
अल्बर्ट, क्यों तुम इस तरह से अपने आप से नाराज़ हो और खुद को शराब में खत्म कर रहे हो। कितने बरस हो गये तुम्हें इस तरह से एक बेतरतीब, बेकार और अर्थहीन जिंदगी जीते हुए। तुम महीना महीना ऑफिस नहीं जाते। जाते भी हो तो पीये रहते हो। तुम्हारे ऑफिस वाले बता रहे थे कि तुम काम में एक्सपर्ट होने के बावजूद काम नहीं कर पाते क्योंकि न तो तुममें काम में ध्यान देने की ताकत रह गयी है और न ही तुम्हारा शरीर ही इस बात की इजाज़त देता है। तुम्हारे ऑफिस वाले इन सबके बावजूद तुम्हें नौकरी से नहीं निकालते। तरह तरह से काउंसलिंग करके, जुर्माने लगा कर और वार्निंग दे कर तुम्हें सही राह पर लाने की कोशिश करते रहते हैं। सिर्फ इसलिए कि तुम फुटबॉल के बहुत अच्छे खिलाड़ी रहे हो। काम में बहुत माहिर माने जाते रहे हो और फिर तुम्हें ये नौकरी खिलाड़ी होने की वजह से ही तो मिली थी। उन्हें विश्वास है कि तुम ज़रूर यीशू मसीह की शरण में लौट आओगे और फिर से अच्छा आदमी बनने की कोशिश करोगे। पर कहां। तुम जो जिंदगी जी रहे हो, तुमने कभी सोचा है कि तुम खुद के साथ और अपने बूढ़े पेरेंट्स के साथ कितना गलत कर रहे हो। हमारी बात तो खैर जाने दो। बहुत जी लिये हैं। रही सही भी किसी तरह कट ही जायेगी। पर कभी अपनी भी तो सोचो। इस तरह से कब तक चलेगा।
याद करो बेटा, तुमने कितना शानदार कैरियर शुरू किया था। किसी भी फील्ड में तुम पीछे नहीं रहे थे। पढ़ाई में तो हमेशा फर्स्ट आते ही थे, सभी स्पोर्ट्स में खूब हिस्सा लेते थे तुम। स्कूल और कॉलेज की फुटबॉल की टीम के हमेशा कैप्टन रहे। फिर गोवा की तरफ से खेलते रहे। तुम्हारी पर्फार्मेंस बेहतर होती गयी थी। तब हम सब कितने खुश हुए थे जब कुआलाम्पुर जाने वाली नेशनल टीम में तुम चुने गये थे। उस रात हम देर तक नाचते गाते रहे थे।
तुम्हारी टीम जीत कर आयी थी। जीत का गोल तुमने दागा था। तुम्हारी वापसी पर एक बार फिर हमने सेलिब्रेट किया था। हमने मदर मैरी को थैन्क्स कहा था कि तुम्हारा लाइफ कितने शानदार तरीके से शुरू होने जा रहा था। तभी तुम्हें स्पोर्ट्स कोटा में ये नौकरी मिल गयी थी और तुम बंबई आ गये थे। बस, बेटे तभी से तुम शराब के हो कर रह गये हो। तुमने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा है। पहले तुम बंबई में आपनी शामों का अकेलापन काटने के लिए पीते रहे। हमने बुरा नहीं माना। हमारी पूरी कम्यूनिटी पीती है। सेलिब्रेट करती है। और फिर हम तुम्हें साथ बिठा कर पिलाते रहे हैं, लेकिन एक लिमिट तक। पर शायद हमारी ही गलती रही। तुम तो रोज़ ही पीने लग गये थे। दिन में नौकरी या थोड़ी बहुत फुटबॉल और शाम को तुम अकेले ही पीने बैठ जाते थे। जब हमें पता चला था तो हमने यही समझा था कि नया नया शौक है, तुम खुद संभल जाओगे, लेकिन नहीं। तुम नहीं संभले तो नहीं ही संभले। हमने तुम्हारी मैरिज करानी चाही तो तुम हमेशा ये कह कर ही टालते रहे कि खुद तो होटल की डोरमैटरी में पड़ा हूं, फैमिली कहां रखूंगा।
बस, तब से सब कुछ हाथ से छूटता चला गया है। कितने बरस हो गये तुमसे ढंग से बात किये हुए। गोवा तुम कभी आते नहीं। तुम्हारी ममा तुम्हारे लिए कितना तो रोती है। अब तो बेचारी ढंग से चल फिर भी नहीं सकती। बेटे का सुख न उसने देखा है न मैंने।
तुम यकीन नहीं करोगे अल्बर्ट, उस समय मैं कितना टूट गया था जब तुम्हारे ऑफिस के लोगों ने हमें बताया कि तुम्हारी गैर हाजरी के कारण तुम्हारी पगार हर साल बढ़ने के बजाये कम कर दी जाती है। कोई ऐसा एंडवास या लोन नहीं जो तुमने न ले रखा हो। ऑफिस का कोई ऐसा बंदा नहीं जिसके तुमने सौ पचास रुपये न देने हों। और कि तुम कहीं भी पार्क में, रेलवे प्लेटफार्म पर या ऑफिस की सीढियों में ही सो जाते हो। सामान के नाम पर तुम्हारे पास टूथ ब्रश और दो फटे पुराने कपड़ों के अलावा कुछ भी नहीं। एक जोड़ा जो तुमने पहना होता है और दूसरा, तुम्हें ये फ्लैट मिलने तक तुम्हारी ड्रावर में रखा रहता था।
तुम्हारे सैक्शन ऑफिसर बता रहे थे कि तुम ढंग से जी सको, और अपनी पूरी पगार एक ही दिन में पीने में न उड़ा दो, इसके लिए उन्होंने तुम्हारी पगार एक साथ न देकर तुम्हें कुछ रुपये रोज देना शुरू किया था लेकिन कितने दिन। तुम तब से ऑफिस ही नहीं गये हो।
माय सन, शायद हमें ये दिन भी देखने थे। इस बुढ़ापे में तुम्हारी मदद मिलना तो दूर, हर बार कोई ऐसी खबर जरूर मिल जाती है कि हम शर्म के मारे सिर न उठा सकें। तुम्हारा पड़ोसी बता रहा था कि जब ऑफिस से सीनियरटी के हिसाब से तुम्हें ये फ्लैट मिला तो तुम्हारे पास फ्लैट की सफाई के लिए झाड़ू खरीदने तक के पैसे नहीं थे। सामान के नाम पर तुम्हारी मेज की ड्रावर में जो सामान रखा था, वही तुम एक थैली में भर कर ले आये थे। तुम्हारी लत ने तुम्हें यहां तक मजबूर किया कि तुम फ्लैट के पंखे तक बेचने के लिए किसी इलैक्ट्रिशियन को बुला लाये थे।
बेटे, तुम छोड़ क्यों नहीं देते ये सब . . . नौकरी भी। गोवा में हमारे साथ ही रहो। जैसे तैसे हम चला रहे हैं, तुम्हारे लिए भी निकाल ही लेंगे। हर बार तुम वादा करते हो, कसम खाते हो, दस बीस दिन ढंग से रहते भी हो, फिर तुम वही होते हो और तुम्हारी शराब होती है।
तुम्हारे ऑफिस वालों ने तुम्हारी मेडिकल रिपोर्ट दिखायी थी मुझे। गॉड विल हैल्प यू माय सन। तुम जरूर अच्छे हो जाओगे। छोड़ दो बेटे ये सब। तुम्हारी ममा तुम्हारी सेवा करके तुम्हें अच्छा कर देगी।
पिछले एक बरस में मैं चौथी बार बंबई आया हूं। पिछली बार की तरह इस बार भी तुम मुझे नहीं मिले हो। तुम्हारी ममा ने इस बार यही कह कर मुझे भेजा था कि तुम्हें साथ ले ही आऊं। पर तुम्हें ढूंढूं कहां। पिछले चार दिन से तुम्हारे घर और ऑफिस के चक्कर काट काट कर थक गया हूं। तुम्हारी तलाश में कहां कहां नहीं भटका हूं। तुम कहीं भी तो नहीं मिले हो।
अल्बर्ट, मैं थक गया हूं। तुम्हें समझा कर भी और तुम्हें तलाश करके भी। फिर कब आ पाऊंगा कह नहीं सकता। इन चार दिनों में भी होटल में, खाने पीने में और आने में कितना तो खर्चा हो गया है। चाह कर भी एक दिन भी और नहीं रुक सकता। वापसी के लायक ही पैसे बचे हैं।
ये खत मैं तुम्हारे दरवाजे के नीचे सरका करक जा रहा हूं। कभी लौटो अपने घर और होश में होवो तो ये खत पढ़ लेना। मैं तो तुम्हें अब क्या समझाऊं। तुम्हें अब यीशू मसीह ही समझायेंगे और ..
गॉड ब्लेस यू माय सन..।
15 टिप्पणियाँ
विवश पिता की कचोट का सुन्दर प्रस्तुतिकरण है आपकी लघुकथा में।
जवाब देंहटाएं"ये खत मैं तुम्हारे दरवाजे के नीचे सरका करक जा रहा हूं। कभी लौटो अपने घर और होश में होवो तो ये खत पढ़ लेना। मैं तो तुम्हें अब क्या समझाऊं। तुम्हें अब यीशू मसीह ही समझायेंगे और ..
जवाब देंहटाएंगॉड ब्लेस यू माय सन..।
PAINFUL..
Alok Kataria
एक आहत पिता के मन की बात आपने बखूबी अपनी रचना के माध्यम से प्रस्तुत कर दी..
जवाब देंहटाएंगाड ब्लेस यू... लिखते रहिये
अच्छी व्यथा-कथा है।
जवाब देंहटाएंकहानी बहुत अच्छी लगी। विवशता में किये गये आखिती प्रयास को बखूबी दर्शाया है आपने।
जवाब देंहटाएंलगता नहीं है कि किसी लेखक की पहली कहानी हो, पूर्ण परिपक्व है। अच्छा लगा पढना, धन्यवाद सूरजप्रकाश जी इस प्रस्तुति के लिये।
जवाब देंहटाएंसूरजप्रकाश जी नें अपने फरीदाबाद प्रवास में कहानी पर चर्चा के दौरान कहा था कि देर से लेखन आरंभ करने का मुझे यह फायदा हुआ कि मैने कच्चा लेखन नहीं किया। आपकी यह कहानी आपकी बात सत्यापित करती है। प्रभावी कहानी।
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावी कहानी है।
जवाब देंहटाएंये कहानी तो पुरी तरीके से चलती रही आँखों के सामने.. बहोत ही बढिया प्रस्तुति आपके द्वारा ..... बहोत खूब लिखा है आपने ... ढेरो बधाई आपको....
जवाब देंहटाएंअर्श
आपकी कहानियाँ सदा ही बहुत अच्छी लगी हैं...
जवाब देंहटाएंयह भी उतनी ही प्रभावशाली हैं...
बधाई
मार्मिक कहानी...
जवाब देंहटाएंजैसे पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैँ....वैसे ही सूरज जी की ये पहली कहानी पढने से ही उनके अन्दर छिपी लेखकीय प्रतिभा का पता चलता है।
aapne bahut accha likha hai .
जवाब देंहटाएंmain padhte padhte kahin kho gaya tha . zindagi ke apne rang hoten hai , is lagukatha ne aanken nam kar di.
ye lines bahut acchi hai
"ये खत मैं तुम्हारे दरवाजे के नीचे सरका करक जा रहा हूं। कभी लौटो अपने घर और होश में होवो तो ये खत पढ़ लेना। मैं तो तुम्हें अब क्या समझाऊं। तुम्हें अब यीशू मसीह ही समझायेंगे और ..
bahut bahut badhai
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
इसको कहते कहानी, जो ह्र्दय पर बैठ जाये... बहुत उत्तम रचना... बधाई...
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंsurajprakash ki 1984 meiN likhi iis laghu katha ke baarey mein jo sabhee kee raay wahi meri bhee raay hai.
जवाब देंहटाएंmarmikata liye huye ye kahani sach mein bahut acchi aur sateek hai.
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.