
प्राण शर्मा जी ग़ज़ल विधा के जाने-माने उस्तादों में गिने जाते हैं। साहित्य शिल्पी पर ग़ज़ल पर स्तंभ आरंभ होने के पश्चात इसके शिल्प, संरचना और भाषा पर कई प्रश्न उठे। हिन्दी और उर्दू की कशमकश में उलझी इस पहेली को प्राण जी नें प्रस्तुत आलेख में बखूबी सुलझाया है। अगले तीन सोमवार भी हम इस विधा पर प्राण शर्मा जी के विचारों से अवगत होंगे और इस विधा को गहराई से जानने का यत्न करेंगे। पाठकों से अनुरोध है कि वे अपने प्रश्न, शंका तथा विचार अपनी टिप्पणी में प्रस्तुत कर दें ताकि उन पर विस्तृत चर्चा आगामी अंकों में की जा सके। [सतपाल ख्याल जी के प्रस्तुत पूर्व के दो अंक साहित्य-शिल्पी पर दाहिने हाथ पर बनी पट्टिका में बने बटन पर चटखा लगा कर पढे जा सकते हैं]
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उर्दू ग़ज़ल का नाम ज़बान पर आते ही उसके उत्थान का इतिहास आँखों में उभरने लगता है। उन महान ग़ज़लकारों की छवियाँ मानस में तैरने लगतीं हैं जो गागर में सागर भरने की ग़ज़ल विधा को चरमोत्कर्ष पर पहुँचा गये। अमीर खुसरो, वली मुहम्मद वली, दर्द, मीर, जौक़, ग़ालिब, ज़फ़र, इ़कबाल, चकबस्त, हसरत मोहानी, अकबर इलाहाबादी, मोमिन, आगाहश्र काश्मीरी, आतिश, सौदा, राम प्रसाद बिस्मिल, ह़फी़ज जालंधरी, जोश मलीहाबादी, जिगर मुरादाबादी, फिरा़क गोरखपुरी, फै़ज अहमद फै़ज, हरीचंद अख्तर, जोश मलसियानी, मेलाराम वफा, शकील बदायूँनी, साहिर लुधियानवी आदि सैकड़ों उर्दू-ग़जलकारों ने भावों के ऐसे मनोरम रंग-बिरंगे पुष्प खिलाए कि उनकी भीनी-भीनी सुगंध यहाँ-वहाँ हर तरफ फैली।
इन लोगों ने भाषा की ऐसी निर्मल सरिता बहाई जिसका प्रवाह सबको लुभा गया। संगीत का ऐसा जादू बहाया जो सरों पर चढ़कर बोला। दिलों को स्पर्श करने वाली ऐसी ग़ज़लों की रचना की जो छंदबद्ध होने के साथ-साथ मौलिकता, स्वाभाविकता, स्पष्टता और सुंदरता की अनूठी छटा लिए हुए थी। उन्होंने ग़जल को चार चाँद लगाए और उसे उर्दू शायरी की केन्द्रीय विधा के रूप में निविर्वाद रूप से स्थापित किया। उनका करिश्मा ही था कि गज़ल का बोलबाला हुआ। चारों ओर उसका डंका बजा। रिक्शावाला, तांगावाला, बसवाला, अमीर-गरीब, नवाब-खादिम प्रायः हर कोई इसकी ताज़गी, शाइस्तगी और तासीर से प्रभावित हुए बिना न रह सका। अपनी लोकप्रियता के कारण गज़ल ने कभी नात के रूप में पीर-पैगम्बर की शान में गाई जाने का, कभी कोठों पर पायलों की झंकार के साथ गूँजने का और कभी मुशायरों में लोगों की वाहवाही लूटने का कमाल हासिल किया।
अच्छी ग़जल के लिए कुछ विशेषताएं होती हैं। इन पर समय के साथ के चलते हुए विशेषज्ञता हासिल की जाए तो उम्दा ग़ज़ल कही जा सकती हैं। साथ ही इनका अभाव हो तो ग़ज़ल अपना प्रभाव खो देती है या ज्यादा लोकिप्रय नहीं हो पाती। यहाँ इन विशेषताओं की विस्तृत चर्चा करेंगे।
विषयों की व्यापकता
अपने प्रारंभिक दौर में उर्दू गज़ल में श्रंगार के दोनों पक्षों संयोग-वियोग का ही वर्णन रहता था लेकिन बाद में उसमें परिवर्तन आया। उसमें उपदेश, नीति, चिंतन और देश-प्रेम की बातों का ज़िक्र किया जाने लगा। उर्दू गज़लकार जो कभी रूप-सौंदर्य और प्रेम की बातें करने से थकता नहीं था वो 'और भी दुःख है ज़माने में मुहब्बत के सिवा' की बोली बोलने लगा। उसने गज़ल को राष्ट्रीय और सामाजिक चेतना का चोला पहनाया।
अपने प्रारंभिक दौर में उर्दू गज़ल में श्रंगार के दोनों पक्षों संयोग-वियोग का ही वर्णन रहता था लेकिन बाद में उसमें परिवर्तन आया। उसमें उपदेश, नीति, चिंतन और देश-प्रेम की बातों का ज़िक्र किया जाने लगा। उर्दू गज़लकार जो कभी रूप-सौंदर्य और प्रेम की बातें करने से थकता नहीं था वो 'और भी दुःख है ज़माने में मुहब्बत के सिवा' की बोली बोलने लगा। उसने गज़ल को राष्ट्रीय और सामाजिक चेतना का चोला पहनाया। गज़ल केवल नाज़ और अंदाज़ की ही मोहताज नहीं रह गई। वह देश-प्रेम, भाई-चारा और सामाजिकता के भावों के झूले में झूलने लगी और निम्नलिखित शेरों के साथ गूँज उठी।
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलिस्तां हमारा
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा - इकबाल
ये नग़मा सराई है कि दौलत की है तकसीम
इन्सान को इन्सान का गम बाँट रहा हूं। - फिराक
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं
देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में हैं
वक्त आने दे बताएंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है। - राम प्रसाद बिस्मिल
आज की उर्दू गज़ल जीवन की हर समस्या से सम्बद्ध है। अब उर्दू गज़लकार सामाजिक, राजनीतिक और धामिर्क विसंगतियों पर खुल कर प्रहार करता है। वह कामिनी के रूप-सौंदर्य पर इतना आकर्षित नहीं जितना भ्रष्ट समाज से दुखी है। वह ऊँच-नीच, भ्रष्टाचार शोषण, सांप्रदायिक संकीर्णता से उद्विग्न है इसलिए आज के दौर की उर्दू गज़ल में निराशा, आक्रोष, असंतोष और विद्रोह के स्वर अधिक सुनाई देते हैं। पढ़िये कुछ शेर-
दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की
लोगों ने मेरे जेहन में रस्ते बना लिए- सिब्ते अली शमीम
बियांबा में कलियाँ झुलसती रही
समंदर पर बरसात होती रही - साहिर होशियारपुरी
ईंटें उनके सर के नीचे
ईंटें उनके हाथों पर
ऊंचे महल बनाने वाले
सोते हैं फुटपाथों पर - कृष्ण मोहन
घर लौट के माँ-बाप रोएंगे अकेले में
मिट्टी के खिलौने भी सस्ते न थे मेले में - कैसर उल ज़ाफ़री
भाषा की रवानी
उर्दू गज़ल ने भारत की लगभग हर भाषा पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, मैथिलीशरण गुप्त आदि कवियों ने गज़लें लिखीं। हरिकृष्ण 'प्रेमी' उर्दूनुमा गीत लेकर आए। पिछले चार दशकों से हिन्दी में अनगिनत गज़लकार पैदा हुए हैं। हिन्दी के इन गज़लकारों की सूची बड़ी लंबी है। रामदरश मिश्र, महावीर शर्मा, उदयभानु हंस, बालस्वरूप राही, सोहन राही, बलबीर सिंह रंग, राम अवतार त्यागी, गोपाल दास नीरज, शंभु नाथ शेष, शेरज़ंग गर्ग, लक्ष्मण दुबे, रमा सिंह, विनोद तिवारी, चन्द्रसेन विराट, हस्तीमल हस्ती, अदम गौंडवी, कुँअर बेचैन, जानकी प्रसाद शर्मा, ज़हीर क़ुरैशी, रामकुमार कृषक, शिवओम अंबर, उर्मिलेश, ज्ञानप्रकाश विवेक, अशोक अंज़ुम, महेश अनघ, उषा राजे सक्सेना, देवी नांगरानी, दीक्षित दनकौरी, देवमणि पांडेय, तेजेन्द्र शर्मा, गौतम सचदेव, द्विजेन्द्र द्विज, सतपाल ख्याल आदि अनेक अच्छे गज़लकार हैं जिन्होंने अच्छे अशआर लिखे हैं लेकिन सच्चाई यह है कि हिन्दी गज़ल की पहचान उर्दू गज़ल जैसी अभी तक नहीं बन पाई है।
किसी भी विधा को उत्कर्ष तक पहुँचाने के लिए चार दशक कम नहीं होते। वास्तव में बहर की अनभिज्ञता, कथ्य की अस्पष्टता आदि के अलावा उर्दू ज़बान का हिन्दी गज़ल पर हावी होना उसके स्वरूप के निखार में बाधक है। हिन्दी की अनेक गज़लें तो लगती हैं जैसे वे उसकी हैं ही नहीं, वे अपनी सोंधी-सोंधी सुगंध से जैसे वंचित हो। 'कुल्फ़', 'नासेह', 'खलवत', 'बेदादगर', 'जुल्फ़ेशाम,' 'सोजे दरू', 'ज़िबह' आदि अरबी-फारसी के लफ्जों से दब कर रह गई है। उनमें गुड़ और पानी की तरह घुलमिल गए उर्दू के लफ्ज़ों का इस्तेमाल होता तो भी कुछ बात बनती। चूँकि गज़ल उर्दू से हिन्दी में आई है इसलिए यह मान कर चलना कि जब तक उसमें उर्दू के लफ्ज़ फिट न हो तब तक वह गज़ल नहीं लगती है, सरासर असंगत है।
ग़ज़ल लिखने का यह मतलब नहीं है कि उर्दू के शब्दकोष को ही आयात कर लें। माना उर्दू और हिन्दी के बोल-चाल के शब्दों का दोनों भाषाओं के बीच आदान-प्रदान हो रहा है लेकिन इस बात से मुँह नहीं फेरा जा सकता है कि दोनों भाषाओं में गहरा अंतर भी है। फ़ारसी या उर्दू के मुश्किल अल्फ़ाज़ हिन्दी के साथ लिखने या संस्कृत और हिन्दी के क्लिष्ट शब्दों को उर्दू के साथ लिखना शायरी के सौंदर्य में बाधा खड़ी कर सकता है। 'उपवन में नसीम बह रही है' या 'गुलशन में बयार बह रही है।' लिखना कितना हास्यास्पद लगता है।
ग़ज़ल लिखने का यह मतलब नहीं है कि उर्दू के शब्दकोष को ही आयात कर लें। माना उर्दू और हिन्दी के बोल-चाल के शब्दों का दोनों भाषाओं के बीच आदान-प्रदान हो रहा है लेकिन इस बात से मुँह नहीं फेरा जा सकता है कि दोनों भाषाओं में गहरा अंतर भी है। फ़ारसी या उर्दू के मुश्किल अल्फ़ाज़ हिन्दी के साथ लिखने या संस्कृत और हिन्दी के क्लिष्ट शब्दों को उर्दू के साथ लिखना शायरी के सौंदर्य में बाधा खड़ी कर सकता है। 'उपवन में नसीम बह रही है' या 'गुलशन में बयार बह रही है।' लिखना कितना हास्यास्पद लगता है। हिंदी के कुछ गज़लकार उर्दू जबान से अपिरिचत होने पर भी हिन्दी गज़ल में फैशन के तौर पर उर्दू के मुश्किल लफ्जों का प्रयोग करते हैं। जिन उर्दू के लफ्जों को उर्दू वाले समझने में असमर्थ हैं, उनको हिन्दी भाषी लोग क्या समझेंगे? उर्दू के वही लफ्ज हिन्दी गज़ल में लेने चाहिए जो उसमें खप सकें, उसकी सुंदरता को चार चाँद लगा सकें और सोने में सुहागा की उक्ति को चरितार्थ कर सकें।
हिन्दी गज़लकार को लोगों के दिलो में घर करने के लिए गज़ल लिखते समय फ़ारसी, संस्कृत, हिन्दी और उर्दू के क्लिष्ट शब्दों से गुरेज़ करना चाहिए। सबकी समझ में आनेवाले शब्दों का इस्तेमाल वह करे तो हिंदी गज़ल के लिए बेहतर होगा। मोटे अक्षरों में लिखे शब्दों पर ध्यान दें, क्या आम पाठक निम्नलिखित अशआर के अर्थ समझने में समर्थ हैं? यदि नही तो ऐसे कठिन शब्दों को गज़ल में इस्तेमाल करने का लाभ क्या?
तहज़ीबो तमद्दुन है फ़कत नाम के लिए
गुम हो गई शाइस्तगी दुनिया की भीड़ में - कुँवर कुसुमेश
अज़्म को मेरे समझता ये ज़माना कैसे
जर की मीज़ान पे तुलती है हर औकात यहाँ - ख्वाब अकबराबादी
मूल्य मानव के स्वखलित पशुवृत्तियों के सामने
अब हृदय पर सिर्फ पैसों का हुनर हावी हुआ है - चन्द्रसेन विराट
हिंदी का शब्द कोश बड़ा विशाल है। उसमें हज़ारों ऐसे कर्णप्रिय सरल व सुगम शब्द हैं जो हिंदी गज़ल (गज़ल को अलग से हिंदी गज़ल कहना उपयुक्त नहीं। गज़ल से पहले हिंदी लिखने का मेरा अभिप्राय यही है कि उसको लिखने वाला हिंदी भाषी है। वैसे भी जब कोई कवि मंच से कोई गज़ल पढ़ता है तो वह यह नहीं कहता है कि वह हिंदी गज़ल सुनाने जा रहा है।) के स्वरूप को सौंदर्य प्रदान करने में समर्थ हैं। सरल, सुगम एवं कर्णप्रिय शब्दों में यदि हिंदी गज़ल लिखी जाएगी तो प्रश्न पैदा ही नहीं होता है कि वह जन-मानस को न मथ सकें। यदि गज़ल में सवर्साधारण के समझ में आने वाले कर्णप्रिय मधुर शब्द आएंगे तो वह न केवल अपनी भीनी-भीनी सुगंध से जनमानस को महकाएगी बल्कि अपनी अलग पहचान भी बनाएगी।
संगीत से संबंध
गज़ल का संगीत से गहरा संबंध है। हिंदी काव्य तो सदा से ही संगीत प्रधान रहा है। तुलसी की चौपाई हो या सूर या मीरा के पद- उनमें संगीत का निर्झर नाना धाराओं में बह रहा है और वही संगीत का निर्झर नाना धाराओं में हिंदी गज़ल में बह सकता है। उर्दू गज़ल की तरह हिंदी गज़ल को भी प्रभावशाली बनाया जा सकता है। कठिन काम नहीं है। इसके लिए हिंदी गज़लकार को अपने आपको तैयार करना होगा। फ़ारसी और संस्कृत या उर्दू और हिंदी के क्लिष्ट शब्दों का मोह त्यागना होगा। हिंदी गज़ल को लोकप्रिय बनाने के लिए उसको बोलचाल या देशज शब्दावली को चुनना होगा, जटिल गज़ल की वकालत को छोड़ना होगा। कबीर, तुलसी, सूर, मीरा आदि के असंख्य पद सुनते ही समझ आ जाते हैं, जो सैकड़ों साल बीत जाने पर भी जन मानस में रचे-बसे हैं।
ग़ज़ल की सादगी के बारे में एक अज्ञात शायर ने कहा था, "गज़ल के अशआर ऐसे हों जिनको सुनते ही श्रोता यह सोचे कि वैसे अशआर तो वह भी आसानी से लिख सकता है लेकिन जब वह लिखने बैठे तो लिख न सके"। बोलचाल के शब्दों में 'देखन में छोटी लगे घाव करे गंभीर' पंक्तियाँ लिखना कितना दुष्कर कार्य है, यह केवल लिखनेवाला ही जानता है। 'अब वो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे, मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे' या 'तेरा मिलना खुशी की बात सही, तुझसे मिल कर उदास रहता हूँ।' जैसे अशआर सुनने वाले के दिल पर तुरंत असर करते हैं।
ग़ज़ल की सादगी के बारे में एक अज्ञात शायर ने कहा था, "गज़ल के अशआर ऐसे हों जिनको सुनते ही श्रोता यह सोचे कि वैसे अशआर तो वह भी आसानी से लिख सकता है लेकिन जब वह लिखने बैठे तो लिख न सके"। बोलचाल के शब्दों में 'देखन में छोटी लगे घाव करे गंभीर' पंक्तियाँ लिखना कितना दुष्कर कार्य है, यह केवल लिखनेवाला ही जानता है। 'अब वो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे, मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे' या 'तेरा मिलना खुशी की बात सही, तुझसे मिल कर उदास रहता हूँ।' जैसे अशआर सुनने वाले के दिल पर तुरंत असर करते हैं।
यहाँ यह बतलाना आवश्यक है कि गज़ल के मतला (प्रारंभिक शेर) और दोहा में कोई मूल अंतर नहीं है। यदि अंतर कोई है तो यही कि मतला कई बहरों में लिखा जाता है और दोहा एक छंद में ही। मतला और दोहा दोनों ही दो मिसरों (पंक्तियों) से बनते हैं और गंभीर से गंभीर विचार को समेट लेने में सक्षम हैं। यदि हिंदी में दोहा लिखा जा सकता है तो गज़ल क्यों नहीं लिखी जा सकती है? साहिर लुधियानवी और जाँ निसार अख्तर की निम्नलिखित गज़लें सवर्श्रेष्ठ हिंदी ग़ज़लों में से हैः-
संसार से भागे फिरते हो संसार को तुम क्या पाओगे।
इस लोक को भी अपना न सके उस लोक को में भी पछताओगे।
ये पाप है क्या ये पुण्य है क्या रीतों पर धर्म की मोहरें हैं
हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे।
ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारो क्या जानो
अपमान रचयिता का होगा रचना को अगर ठुकराओगे।
हम कहते हैं ये जग अपना है तुम कहते हो झूठा सपना है
हम जन्म बिता कर जाएंगे तुम जन्म गँवाकर जाओगे। - साहिर लुधियानवी
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एक तो नैना कजरारे और तिस पर डूबे काजल में।
बिजली की बढ़ जाए चमक कुछ और भी गहरे बादल में।
आज ज़रा ललचाई नज़र से उसको बस क्या देख लिया
पग-पग उसके दिल की धड़कन उतरी जाए पायल में।
गोरी इस संसार में मुझको ऐसा तेरा रूप लगे
जैसे कोई दीप जला हो घोर अंधेरे जंगल में।
प्यार की यूँ हर बूँद जला दी मैंने अपने सीने में
जैसे कोई जलती माचिस डाल दे पीकर बोतल में। - जाँ निसार अख्तर
आजकल हिंदी के सभी छोटे-बड़े कवि गज़ल रूपी सागर में हाथ-पाँव मार रहे हैं और मोती ढूँढने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन मोती हाथ कैसे लगे जबकि गहराई तक पहुँचने की कला को सीखने का यत्न कोई नहीं करता है। अरबी-फ़ारसी के लफ्ज हिंदी गज़ल में इस्तमाल करने का मोह तो प्रायः सबमें है लेकिन गज़ल की विशेषताओं को अपनाने से वे दूर भागते हैं। इसलिए कुछ लोगों की यह धारणा निर्मूल नहीं लगती है कि हिंदी गज़ल में वह असर नहीं है जो उर्दू गज़ल में है।
कविवर रामधारी सिंह दिनकर ने अपने लेख 'हिंदी कविता पर अशक्तता का दोष (१९३८ में बेतिया कवि-सम्मेलन के अध्यक्ष पद से दिया गया अभिभाषण) में उर्दू शायरी की प्रशंसा करते हुए हिन्दी कविता की लोकप्रियता पर प्रश्नचिन्ह लगाया था 'क्या कारण है कि हमारी जनता की जबान पर हिंदी की अपेक्षा उर्दू की पंक्तियाँ अधिक आसानी से चढ़ जाती है? क्या बात है कि हमारे युग के प्रतिनिधि कवियों के ग्रंथ जनता में वह लहर और उत्साह पैदा नहीं करते हैं जिसके साथ इकबाल और जोश की प्रत्येक कविता उर्दू जगत में सत्कार पाती रही है?'
लगन और परिश्रम
उर्दू शायरी की परंपरा है कि शागिर्द उस्ताद से पूरा फ़ायदा उठाता है। बहरों पर अधिकार करना सीखता है। अपनी ज़बान दुरुस्त करता है, उसमें निखार लाता है। सहज और सरल गज़ल कहने का गुर सीखता है। लेकिन हिंदी गज़लकार को गुरू-शिष्य का परम्परागत बंधन स्वीकार नहीं है। गुरू-शिष्य का संबंध संगीत या अन्य कलाओं में तो है लेकिन हिंदी कविता में नहीं। हिंदी कवि स्वयं ही गुरू है और स्वयं ही शिष्य है। महान और जन्मजात कवि है। सीखने से तो उसके अहम को ठेस पहुँचती है क्यों कि यह उसकी प्रकृति, उसके स्वभाव के अनुकूल नहीं है। इसके बावजूद हिंदी गज़ल की छवि इतनी धूमिल भी नहीं है कि उसे नकार दिया जाए। कुछ उल्लेखनीय अशआर है-
सब वक्त की बातें हैं सब खेल है किस्मत का
बिंध जाए सो मोती है रह जाए सो दाना है - रामप्रसाद बिस्मिल
मेरे घर कोई खुशी आती तो कैसे आती
उम्र भर साथ रहा दर्द महाजन की तरह - गोपालदास नीरज
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए - दुष्यंत कुमार
तूने कैसे जान लिया मैं भूल गया,
रिश्तों का इतिहास है मेरी आँखों में - सोहन राही
मेरे हाथों की गरमी से कही मुरझा न जाए वो
इसी डर से मै नाज़ुक फूल को छू कर नहीं आया - उषा राजे सक्सेना
हिली न शाख कोई और न पत्तियाँ काँपी
हवा गु़जर गई यूँ भी कभी-कभी यारों - देवमणि पांडे
पहाड़ों पर चढ़े तो हाँफना था लाज़मी लेकिन
उतरते वक्त भी देखी कई दुश्वारियां हमने - ज्ञान प्रकाश विवेक
घर अपने कई होंगे कोठों की तरह लेकिन
कोठों के मुकद्दर में घर अपने नहीं होते - मंगल नसीम
आज दस्तक भी उभरती है तो सन्नाटे सी
जैसे कोई किसी अजगर को छुआ करता है। - अवधनारायण मुदगल
मेरे दिल के किसी कोनें में इक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देख कर दुनिया, बड़ा होने से डरता है। - राजेश रेडडी
ऐसी चादर मिली हमें गम की
सी इधर तो उधर फटी साहिब - सूयर्भानु गुप्त
कौन सा सत्संग सुन कर आए थे बस्ती के लोग
लौटते ही दो कबीलों की तरह लड़ने लगे - राजगोपाल सिंह
तुम ऐसे खो गए हो जैसे विवाह के दिन
खो जाए सजते-सजते कंगन नई दुल्हन का - कुँअर 'बेचैन'
यूँ भटकती हुई मिलती है गरीबी अक्सर
जिस तरह भीड़ भरे शहरों में अंधा कोई - ओंकार गुलशन
दूर बेटी हुई तो याद आया
फल कभी पेड़ का नहीं होता - हस्तीमल हस्ती
सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता
हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता - मुनव्वर राना
मैंने सूरज से की दोस्ती
आँख की रोशनी खो गई - दीक्षित दनकौरी
अच्छा शेर सहज भाव, स्पष्ट भाषा और उपयुक्त छंद के सम्मिलन का नाम है। एक भी कमी से वह रसहीन और बेमानी हो जाता है। भवन के अंदर की भव्यता बाहर से दीख जाती है। जिस तरह करीने से ईंट पर ईंट लगाना निपुण राजगीर के कौशल का परिचायक होता है, उसी तरह शेर में विचार को शब्द सौंदर्य तथा लय का माधुर्य प्रदान करना अच्छे कवि की उपलब्धि को दर्शाता है।
अच्छा शेर सहज भाव, स्पष्ट भाषा और उपयुक्त छंद के सम्मिलन का नाम है। एक भी कमी से वह रसहीन और बेमानी हो जाता है। भवन के अंदर की भव्यता बाहर से दीख जाती है। जिस तरह करीने से ईंट पर ईंट लगाना निपुण राजगीर के कौशल का परिचायक होता है, उसी तरह शेर में विचार को शब्द सौंदर्य तथा लय का माधुर्य प्रदान करना अच्छे कवि की उपलब्धि को दर्शाता है। जैसा मैंने पहले लिखा है कि यह उपलब्धि मिलती है गुरू के आशीष तथा निरंतर अभ्यास से। जो यह समझता है कि गज़ल लिखना उसके बाएं हाथ का खेल है, वह भूल-भुलैया में विचरता तथा भटकता है। सच तो यह है कि अच्छा शेर रचने के लिए शायर को रातभर बिस्तर पर करवटें बदलनी पड़ती है। मैंने भी लिखा है-
सोच की भट्टी में सौ-सौ बार दहता है
तब कहीं जाकर कोई इक शेर कहता है।
सहज अभिव्यक्ति
हिंदी में अच्छी गज़लें लिखी जाने के बावजूद अनेक ऐसे अशआर पढ़ने को मिलते है जो कथ्य की अस्पष्टता, बहर की अनभिज्ञता, काफ़िया रदीफ़ के गलत प्रयोग और भाषा संबंधी भूल से फीके हैं। उर्दू गज़ल की सबसे बड़ी विशेषता है- कथ्य की स्पष्टता और वास्तविकता। कभी कभी शायर अतिशयोक्ति से भी काम लेता है- रचना में सौंदर्य पैदा करने के लिए। स्पष्टता और वास्तविकता से शेर का गिर जाना शायर का सबसे बड़ा दोष माना जाता है। भाव चाहे कितना भी उच्च हो, छंद चाहे कितना ही उपयुक्त व सुंदर हो लेकिन कथ्य की अस्पष्टता व अवास्तविकता से शेर की हत्या हो जाती है। शेर को समझने में दिमाग चक्कर खाने लगे तो समझिए कि समय ही नष्ट किया। कवि के समझाने पर ही शेर समझा तो क्या समझा? व्याख्या सुनने में तो उसका लुत़्फ ही खत्म हो जाता है। काव्य की अस्पष्टता व अवास्तविकता शेर को कहीं का रहने नहीं देती है।
उर्दू में भी कई अस्पष्ट अशआर लिखे गये पर उन्हें खारिज़ कर दिया गया। अस्पष्ट शेर के बारे में बताने के लिये निम्नलिखित उदाहरण दिया जाता है:
एक शायर ने महफ़िल में शेर पढ़ा -
मगस को बाग में जाने न देना
कि नाहक खून परवाने का होगा
शेर को समझने के लिये श्रोताओं ने मगज़पच्ची की। किसी के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। लगा, सबके दिमाग ज़वाब दे गए। आखिर एक ने पूछा- हु़जूर आपके शेर की बहर लाजवाब है लेकिन उसका मजमून हमारी समझ के परे है। शायर ने शेर की व्याख्या की- ऐ बागवान! तू मगस (मधुमक्खी) को बाग में हरिगज़ न जाने देना, वह गुलों का रस चूस कर पेड़ पर शहद का छत्ता बनाने में कामयाब हो जाएगा। उस छत्ते से मोम निकलेगा और वह शमा की शक्ल अख्तियार करेगा। जब शमा जलेगी तो बेचारा परवाना उस पर मंडराएगा और बिन वजह जल कर राख हो जाएगा।
अनेक बार प्रसिद्ध शायरों की रचनाओं में भी यह दोष देखने को मिलते हैं। उदाहरण के लिए-
कहाँ खो गई उसकी चीखें हवा में
हुआ जो परिंदा ज़िबह ढूँढता है- संजय मासूम
यह शेर भी स्पष्ट नहीं है। शायद कवि कहना चाहता है कि 'ज़िबह' (कत्ल) हुआ पंछी हवा में खो गई अपनी 'चीखें' ढूँढ रहा है। लेकिन 'ज़िबह' ल़फ़्ज़ गलत जगह पर आने से अर्थ यही निकलता है कि वह ज़िबह की तलाश में है।
कुछ कमीं या बेकली, दीवानगी सबकी रहे
काश, दिल में दर्द की आसूदगी सबकी रहे - लक्ष्मण दुबे
इस शेर के दूसरे मिसरे में अस्पष्टता है दर्द की आसूगदी (चैन) रहे कि सबकी आसूदगी रहे?
राजघरानों में हमने दरबारी गाये नहीं कभी
इसीलिये तो अपने अंदर बची रही ख़ुद्दारी जी - ज्ञानप्रकाश 'विवेक'
यहाँ 'दरबारी' शब्द ने अर्थ को गड़बड़ा दिया है। राजदरबार में बैठनेवाला सदस्य होता है 'दरबारी'। यदि गज़लकार का आशय 'दरबारी राग' से है तो शेर की स्पष्टता के लिए उसे 'दरबारी राग' का प्रयोग करना चाहिए था।
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35 टिप्पणियाँ
स्पश्ट लेख है, बहुत अच्छे उदाहरण है। बात सीधे भीतर उतर गयी।
जवाब देंहटाएंसोच की भट्टी में सौ-सौ बार दहता है
तब कहीं जाकर कोई इक शेर कहता है।
हिन्दी में लिखे गये शेरों में वो नफासत और कोमलता नहीं आती जो उर्दू के शेरों में मिलती है वहीं दुश्यंत कुमार के शेरों का ओज उर्दू में नहीं मिलता। कृपया समझायें।
जवाब देंहटाएंबेहद अच्छे उदाहरण देकर आपने कठिन विषय को समझाया है जिसके लिये शुक्रिया कहना बहुत "कम" होगा
जवाब देंहटाएं- लावण्या
क्या ग़ज़ल लिखने के लिये खास तरह के शब्दकोष की आवश्यकता है। कोमल शब्द और कठोर शब्द जैसी बंदिशे भी हैं? प्राण जी और सतपाल जी मेरा प्रश्न है कि क्या उर्दू की तरह हिन्दी में भी ग़ज़ल मुकाम बना सकती है उर्दू जैसे शब्दकोष/मधुर लगने वाली ध्वनि जैसे शब्दों के अभाव में?
जवाब देंहटाएंNIce article on Gazal. Thanks.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
बहुत-बहुत शुक्रिया!
जवाब देंहटाएंइस लेख में बहुत ही सिलसिलेवार और विस्तार से गजल शिल्प के बारे मे उदाहरण सहित जानकारी दी गई है... इतने उम्दा उदाहरण और गजल/शेर पढ कर मन प्रसन्न हो गया.
जवाब देंहटाएंआभार
Shri Nandan jee ne badaa achchha
जवाब देंहटाएंprashn kiya hai ki jo auj Dushyant
kumar kee gazalon mein hai vo Urdu
gazlon mein nahin hain.ye prashan
mujh se kayee poochh chuke hain.
Iske uttar mein main Urdu ke
progressive poets Sazzad zaheer.Majrooh Sultanpuree.Sahir
ludhianvi ityaadee kee shayree
padhne kee salaah doongaa.Urdu ke
niminlikhitit ashaar kya kisee
auj se kam hain----
Surkhroo hota hai insan
thokre khaane ke baad
Rang laatee hai hinaa
patthar pe gis jaane ke baad
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khudee ko kar buland itna
ki har taqdeer se pahle
khudaa bande se ye poochhe
bataa teree razaa kya hai
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Main akela hee chalaa thaa
jaanb-e-manzil magar
log saath aate gaye aur
kaarvan bantaa gayaa
Drishtikon ke prashan ka uttar
hai ki gazal ke liye koee vishesh
shabdkosh nahin hai.Bhaasha kaesee
honee chaahiye ye lekh kee aagaami
kishte padhen.Hindi gazal bahut
aagee jaayegee,aesa meraa vishwas
hai.
सबसे पहले मे ये कहूँगा कि इस मंच से ये संदेश कभी न जाए की यहाँ हिंदी ग़ज़ल या देवनागरी ग़ज़ल की बात होती है. ग़ज़ल को सिर्फ़ ग़ज़ल कहा जाए..हिंदी ग़ज़ल कतई नहीं.हर विधा जिस भाषा मे पैदा होती है, पलती है उसका लहज़ा और सूरत बैसी ही बन जाती है फिर उस से छेड़-छाड़ करना प्रयोग वाली बात हो जाती है. ग़ज़ल उर्दू मे पली बड़ी विधा है ठीक बैसे ही जैसे दोहा हिंदी मे.और दूसरी बात उर्दू कोई जुदी भाषा नही है.ये कई भाषाओं का मिश्रण है जिसमे फ़ारसी अधिक है थी ठीक बैसे ही जैसे हिंदी मे sanskrit.लेकिन भाषाएँ जब धर्म के साथ जुड़ी या जोड़ी गईं और उन पर सियासत की रोटियां सेंकी गईं तो भाषाएँ सिमट गाईं. जैसे sanskrit. सिमटी बैसे ही उर्दू सिमट गई.इसे मानने मे कतई संकोच नही होना चाहिए की ग़ज़ल उर्दू की विधा है. और उर्दू हिंदोस्तां की मीठी ज़बान है.
जवाब देंहटाएंजैसा दुशयंते ने कहा कि जब उर्दू और हिंदी अपने सिंहासन से उतर कर आम लोगों तक पहुँचती हैं तो फ़र्क करना मुश्किल हो जाता है और यही भाषा जो जन-मानस मे बोली जाती है वही ग़ज़ल की भाषा होनी चाहिये.हिंदी के क्लिश्ट शब्दों के इस्तेमाल से हो सके तो बचना चाहिए.अब मै अगर कहूँ कि " कि मेरा दोस्त ही मेरा दुशमन है" आप क्या कहेंगे कि ये उर्दू है या हिंदी. उर्दू वाला उर्दू कहेगा हिंदी वाला हिंदी..तो एक ही बोली है जिसे अगर उर्दू मे लिखो तो उर्दू देवनागरी मे लिखो तो हिंदी.यही जन-मानस की बोली, (भाषा नही) ग़ज़ल की भाषा होनी चाहिए.आप बोलते तो दोस्त हैं लेकिन लिखते मित्र हैं यही गड़बड़ हो जाती है. वही लिखो जो बोलते हो.किसी भाषा के शब्दकोष की ज़रूरत नही हैं ग़ज़ल के लहज़े का ख्याल ज़रूर रखें और बहर-वज़्न का इल्म बहुत ज़रूरी है. ये बड़ी खुशी की बात है कि हमारे बीच प्राण जी जैसे विद्वान हैं इनसे जितना सीख सकें उतना सीख लें.ये मंच आने वाले कल के लिए एक बहुत बड़ा सरमाया होगा.
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जवाब देंहटाएंमाफ़ी चाहूंगा.....
जवाब देंहटाएंके जो शेर अस्पष्ट होते हैं...अभी अभी उदाहरण पढ़े...
" मागास को बाग़ में........"
या
" कहाँ खो गयी .............."
भले ही अस्पष्ट है......और खारिज भी बहुत बुरी तरह हैं....कोई दो राए नहीं..
मगर वो शाएर की ज़रूरत होते हैं....अख्तर साहिब का है शायद ....के ..
" अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं,
कुछ शेर फकत तुझको सुनाने के लिए हैं."
या ...एक है किसी का.....
" मेरे अश'आर सा उतरा है इस ज़माने में,
सफ़ा कोई तो रही होगी उस दिवाने में.."
अस्पष्ट शेर है ...खारिज भी....
पर मजबूरी है शाएर की ...
हाँ, शायर इन भीतरी चीज़ों को आम ना ही करे तो शायद बेहतर है..या इतना ही करे ..के जिस से मुखातिब है वो ठीक से समझ ले.....
बाकियों के लिए पूरी ग़ज़ल है ही ........
ghazal ko ghazal hi kahaa jaaye..
जवाब देंहटाएंis baat ka main bahut kaayal hoon..likhne waale ko bhasha se bhi dikkat na ho..ke kis ki saakh jyada hai kiski kam.........
shukriyaa satpaal ji kaa...
ye sandesh mujhe behad aham lagaa...
प्रश्न करने की गुंजायिश ही नही रही इतना बारीकी से उदाहरण सहित समझाया गया है। आभारी हूँ प्राण जी की।
जवाब देंहटाएंमुझे उर्दु की बहुत सारी गजलों के अर्थ समझ में नहीं आते उनमें प्रयुक्त लफ़्जों के कारण। इसलिये हिंदी गजल की परम्परा उर्दु की गजल से अलग तो होगी ही जैसे अंग्रेजी के सॉनेट को हिंदी के कवियों ने उसका भारतीयकरण किया। यह धर्म -मज़हब की बात नहीं, हमारी मिट्टी और अपनी भाषा की बात है। प्राण साहब का यह आलेख ग़जल के शिल्प,उसकी संरचना और गुण-दोष पर विवेचनापूर्ण तथ्यपरक एवं विशद जानकारी प्रस्तुत करता है जिससे इस विधा के बारे में हम कई बातें सीख सकते हैं।
जवाब देंहटाएंलेख बहुत अच्छा लगा। ग़ज़ल पर ये एसी बाते हैं जिनपर चर्चा जरूरी है।
जवाब देंहटाएंगजल पर अच्छी कक्षायें चल रही हैं। एक नयें स्टूडेंट का भी कक्षा में नाम लिख लीजिये। मेरा मानना है वह भाषा जो दूसरी भाषा के शब्दों को अपना बनाती चलती है हमेशा जिंदा रहती है। हिन्दी को हमे जीवित रखना है तो इसमें गजल मददगार हो सकती है। यह किसी भी भाषा की विधा हो हिन्दी में किस तरह अपनीयी जाये वह प्राण शर्मा जी के लेख से बहुत अच्छी तरह साफ हुआ।
जवाब देंहटाएं>वह भाषा जो दूसरी भाषा के शब्दों को अपना बनाती चलती है हमेशा जिंदा रहती है।<
जवाब देंहटाएंसौ बातों की एक बात..बिल्कुल सही कहा निधा जी ने.
धन्यवाद सतपाल जी। आपको भी धन्यवाद, पूर्व प्रकाशित दोनो लेख अच्छे हैं। साहित्य शिल्पी बहुत अच्छा काम कर रहा है, इसके जो भी संचालक हों मेरी बधाई।
जवाब देंहटाएंGazal ke is ansh mein kuchh vishesh
जवाब देंहटाएंgazal kaaron ke naam chhapne se
chhoot gaye hain,iske liye main
kshamaprarthee hoon.Gazalkaron ke
naamon kee soochee hai-
Ram Darsh Mishra,Mahavir Sharma,
Uday bhanu hans,Baalswaroop Rahi,
Sohan Rahi,Balbir Singh Rang,Rama
Avtaar Tyagi, Gopal Das Neeraj,
Shambu Nath Shesh,Sher jang garg,
Lakshman,Vigyan vrat,Rama Singh,
Vinod Tiwari,Chander Sain Virat,
Hastimal Hasti,Adam Gaundvi,Kunvar
Bechain,Janki Prasad Sharma,Zaheer
Qureshee,Ram Kumar Krishak,Shiv om
Amber,Urmilesh,Gyaan prakash Vivek
Ashok Anjum,Mahesh Anagh,Usha Raje
Saxena,Dixit Dankauree,Dev mani
Pandey,Tejendra Sharma,Devi NAgrani,Kavi kulwant,Gautam Sachdev
Dwijendra Dwij,Satpal ityaadi.
स्पष्ट और प्रभावशाली आलेख के लिये प्राण जी का बहुत बहुत आभार!
जवाब देंहटाएंसोच की भट्टी में सौ-सौ बार दहता है
जवाब देंहटाएंतब कहीं जाकर कोई इक शेर कहता है।
उदाहरण सहित समझाया .....
आभार......प्राण जी
प्राण शर्मा जी का यह सारगर्भित लेख मैंने पहले भी पत्रिकाओं में पढ़ा था जिस पर देश-विदेशों में बड़ी चर्चा रही थी। दिग्गज ग़ज़लकारों ने बहुत सराहा था। यह एक लंबा लेख है। लगता है आज केवल चौथाई भाग दिया गया है। ज्यूं ज्यूं लेख के शेष भाग आगामी अंकों में पाठकों के सामने आएंगे तो ग़ज़ल की बारीकियां ऐसी मिलेंगी जिनकी कभी कभी शायर कल्पना भी नहीं कर पाता।
जवाब देंहटाएंइस पूरे लेख को मैं तीन बार पहले पढ़ चुका हूं लेकिन आज भी पढ़ने में वही पहली बार उत्सुक्ता और जिज्ञासा बनी हुई है।
टिप्पणियों में जिज्ञासा-स्वरूप कुछ प्रश्न दिखाई दे रहे हैं। विश्वास रखिए, आगामी अंकों में आपके प्रश्न ख़ुद ब ख़ुद मिलते जाएंगे। बस, हर सोमवार को इस लेख को क्रमशः पढ़ते जाईए। नए और शिलाधर शायरों के लिए भी यह लाभदायक है। कहते हैं कि शायर सारी ज़िंदगी एक विद्यार्थी रहता है, कुछ न कुछ सीखता ही रहता है।
साहित्य शिल्पी के संपादकों और सतपाल ख़्याल जी को प्राण शर्मा जी के इस सुंदर लेख के लिए धन्यवाद।
बड़ भागी -- गुणी जनों का हाथ भी है और गुणवत्ता की खान भी ।समंदर की गहराई भी है और गगन की ऊंचाई भी।
जवाब देंहटाएंकाश ! एक क़तरा भी लेपाने की क़ाबलियत पैदा कर पाऊं।
प्रवीण पंडित
lekh itna accha ban pada hai , main poore lekh ko ruk ruk kar pada..lekh se jyada ,lekh me shaamil sher bahut pasand aaye..
जवाब देंहटाएंaapko bahut badhai ..
vijay
poemsofvijay.blogspot.com
'ग़ज़ल' पर प्राणजी का लेख बहुत सारगर्भित और उपयोगी है। एक बातचीत में मजरूह साहब ने मुझसे कहा था - 'ग़ज़ल इतनी नाज़ुक विधा है कि वह हर लफ़्ज़ का बोझ नहीं उठा सकती'। हिंदी कविगण अगर इस बात को समझने की कोशिश करेंगे तो उनकी ग़ज़लें भी उर्दू शायरों की तरह लोकप्रिय होंगी।
जवाब देंहटाएंदेवमणि पाण्डेय
प्राण जी को सादर चरण-स्पर्श !
जवाब देंहटाएंहम जैसे विद्यार्थियों के लिये अब इससे ज्यादा सौभाग्य की बात और क्या हो सकती है कि आप जसे विशारद इतनी सुगमता से हम सब को सिखाने के लिये उपलब्ध हैं....
अभी दो दिन पहले ही यहां भारतीय ग्यानपीठ से छपने वाली पत्रिका "नया ग्यानोदय" आपकी छपी चार गज़लें पढ़ी और आज ये बेमिसाल आलेख पढ़ने को मिल गया..
एक प्रश्न था कि हम सब गज़ल में आम बोलचाल की भाषा इस्तेमाल करने की हिदायत देते हैं..सतपाल जी ने भी अपने लेख में कहा था..मेरे आदरणीय गुरू पंकज सुबीर जी भी ये ही कहते हैं..श्रद्धेय महावीर जी और द्विज भी अपने संदेशों में कहते हैं....मेरा प्रश्न था कि आम बोलचाल की भाषा में हम "शहर" "फसल" , "असल" , "वजन" , "शमा’ , "नजर" "जहर" आदि ऐसे ढ़ेरों शब्द का उच्चारण के तौर यदि हम बहर में बांधें,तो एकदम से खारिज कर दिये जाते.मुझे नहीं लगता कि एक आम आदमी इन तमाम शब्दों को शह्र या फस्ल या अस्ल या वज्न या शम्अ या नज्र पढ़्ता है.
..तो इन शब्दों को हम गज़ल के नये बटोही कैसे बांधे छंद पर?
अगले आलेख की बेसब्री से प्रतिक्षा में..
प्राण साहब,
जवाब देंहटाएंये तो तोहफ़ा है हम ग़ज़ल लिखने वालों के लिये। महावीर की के one on one मार्गदर्शन के बिना तो मैं गज़ल लिख ही नहीं पाती। वहीं आप पूरी नई पीढ़ी को सिखा रहे हैं।
सिर्फ़ धन्यवाद नहीं, बल्कि बधाई भी।
--मानोशी
महावीर जी और द्विज जी एक साथ लिखना चाह रहा था तो जल्दबाजी हो गयी...
जवाब देंहटाएंआदरणीय प्राण जी से और सतपाल जी से मेरी विनम्र विनती है कि पाठकों के प्रश्नों के उत्तर अपने आगामी आलेखों में अवश्य प्रस्तुत करें जिससे एक संवाद बन सके। प्राण जी का प्रस्तुत आलेख बेहद सादगी से अपनी बात पाठको को समझाने में सक्षम है। आभार।
जवाब देंहटाएं***राजीव रंजन प्रसाद
प्राण जी का लेख वाकई एक धरोहर है. मुझे लगता है संस्कृत की विरासत समेटे हिंदी की विविध शैलियों यथा ब्रज, अवधी, भोजपुरी, बुन्देली, मैथिली आदि की ही तरह उर्दू भी हिन्दी की ही एक शैली है. इसलिए उर्दू-हिन्दी का बहुत सा शब्द भण्डार एक ही है किन्तु कुछ भिन्न भी है. मुख्य अंतर लिपि एवं व्याकरण-पिंगल का है. हिन्दी ग़ज़ल वह जो हिन्दी व्याकरण के अनुरूप सही हो, उर्दू ग़ज़ल वह जो उर्दू के नियमों से लिखी गयी हो. हिन्दी का पदभार और उर्दू का वजन बहुधा अलग-अलग होता है, कभी-कभी ही सामान होता है. प्राण शर्मा जी इस बिंदु पर मार्गदर्शन करें तो कृपा होगी. धर्म या जन्मना जाति से भाषा नहीं पहचानी जाती. अच्छे गजलकारों की सूची कभी पूरी नहीं हो सकती, वह लेख का उद्देश्य है भी नहीं. अस्तु...
जवाब देंहटाएं. एक निवेदन संचालकों से - कृपया अंगरेजी में आयी टिप्पणियों का हिन्दी अनुवाद कर प्रकाशित करें तो उन्हें हिन्दी टंकण की प्रेरणा मिलेगी.
अच्छा लेख है पर कुछ अच्छे ग़ज़लकारों को भूल गए और कुछ ऐसे भी उल्लिखित हो गए जो ग़ज़लकार हैं ही नहीं।
जवाब देंहटाएंउनकी रचनाएँ बहर से ख़ारिज हैं।
अच्छा लेख है पर कुछ अच्छे ग़ज़लकारों को भूल गए और कुछ ऐसे भी उल्लिखित हो गए जो ग़ज़लकार हैं ही नहीं।
जवाब देंहटाएंउनकी रचनाएँ बहर से ख़ारिज हैं।
जानकारी पूर्ण लेख
जवाब देंहटाएंसादुवाद
जानकारी पूर्ण लेख
जवाब देंहटाएंसादुवाद
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