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कविता ही क्यों? [काव्यालोचना, स्तंभ - 2] - सुशील कुमार

नित्य बदलती इस दुनिया में जीवन विकास की पटरी पर चाहे कितना ही तेज क्यों न दौडे़, मनुष्य के अंतरतम में सौंदर्य-बोध और सुख-कामना की जो चिरकालीन , अदम्य प्यास लगी हुई है, वह कभी बदलती नहीं, न ही कम होती है । वह प्यास नैसर्गिक और व्यापक है । यही प्यास उससे बाहरी जगत में, और उसके आभ्यांतर में भी जो 'सु' है अर्थात सुन्दर है, उसको ढूंढवाती है । परंतु इस संसार में जो बाहरी सौंदर्य है,वह मनुष्य की सौंदर्य-कामना को पूर्ण नहीं कर पाता । संसार में हर जगह छ्ल-छ्द्म, ढोंग-प्रदर्शन, लूट-खसोट, दंभ-अहंकार और उत्पीड़न का कारोबार चल रहा है । ऐसे में सौंदर्य का कोई रास्ता नज़र नहीं आता । विकल्प बनते हैं भी तो टिक नहीं पाते, तब कविता ही इसका सही विकल्प बनती है क्योंकि इसके भीतर आत्मिक सौंदर्य का जो संसार रचा-बसा है,वह हमारे तन-मन को सुकुन देता है। वस्तुत: कविता हमारे भीतर एक ऐसा 'स्पेस' रचती है जहां हम विश्राम कर सकते हैं और थोडी़ देर ठहरकर सही दिशा में सोच भी सकते हैं । वह मन को सच्चाई के निकट लाती है , ऐसी सच्चाई जो व्यक्ति के आस-पास की दुनिया में प्राय: गोचर नहीं होती । वह बाज़ार के बाहर की जगह है और ध्यान देने की बात यह है कि ऐसी जगह लगातार छोटी होती जा रही है जो बाजार के बाहर हो और मनुज का निज एकांत हो ।

'रैप और पॉप' की इस चकाचौंध दुनिया में कविता की अनुगूंजें क्षीण होती जा रही है, पर इस क्षणिक कर्णप्रियता और मादकता के बीच , नहीं भूलना चाहिए कि कविता हमेशा के लिये है । इसलिये कविता की प्रासंगिकता सदैव बनी रहेगी और अपनी बात खुलकर कहती रहेगी क्योंकि कविता हर क्षण हमें मनुष्य बने रहने की सीख देती है।

कविता का स्वरुप ही सत्य की खोज और उसकी प्रतिष्ठा से बनती है । वह मनुष्य के जीवन और प्रकृति के भावपूर्ण संसार का लेखा-जोखा रखती है । संवेदनाओं के जगत का अगर कहीं सही हिसाब है तो कविताओं के यहां ! वह लोक-हृदय का सही पता बतलाती है ।

"कविता और साहित्य जिस भूमि पर काम करती है , वह जीवन के भावनात्मक सत्य के कोमल,कठोर, उर्वर, उदार और व्यापक पहलूओं से बनती है । हमारा यह संबंध और संघर्षमय संसार मनोंभावों और मनोविकारों की क्रिया-प्रतिक्रियाओं से ही अपना रुप ग्रहण करता है जिसमें कविता का हस्तक्षेप सत्य के स्तर पर होता है । वह राजसी और तामसी मनोभावों से टकराती हुई सात्विकता का निर्देश करती है । " -अगर कविता के विज्ञ समालोचक डा. जीवन सिंह के इस विचार का कोई मंथन करे तो वह कविताओं के सहज स्वरुप, उसकी प्रकृति और मानव-मन से उसकी अंतरंगता के कारण को साफ़-साफ़ समझ जायेगा । संभवत: यही वह कारक है जिसके चलते कठिन से कठिन समय में भी कविता जीवित और जीवंत रहेगी और सतत उत्तर-आधुनिक हो रही पीढ़ियों की मनुष्यता को सभ्यता की कुरुपता और विरुपण से बचा पायेंगी क्योंकि पश्चिम से जो विचार और व्यवहार, विकास - गतिशीलता और उदारीकरण के मुखौटे ओढे़ हमारी संस्कृति की दहलीज लांघकर हममें समा रहे हैं , उनमें नव-उपनिवेशवाद की 'बू' है जो हमारी देशज और प्राकृतिक विरासत को नष्ट कर देने पर तुला है , (इन नष्टप्राय होती चीजों में कविता भी शामिल है ) और एक गुलामी से निकलकर दूसरे गुलामी की ओर हमारे गमन का मार्ग खोल रहा है क्योंकि वे आदमी के काव्यात्मक तरीके से सोचने की संपूर्ण प्रक्रिया को ही उजाड़ देना चाहते हैं।

अस्तु,कविता हमेशा इस संवेदनहीनता के विरोध में खडी़ है । वह इस जीवन के समानांतर एक अलग , विलक्षण और सुंदर संसार रचती है जिसमें विचारों को बचाने की, जीवन की अच्छाईयों को अक्षुण्ण रखने की ताक़त है जो उन शब्दों से ग्रहण करती है जो समाज के श्रमशील -पवित्र श्वांसों से निस्सरित होता है , सक्रिय होकर सच्चाई को प्रतिष्ठित करता है और मनुष्यता की संस्कृति रचता है। झूठ को जीवन से विलगाता है एवं अन्याय,शोषण और उत्पीड़न से प्रतिवाद करता है। इसलिये अत्यंत दुरुह और जटिल होते इस समय में कोई बच सका तो थोडा़-सा वही बच पायेगा जो उस मन और हृदय के साथ हो जिसमें कविता के लिये भी थोडी़ - सी जगह अशेष हो ।

कविता में सबसे बडी़ शक्ति है व्यंजना की, उन ध्वनियों की जो कविता में प्रयुक्त शब्दों में अंतर्निहित होती है । यह ताक़त तो साहित्य की अन्य विधाओं के पास भी नहीं है । वैसे विधाओं में आपसी मतभेद नहीं होता । फ़िर भी मानव जीवन में कविता के शब्दकर्म की उपादेयता स्वयंसिद्ध है ।
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18 टिप्पणियाँ

  1. बहुत सही कहा आपने। कविता की उपादेयता पर आपकी यह बड़ी सारगर्भित,संयत और गंभीर आलोचना है।हर कविता-पारखी को चित्त देकर इसे पढ़नी चाहिये। -अशोक सिंह,जनमत शोध संस्थान,दुमका।

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  2. कविता की क्यों के इस विशोलेषण में आपनें कविता क्या है जैसी जिज्ञासा का भी उत्तर दिया है। बहुत अच्छा आलेख है।

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  3. " रैप और पॉप' की इस चकाचौंध दुनिया में कविता की अनुगूंजें क्षीण होती जा रही है, पर इस क्षणिक कर्णप्रियता और मादकता के बीच , नहीं भूलना चाहिए कि कविता हमेशा के लिये है ।"

    सहमत हूँ आपसे।

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  4. कविता का स्वरुप ही सत्य की खोज और उसकी प्रतिष्ठा से बनती है । वह मनुष्य के जीवन और प्रकृति के भावपूर्ण संसार का लेखा-जोखा रखती है । संवेदनाओं के जगत का अगर कहीं सही हिसाब है तो कविताओं के यहां ! वह लोक-हृदय का सही पता बतलाती है।....bahut sargarbhit aur tatvik vichar hain.

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  5. कविता और साहित्य जिस भूमि पर काम करती है , वह जीवन के भावनात्मक सत्य के कोमल,कठोर, उर्वर, उदार और व्यापक पहलूओं से बनती है । हमारा यह संबंध और संघर्षमय संसार मनोंभावों और मनोविकारों की क्रिया-प्रतिक्रियाओं से ही अपना रुप ग्रहण करता है जिसमें कविता का हस्तक्षेप सत्य के स्तर पर होता है । वह राजसी और तामसी मनोभावों से टकराती हुई सात्विकता का निर्देश करती है ।

    गूढ लेखन है। आपका यह स्तंभ महत्वपूर्ण है।

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  6. काव्य और आलोचना दोनों ही को समझने का स्तंभ है यह।

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  7. SAARGABHIT LEKH KE LIYE SHRI SHUSHIL KUMAR KO BADHAAEE

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  8. अब तक मात्र इतनी ही टिप्पणियाँ,इतना बुरा है यह! हाँ भई हाँ, यह शेयर बाज़ार का कोई सन्सेक्स थोड़े ही है !! अब तो मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि कविता बाज़ार के बाहर की जगह है जहाँ ठहर पाना केवल उसी मन और हृदय में ही संभव है जो इस दुनिया से हटकर उस दुनिया के बारे में भी क्षण भर को ही सही, सोचने के लिये भी बेचैन हो जहाँ थकान के वाद विश्रांति के झूले पड़े हो।.. जी हाँ ,ऐसी स्पेस केवल कविता ही रच सकती है आपके-हमारे भीतर।

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  9. सुशील जी

    टिप्‍पणियों की गिनती पर मत जाइये

    गिनती कम ज्‍यादा हो सकती है

    पर यह कोई पैमाना नहीं है

    कि क्‍या अच्‍छा है, क्‍या बुरा है

    आप जानते ही होंगे कि

    बुराई जल्‍दी फैलती है

    और अच्‍छाई का पता भी नहीं चलता है

    इसलिए बिना हुए परेशान

    आप अपना लेखन जारी रखिए

    जो आप बतला रहे हैं

    वो बतलाना सबके बस का नहीं है

    पर समझ सब सकते हैं और

    इसी में आपके लेखन की सार्थकता है

    आप वो बतला पा रहे हैं

    जो सब जानना चाह रहे हैं

    बल्कि जानते भी होंगे थोड़ा बहुत

    परन्‍तु उसे व्‍यक्‍त नहीं कर पाते हैं

    तो इस अर्थ में आप दिव्‍य शक्तियों के स्‍वामी हैं

    आपके लेखन की, विचारों की सदा

    इंतजार रहती है, पढ़ते भी हैं हम

    पर अगर टिप्‍पणी नहीं कर पाते हैं तो

    इसे आप अन्‍यथा न लें।

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  10. " इसलिये कविता की प्रासंगिकता सदैव बनी रहेगी और अपनी बात खुलकर कहती रहेगी क्योंकि कविता हर क्षण हमें मनुष्य बने रहने की सीख देती है।"
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    सुशील जी ,
    नमस्कार!
    आपने कविता और समाज पर उसाके प्रभावोँ की निकटता पर बहुत सार गर्भित आलेख लिखा है उसके लिये अनेकोँ धन्यवाद सहित,

    स स्नेह,
    - लावण्या

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  11. अविनाश जी, मैं अन्यथा नहीं ले रहा पर सच तो लिखना ही पड़ता है। लावण्या साह जी की प्रतिक्रिया पर धन्यवाद।- सुशील।

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  12. वैसे तो आलेख अच्छा है पर आप कुछ मामलों मे उलझाते है। अब पश्चिम से विचारो के आयात वाला मामला।
    ये अजीब सी समझ है की जो पूर्वी है सब श्रेष्ठ और जो पश्चिम से आया सब बेकार्। अब मै उस मार्क्स से प्रेरणा ग्रहण करता हू जो कहता था ...more u have,less u are या ग्राम्सी से जो बुद्धिजीवियों को जनता की आवाज बनने की बात करता था या फ़िर अमेरिकी साम्राज्यवाद के सबसे कट्टर आलोचक नोम चोम्स्की से…तो क्या इन्हे सिर्फ़ इसलिये छोड दिया जाना चाहिये कि ये हमारे देसज नही? क्या विचार ग्लोबल नही होते? और पाप तथा जैज़ की तरह क्या हमारा अपना शाष्त्रिय सन्गीत बाज़ार का गुलाम नही? बता दू रैप तो मज़दूरो द्वारा खदानो मे काम करते हुए पैदा किया गया था!
    दरअसल कविता तभी बचेगी जब वह कविता से बाहर की यात्रा करेगी…उसे अपने जीवन्द्र्व्य समाज से ढूढने होन्गे। वरना कविता के जीवित रहने का आशावाद एक आध्यात्मिक नियतिवाद से ज़्यादा कुछ नही। सवाल यही नही कि कविता बचेगी सवाल यह भी है कि कॉन सी कविता बचेगी?

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  13. बिलम्ब से टिप्पणी करने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ... नेट साथ नही दे रहा था...
    आपने बहुत सही विश्लेषण किया है... मानवीय भावनाओं को प्रेषित करने का कविता ही सबसे प्रभावशाली व संक्षेप अस्त्र है

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  14. aakpa lekh padkar kuch nayi baaten pata chali .. aur sochta hoon ki inka prayog karun..

    aapko bahut badhai ..

    vijay
    poemsofvijay.blogspot.com

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