
कोलकाता का साहित्यानुरागी समाज शायद सो गया है। सोया नहीं है तो निसंदेह अपनी सौजन्यता के समृद्ध पारम्परिक पथ से विमुख हो रहा है। धरती धोरां री और पाथळ र पीथळ जैसे अमर गीतों की रचना करने वाले, हिन्दी, राजस्थानी एवं उर्दू की 34 पुस्तकों के रचयिता महाकवि कन्हैयालाल सेठिया की श्रद्धांजलि सभाओं में उपस्थित लोगों की गिनती तो कमोबेश यही संकेत देती है। राजस्थानी समाज के प्रतिष्ठित कार्यक्रमों में कई दशकों तक सक्रिय रहने वाले सेठियाजी के महाप्रयाण को रोकना तो, माना, किसी के वश में नहीं था, पर उन्हें जागरूक समाज पूरी भावना से विदायी देता-यह तो वश में था। एक सप्ताह में अलग अलग स्थानों में सेठियाजी की दो सभाओं का आयोजन हुआ। दोनों सभाओं में मोट उपस्थिति गिनी जाए, तो 200 के आंकड़ों को पार नहीं कर पाएगी।
राजस्थान परिषद के साथ सेठियाजी का जुड़ाव उतना ही गहरा रहा, जितना उनकी अपनी रचनाधर्मिता से। इस परिषद के साथ वे वर्षों तक आत्मीय भाव से प्राण पुरुष के रूप में जुड़े रहे। पर लगता है, वर्तमान में परिषद की बागडोर संभालने वालों के मन में उनके योगदानों पर उत्साह कम, उदासीनता अधिक थी। आम तौर पर राजस्थान परिषद के आयोजनों में ओसवाल भवन के पूरे तल्ले में कुर्सियां लगाई जाती हैं, लेकिन सेठियाजी की शोकसभा में होने वाली उपस्थिति का अंदाजा इन्हें पहले से ही था, सो आधे हॉल को खाली छोड़ दिया गया। जितने में कुर्सियां बिछी थीं, उनमें भी कुछेक मेहमान को तरस रही थीं। राजस्थान परिषद की वार्षिक स्मारिका में प्रवासी राजस्थानियों की जितनी प्रतिनिधि ग्राम संस्थाओं के नाम प्रकाशित होते हैं, उनमें से कईयों के प्रतिनिधि नदारद थे। क्या यह इन संस्थाओं का सामाजिक कर्तव्य नहीं था कि जिन सेठियाजी ने अपना पूरा जीवन राजस्थान और राजस्थानी भाषा के लिए खपा दिया, उनके सम्मान में श्रद्धा के दो फूल चढ़ा आते? प्रतिनिधि संस्थाओं के साथ राजस्थान परिषद का कितना आन्तरिक सम्बन्ध है, यह इसी से उजागर होता है।
मंच पर अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन के निवर्तमान होने जा रहे महामंत्री मौजूद थे, जबकि अन्य पदाधिकारियों के पास फुर्सत नहीं थी। शायद सेठियाजी का आकलन लोग ऐसे ही करते हैं। सेठियाजी जन्मना सेठिया होकर भी आमजन के कल्याण के लिए सक्रिय रहे। हरिजनों के लिए खड़े हुए, पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा, राजस्थानी के लिए भूख हड़ताल पर बैठे, नेताओं से लोहा लिया। पर उन्हें प्रवासी राजस्थानी समाज ने इतनी जल्दी भुलाने का बीड़ा उठा लिया, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती।
राजस्थान परिषद चाहता तो इस शोकसभा को संकल्प सभा में तब्दील करवा सकता था। सेठियाजी के महाप्रयाण के साथ राजस्थानी को संविधान की मान्यता दिलाने का सपना खत्म नहीं हो गया है। परिषद के कर्णधारों से अपेक्षा है कि वे अब भी सकारात्मक सोच के साथ आगे आएं, ताकि राजस्थानियों की पहचान केवल लोटा-डोरी लेकर आने वालों के रूप में न रह जाए। सेठियाजी तो भाषा, संस्कृति और संस्कार लेकर आए थे। लोटा-डोरी वालों ने अर्थ का घड़ा भरा, पर सेठियाजी ने तो जीवन पर्यन्त साहस और स्वाभिमान का प्रसाद बांटा। जिस कोलकाता महानगर में राजस्थानी समाज की तमाम संस्थाओं के केंद्रीय कार्यालय हों, वहां राजस्थान के सदी के श्रेष्ठ कवियों में अग्रणी सेठियाजी के महाप्रयाण पर रूखी विदाई कई सवाल खड़ा करती है। जो समाज अपने साहित्यकारों को अपेक्षित सम्मान नहीं दे सकता, उसके पराभव को भला कौन रोक सकता है। पारिवारिक आयोजनों में सोने के बाजोट पर अनगिनत पकवान परोसने और दिखावा करने वालों से कोई अपेक्षा नहीं करता, पर जागरूक लोगों का रूखापन तो आंखों में आंसू लाता ही है।
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9 टिप्पणियाँ
आपके आकलन से सहमति है . हमारी छवि एक कृतघ्न समाज की बनती है .
जवाब देंहटाएंShameful, We dont give respect to our writers.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
जो समाज अपने साहित्यकारों को अपेक्षित सम्मान नहीं दे सकता, उसके पराभव को भला कौन रोक सकता है।
जवाब देंहटाएंआपकी इस बात से पूर्ण सहमति है
सच्चाई है कि हम अपने ही रचनाकारों का सम्मान नहीं करते। यह हमारी कृतघ्नता है।
जवाब देंहटाएंसोचने को बाध्य कर्ता है आलेख। हम अपने रचनाकारों साहित्यकारों का सम्मान नहीं करते यही कारण है कि हमारा साहित्य और सार्थक रचनाधर्मिता भी पतनोन्मुखी है।
जवाब देंहटाएंमाना की मेरी समाधि पर
जवाब देंहटाएंफूल न सही,
तेरी आँखों में आँसू तो है।
इस समाज में जब तक आप जैसे जागरूक पत्रकार होंगे इसकी लौ कभी बुझ नहीं सकती। -शम्भु चौधरी
जो समाज अपने साहित्यकारों को अपेक्षित सम्मान नहीं दे सकता, उसके पराभव को भला कौन रोक सकता है?
जवाब देंहटाएंलक्ष्मी के उपासक और सरस्वती के उपासकों में भेद होना ही है.
भाषा और साहित्य ही समाज का दर्पण है.. यदि इसके रचियता को हम सम्मान नहीं दे पाये तो समाज का ह्वांस निश्चित है.
जवाब देंहटाएंअब पर्दा क्या?
जवाब देंहटाएंयथार्थ नग्न हो गया।
प्रवीण पंडित
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