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टूटते स्वपन [लघुकथा] - मोहिन्दर कुमार


"अरे और कितनी देर लगेगी आप को तैयार होने में ?" रामेश्वर अपनी पत्नी से पूछ रहे थे। उन्हें अपने बेटे प्रेम को मिलने रेलवे स्टेशन पर जाना था। प्रेम अपनी इन्जीनियरिंग की डिग्री ले कर घर लौटने वाला था परन्तु उसे एक अच्छी आफर मिल गयी थी और उसे तुरन्त जा कर ज्वाइन करना था ऐसा उसने टेलीफोन पर उन्हें सूचित किया था। रेलवे स्टेशन से ही प्रेम को दूसरी ट्रेन पकड कर बैंगलोर निकलना था। बस एक घंटे भर का समय बीच में था। 

मैं तैयार हूं... बस दो मिनट मैंने प्रेम कि लिये कुछ बनाया है उसे उठा लूं । चलिये रमा किचन से निकलते हुए बोलीं। दोनों घर के बाहर प्रतीक्षा कर रहे आटो में बैठ गये। यह लडका भी बिलकुल सीधा है.. पहले घर आता कुछ दिन रहता फिर सारी उमर नौकरी ही तो करनी है..रमा बोली । उसने ठीक किया रमा... नौकरी कोई सडक पर थोडे ही पडी मिलती है जो जब चाहे उठा लो... मेरी चिन्ता भी दूर हुयी... बस अब सविता के हाथ पीले कर दूं, प्रेम की शादी तो तीन चार साल बाद हो सकती है अभी तो शालिनी पढ रही है और चौधरी जी को भी कोई जल्दबाजी नही है .. फिर सारी जिम्मेदारी खत्म समझो रामेश्वर बोले। आप ठीक कह रहे हैं जी.. लडका अच्छी जगह लग जायेगा तो बहन की शादी में भी मदद कर सकेगा और मुझे भी बहु के रूप में शालिनी जैसी सुन्दर और सुघड लडकी मिल जायेगी रमा बोली । स्टेशन अभी थोडी दूर था मगर दोनों आने वाले समय के सुहाने सपने आंखों में संजोये चुपचाप बाहर की और देख रहे थे। चुप्पी तब टूटी जब आटो वाले ने आटो को एक तरफ खडा करके कहा... जी स्टेशन आ गया। आटो का किराया चुकता करने के बाद दोनों रेलबे स्टेशन के गेट की और बढे। ट्रेन दस मिनट बाद तीन नम्बर प्लेटफार्म पर आयेगी.. रामेश्वर चार्ट देखते हुए बोले ।

ट्रेन ठीक समय पर आ लगी.. दोनों की नजरें भीड में अपने बेटे को ढूंढ रही थी.. तभी पीछे से प्रेम ने आवाज लगायी ... पापा मैं यहाँ हूँ।  थोडी दूरी पर प्रेम कुली से सामान उतरवा रहा था.. कुली को पैसे देने के बाद वह उनकी और बढा और दोनों के पांव छुए। रामेश्वर सामान के पास खडी लडकी की और प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रहे थे..जैसे जानना चाह रहे हों कि यह कौन है। रमा का भी वही हाल था.. प्रेम समझ गया और बोला... मां यह प्रीती है..मेरे साथ ही पढती थी..इसके पिता जी बहुत बडे बिजनसमैन है..तीन चार फैक्टरी है अपनी..और उन्होंने ही मुझे अपनी कंपनी मे आफर दी है। प्रीती ने धीरे से सिर हिला कर दोनों को नमस्ते कहा। दोनों के हाथ आशीर्वाद के लिये उठे जरूर लेकिन उनके मुंह से निकले शब्द अस्पष्ट से थे।
रामेश्वर प्रेम को अलग ले जा कर बोले.. बेटा बात यहीं तक है या कुछ और ?  प्रेम बोला.. पापा प्रीती के पापा उसकी शादी मेरे साथ करना चाह्ते है..प्रीती और मैं एक दूसरे को चाह्ते हैं.. आपका आशीर्वाद चाहिये। मगर मैं चौधरी जी को क्या जबाब दूंगा..जिनके हम पर इतने एहसान हैं और हम शालिनी से क्या कहेंगे... रामेश्वर के गले से आवाज फंस फंस कर निकल रही थी वह अपने आप को निसहाय सा पा रहे थे.. ऐसी परिस्थिति की उन्हें स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी। मैंने चौधरी जी या शालिनी से कोई वादा नहीं किया था पापा.... आपने किया होगा । ये मेरी लाईफ़ का सवाल है पापा .. प्रेम बोला। हां बेटा तुम ठीक कह रहे हो.. ये तुम्हारी लाईफ़ है मगर तुम्हारी मां और मेरे पच्चीस बरसों के संजोये सपनों का क्या जो हमने तुम्हारे लिये देखे थे । गलती हमारी थी कि हमने तुम्हारी इसी लाईफ के लियी खुद को फटेहाल रख कर तुम्हें सफलता की सीढियां चढते देखना चाहा.. रामेशवर का गला रूंध गया और वह वही बैंच पर बैठ गये। प्रेम व रमा उनसे कुछ कह रहे थे मगर रामेश्वर के कानों में एक ही बात गूंज रही थी "ये मेरी लाईफ़ का सवाल है पापा.." साथ वाले प्लेटफार्म से एक ट्रेन फर्राटे से एक तूफान सा उठाते हुये गुजर रही थी मगर यह तूफान उस तूफान से कहीं कम था जो रामेश्वर के मन में उठ रहा था।

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15 टिप्पणियाँ

  1. ACHCHHEE LAGHUKATHA KE LIYE
    MAHINDAR KUMAR JEE KO BADHAAEE.

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  2. घर-घर की कहानी.....

    माँ-बाप बच्चों को लेकर कुछ और सपने देखते हैँ और बच्चों की प्राथमिकताएँ और होती हैँ..


    अच्छी कहानी..

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  3. बदलते समय को आपकी कहानी बहुत अच्छी तरह दर्शाती है। बधाई।

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  4. अच्छी कहानी है मोहिन्दरजी, आज के समय में कितनी वर्जनायें टूटेंगी पता नहीं।

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  5. "...साथ वाले प्लेटफार्म से एक ट्रेन फर्राटे से एक तूफान सा उठाते हुये गुजर रही थी मगर यह तूफान उस तूफान से कहीं कम था जो रामेश्वर के मन में उठ रहा था।" मार्मिक और सोचपूर्ण। किसी को किसी की भावना क ख्याल नहीं। शायद यही हकीकत है।

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  6. रोज मर्रा से और आम होने वाली घटनाओं के बीच से निकाल कर लाई गयी लघुकथा है।

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  7. Very Nive Short story, Thanks

    Alok Kataria

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  8. मोहिन्दर जी,

    सचमुच दुराहा है,समाज बदल रहा है, संस्कार बेमानी होते जा रहे हैं। बाजार किस तरह व्यवहार पर हावी हुआ है आपकी कहानी बखूबी बयाँ करती है।

    ***राजीव रंजन प्रसाद

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  9. सामजिक मूल्य , पारिवारिक मूल्य और सफलता का अर्थ .एक ज़माने में कभी बंधे हुए थे पर अब दूरी बढ़ती जा रही है .. सपने एक परिवार के ना हो कर एक व्यक्ति के हो गए हैं ...अच्छी तरह से प्रस्तुत किया इसे आपने ..८० के दशक की गुलशन ग्रोवर और गोविंदा की कुछ फिल्में भी याद हो आयीं :-)

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  10. अच्छी लघुकथा....

    मोहिन्दर जी..
    बधाई।

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  11. भावनाओं की सुन्दर प्रस्तुति... जिसके लिये आदमी सपने संजोते संजोते अपना सारा जीवन निछावर कर देता है वही सपने अगर एक झटके से कोई तोड दे तो निश्चय ही पीडादायक स्थिति है

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  12. स्वीकार और नकारने के बीच का दोराहा।
    अपने अपने मानदंडों के प्लेटफ़ार्म पर खड़े संबंध ।

    प्रवीण पंडित

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  13. तथाकथित विकास के काले चेहरे को अच्छी तरह दर्शाया है आपने।
    बधाई स्वीकारें!

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  14. बंधुवर मोहिंदर जी

    आपकी कथा प्लेटफार्म पर से गुजराती हुयी एक और ट्रेन की तरह ही यथार्थ की एक और प्रस्तुति ......
    परन्तु इसे स्वीकार करने की मनः स्थिति में कोई भी माँ बाप नहीं है. क्या करे सपने हैं कि संतान से जुड़ ही जाते हैं और फिर उन सपनो का क्या जो आप जिससे जोड़ते हैं ...... उसकी सहमति के बिना ही ...... उनके टूटने का उत्तरदायित्व भी तो स्वयम ही वहन करना होगा

    शुभकामना

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  15. vayakti ka man chanchal hota hae jisme hajaro sakdo tufan utathe rahate hae AAPNE ACHCHA VARNAN KIYA HAE, BADHAI AAPKO!

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