा मैं
    निस्तेज होने तक
    शायद इसी आशा में
    कि आओगे एक दिन
    ‘तुम’जो बिछड़ ग़ये थे मुझसे
    अतीत के अनजाने मोड़ पर

    प्रभावी कविता।

    जवाब देंहटाएं
  7. सुन्दर मनोभाव व्यक्त करती व सकारात्मक सोच लिये कविता

    जवाब देंहटाएं

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