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कबाड़ [लघुकथा] - सुभाष नीरव


बेटे को तीन कमरों का फ्लैट आवंटित हुआ था। मजदूरों के संग मजदूर बने किशन बाबू खुशी-खुशी सामान को ट्रक से उतरवा रहे थे। सारी उम्र किराये के मकानों में गला दी। कुछ भी हो, खुद तंगी में रहकर बेटे को ऊँची तालीम दिलाने का फल ईश्वर ने उन्हें दे दिया था। बेटा सीधा अफसर लगा और लगते ही कम्पनी की ओर से रहने के लिए इतना बड़ा फ्लैट उसे मिल गया।

बेटा सीधे ऑफिस चला गया था। किशन बाबू और उनकी बहू दो मजदूरों की मदद से सारा सामान फ्लैट में लगवाते रहे।

दोपहर को लंच के समय बेटा आया तो देखकर दंग रह गया। सारा सामान करीने से सजा-संवारकर रखा गया था। एक बैडरूम, दूसरा ड्राइंगरूम और तीसरा पिताजी और मेहमानों के लिए। वाह!

बेटे ने पूरे फ्लैट का मुआयना किया। बड़ा-सा किचन, किचन के साथ बड़ा-सा एक स्टोर, जिसमें फालतू का काठ-कबाड़ भरा पड़ा था। उसने गौर से देखा और सोचने लगा। उसने तुरन्त पत्नी को एक ओर ले जाकर समझाया, “देखो, स्टोर से सारा काठ-कबाड़ बाहर फिंकवाओ। वहाँ तो एक चारपाई बड़े आराम से आ सकती है। ऐसा करो, उसकी अच्छी तरह सफाई करवाकर पिताजी की चारपाई वहीं लगवा दो। तीसरे कमरे को मैं अपना रीडिंगरूम बनाऊँगा।”

रात को स्टोर में बिछी चारपाई पर लेटते हुए किशन बाबू को अपने बूढ़े शरीर से पहली बार कबाड़-सी दुर्गन्ध आ रही थी।

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11 टिप्पणियाँ

  1. यही होता है तो फिर एसा ये होता क्यों है?
    यही दुनियाँ है तो एसी ये दुनियाँ क्यों है?

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  2. हमारी नजरों में हमारे बुजुर्ग क्या हैं, कहानी दर्शाती है..हमारी पीढी बेशर्म है।

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  3. घर-घर की कहानी....

    हर तरफ आग है...धुआँ है...
    पानी कहीं नहीं है

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  4. हमारी संवेदनायें व भीतर की शर्म मरती जा रही है।

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  5. सच्ची कहानी है। मर्मस्पर्शी।

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  6. "रात को स्टोर में बिछी चारपाई पर लेटते हुए किशन बाबू को अपने बूढ़े शरीर से पहली बार कबाड़-सी दुर्गन्ध आ रही थी।"

    True Story

    -Alok Kataria

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  7. बहुत अच्छी रचना है सुभाष जी, नग्न सत्य।

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  8. संवेदनशील व मार्मिक लघू कथा...
    हमें याद रखना है कि समय अपने आप को दोहराता है...कल कहीं हम कबाड न साबित हों

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  9. बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना है .....!

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