
मुंबई में आतंकवादियों ने जिस तरह धमाके किए उससे सारे देश में ऐसा लगता है अचानक देश भक्ति का तूफान आ गया है। सुबह से मोबाईल पर देशभक्ति से भरे एसएमएस आने का सिलसिला चल पड़ा है। कोई भगवा पट्टी धारण करने की बात कह रहा है, तो कोई आतंकवादियों को भगवान से मिलाने की बात कह रहा है। किसी को अफ़जल गुरू याद आ रहा है, तो किसी को राज ठाकरे की खामोशी पर ऐतराज है। ऐसे एसएमएस एक नहीं ढेरों आए हैं। एसएमएस वही भेजने वाले अलग-अलग।
सुबह-सुबह आए एक एसएमएस ने मुझे हैरान कर दिया। एसएमएस भेजने वाला निशाचर है और अधिकांश एसएमएस को रात को करता है और उसके एसएमएस रात के लायक ही होते हैं। सुबह-सुबह मिले एसएमएस को पढ़ा तो लगा मस्तराम का वो शिष्य अचानक देशभक्त हो गया है। हमेशा अश्लील और द्विअर्थी एसएमएस भेजने वाले उस दुर्जन के एसएमएस में गंदगी नहीं कूट-कूटकर देशभक्ति भरी हुई थी।
अकेला वो ही नहीं था और भी कई लोग उसी केटेगरी के थे जिनके एसएमएस आज बदले-बदले से नज़र आए। जिधर गया और जिससे मिला बस एक ही चर्चा। आतंकवादियों से तो निपटना ही होगा। बहुत हो गया सहते-सहते। बर्दाश्त की भी हद होती है। हम क्या च..........हैं। सीधे पाकिस्तालन पर हमला कर देना चाहिए। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। साला हिन्दू होना पाप हो गया है। हिन्दुओं को गाजर-मूली समझ लिए हैं। जो मर्जी हमें पीटकर चला जाता है। आखिर कब तक चलेगा ये बम-धमाकों का सिलसिला।
हमेशा धंधे का रोना रोने वाले व्यापारी दोस्तों से लेकर पढ़े-लिखे संवेदनशील डॉक्टर दोस्त और कथित रूप से समाज सुधार का ठेका लेने वाले पत्रकार साथी, सभी एक सुर अलापते नज़र आए। प्रेस क्लब परिसर में एक फव्वारा है। उसमें हम लोगों ने कुछ मछलियां पाली हैं। मैंने उसका गंदा हो चुका पानी बदलने के आदेश दे दिए थे, जिस पर अमल करते समय कुछ छोटे-छोटे मछली के बच्चे मर गए थे। आज क्लब पहुंचते ही कुछ सदस्यों ने क्लब के स्टॉफ की लापरवाही से हुई मछलियों की मौत पर नाराजगी जाहिर की और जैसे ही मैंने उनसे कहा कि मुंबई में इतने लोग मर गए हैं उसकी कोई चिंता नहीं, मछलियों के मरने पर रो रहे हो। बस, फिर क्या था सारा माहौल देशभक्ति से लबालब हो गया। कुछ तो ऐसा लगा कि सीधे पाकिस्तान जाकर हमला कर देंगे। आतंक के खिलाफ इतने कड़े तेवर मैं पहली बार देख रहा था।
वहां से निकलकर कुछ दोस्तों से मिलने गया। सबके दफ्तरों में टीवी चल रहा था और चर्चा में था आतंकवाद। आज जैसी देशभक्ति की बयार बह रही है उससे लगता है कि हमसे ज़्यादा राष्ट्रभक्त सारी दुनिया में कोई दूसरा नहीं हो सकता।
मैं दफ्तर आ गया और वहां भी वही माहौल नज़र आया। अपने कमरे में बैठकर खामोशी से विचार करने लगा, तो एक बात साफ समझ में आई कि हम सब लातों के भूत हैं। बातों से हमारी अकल ठिकाने नहीं आती। आतंकवादियों ने जिस तरह हमारे घर में घुसकर हमें पीटा है उससे ज्यागदा शर्मनाक क्या हो सकता है और उनकी पिटाई से अलगाव वादियों के खिलाफ नफरत तो बढ़ी ज़रूर साथ ही बढ़ी देशभक्ति की भावना। मगर ये भावना कब तक कायम रहेगी इसकी गारंटी मेरे पास नहीं है। धीरे-धीरे, जैसे-जैसे माहौल शांत होता जाएगा, शायद देशभक्ति का उफान भी ठंडा पड़ता जाएगा। हम शायद आदी हो चुके हैं इन सब बातों के। फिर कभी धमाके होंगे और फिर आएगा तूफान देशभक्ति का। फिर कोई हमें लात मारेगा फिर हम नींद से जागेंगे, फिर जागेगी देशभक्ति की भावना, फिर चिल्लाएंगे सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा। लेकिन ऐसा लगता है इस देश का भला लात खाने के बाद आने वाले देशभक्ति के तूफान से नहीं होने वाला। इसके भले के लिए तो देशभक्ति की सुनामी चाहिए जो बहाकर ले जाए आतंकवाद को। जाहिर है सुनामी लात खाने से नहीं उससे भी ज्यादा मार खाने से आएगी। जब हर कोई आतंकवाद की आग में खुद को जलता महसूस करेगा, शायद तब।
18 टिप्पणियाँ
हो सकते हैं , किंतु भारत के प्रत्येक नागरिक को यह स्पष्ट रूप से जानना ही होगा कि राष्ट्र की अवधारणा क्या है , क्या मिलता है हमें एक राष्ट्र के रूप में ? क्यों वजूद पर खतरा हमारा खतरा है ?
जवाब देंहटाएंधन्यवाद |
पुसदकर जी ,वे प्रतिक्रियाएं सहज और स्वाभाविक हैं -देश नेत्रित्व के सकत से जूझ रहा है -कोई इन्ही भावनाओं को कारगर परिणति दे सकता है !
जवाब देंहटाएंहाल फिलहाल पर तो यही प्रतिक्रिया की जा सकती है.
जवाब देंहटाएंkuchh nahi bas kursi chahiye, chahe kitani bhee lat maro. narayan narayan
जवाब देंहटाएंकुँभकरण को जगाने के लिए कितने ढोल-ताशे बजाए गए थे?....
जवाब देंहटाएंकितने बम फोड़े गए थे?....और ना जाने कितने जतन किए गए थे...
शुक्र करो मियाँ...हम तो महज़ अदना से इनसान हैँ....इसी नाते एक लात से ही जाग गए
....
सही कहा आपने...हमारे भीतर के देशभक्ति के जज़्बे को जगाने के लिए सुनामी ही चाहिए...इस से कम में तो बात कतई नहीं बनेगी...
खरी एवं सही बात....तगड़ा व्यंग्य...
I agree with your feelings.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
"---धीरे-धीरे, जैसे-जैसे माहौल शांत होता जाएगा, शायद देशभक्ति का ऊफान भी ठंडा पड़ता जाएगा। हम शायद आदि हो चुके हैं इन सब बातों के। फिर कभी धमाके होंगे और फिर आएगा तूफान देशभक्ति का। फिर कोई हमें लात मारेगा फिर हम नींद से जागेंगे, फिर जागेगी देशभक्ति की भावना, फिर चिल्ला एंगे सारे जहां से अच्छा हिन्दो स्तांश हमारा।"
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने।
यह बात सही है कि गुलामी की आदत हो गयी है भारतवासियों को, लात और डंडे से ही जगता है।
जवाब देंहटाएंहमारे अन्दर देश भक्ति तो जैसे पानी के बुलबुले की तरह है जो जैसे बनता है वेसे ही शांत हो जाता है ,लत का भूत बात नही मानते इसलिए एसा होताही है ...
जवाब देंहटाएंअनिल जी
जवाब देंहटाएंसच है सारे डंडे एक साथ पड़ने चाहिए
इसे व्यंग्य की तरह से पढने पढा और उसी आशय से मेरा कहना है कि यदि लात खा कर भी जाग जायें तो भी गनीमत है... हर वक्त ऊंघने की आदत पड गई है जनता और प्रशासन दोनों को. :)
जवाब देंहटाएंkisee shayar ne theek kaha hai:
जवाब देंहटाएंये सियासत की तवायफ़ का दुपट्टा है
ये किसी के आंसुओं से तर नहीं होता।
अपन तो आज बहौत खुश हैं। आप भी खुश हो जाइए। हम सुरक्षित हैं, आप सुरक्षित हैं। अगले 3-4 महीनों के लिए हम सब को जीवनदान मिल गया है। क्योंकि आम तौर एक धमाके के बाद 3-4 महीने तो शांति रहती ही है। क्या हुआ जो 3-4 महीने बाद फिर हम करोड़ों लोगों में से 50, 100 या 200 के परिवारों पर कहर टूटेगा। बाकी तो बचे रहेंगे। दरअसल सरकार का गणित यही है। हमारे पास मरने के लिए बहुत लोग हैं। चिंता क्या है। नपुंसक सरकार की प्रजा होने का यह सही दंड है।
जवाब देंहटाएंपूरी दुनिया में आतंकवादियों को इससे सुरक्षित ज़मीन कहां मिलेगी। सच मानिए, ये हमले अभी बंद नहीं होंगे और कभी बंद नहीं होंगे।
कयूं कि यहां आतंकवाद से निपटने की रणनीति भी अपने चुनावी समीकरण के हिसाब से तय की जाती है।
आप कल्पना कर सकते हैं110 करोड़ लोगों का भाग्यनियंता, देश का सबसे शक्तिशाली (कम से कम पद के मुताबिक,दम के मुताबिक नहीं) व्यक्ति कायरों की तरह ये कहता है कि आतंकवाद पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए एक स्थायी कोष बना देना चाहिए।
हर आतंकवादी हमले के बाद टेलीविजन चैनलों पर दिखने वाला गृहमंत्री का निरीह, बेचारा चेहरा फिर प्रकट हुआ। शिवराज पाटिल ने कहा कि उन्हे इस आतंकवादी हमले की जानकारीपहले से थी। धन्य हो महाराज!आपकी तो चरणवंदना होनी चाहिए.
लेकिन इन सब बातों का मतलब ये भी नहीं कि आतंकवाद की सभी घटनाओं के लिए केवल मनमोहन सिंह की सरकार ही दोषी है। मेरा तो मानना है कि सच्चा दोषी समाज है, हम खुद हैं। क्योंकि हम खुद ही इन हमलों और मौतों के प्रति इतनी असंवेदनशील हो गए हैं कि हमें ये ज़्यादा समय तक विचलित नहीं करतीं। सरकारें सच पूछिए तो जनता का ही अक्श होती हैं जो सत्ता के आइने में जनता का असली चेहरा दिखाती हैं। भारत की जनता ही इतनी स्वकेन्द्रित हो गई है कि सरकार कोई भी आए, ऐसी ही होगी। हम भारतीय इतिहास का वो सबसे शर्मनाक हादसा नहीं भूल सकते ,जब स्वयं को राष्ट्रवाद का प्रतिनिधि बताने वाली बी.जे.पी. सरकार का विदेश मंत्री तीन आतंकवादियों को लेकर कंधार गया था। इस निर्लज्ज तर्क के साथ कि सरकार का दायित्व अपहरण कर लिए गए एक हवाईजहाज में बैठे लोगों को बचाना था। तो क्या उसी सरकार के विदेश मंत्री, प्रधानमंत्री और स्वयं को लौहपुरुष कहलवाने के शौकीन माननीय (?)लाल कृष्ण आडवाणी उन हर हत्याओं की ज़िम्मेदारी लेंगे, जो उन तीन छोड़े गए आतंकवादियों के संगठनों द्वारा की जा रही है।
वाह री राष्ट्रवादी पार्टी, धिक्कार है।
अब क्या कहें, सरकार चाहे अटल बिहारी वाजपेयी की हो या मनमोहन सिंह की, आतंकवाद हमारी नियति है। ये तो केवल भूमिका बन रही है, हम पर और बड़ी विपत्तियां आने वाली हैं।क्यूं कि 2020 तक महाशक्ति बनने का सपना देख रहे इस देश की हुकूमत चंद कायर और सत्तालोलुप नपुंसक कर रहे हैं।
सच लिखा है आपने हमारी देशभक्ति निश्चित सवालों के दायरे में है।
जवाब देंहटाएंआपका धिक्कार जायज है। यह मुर्दों का देश प्रतीत होता है, कुछ मार डाले गये तो कुछ मरे ही हुए हैं।
जवाब देंहटाएंसरकार को क्या दोष देना जब हमारे ही रक्त में उबाल नहीं रहा। आपकी बात से सहमत हूँ।
अनिल पुसदकर जी,
जवाब देंहटाएंआपका आलेख/व्यंग्य तमाचा ही है। हम गुमाम मानसिकता के लोग हैं और बिना झकझोरे जागते ही नहीं....पता नहीं, वो सुबह कब आयेगी!!
***राजीव रंजन प्रसाद
सहमत हूँ ...
जवाब देंहटाएंआपकी बात से ...पुसदकर जी,
धन्यवाद |
लात खाकर भी अपने अपने गिरहबान मे झांकना आ जाए तो बुरा नहीं।
जवाब देंहटाएंईमान राष्ट्र के प्रति हो या पड़ौसी के प्रति, परख तब होती है जब कोई मुट्ठी गरम करके किसी नाजायज़ काम मे शिरकत करने की दावत दे।
हाँ, हथेलीबाज़ सूरमाओं की कमी नहीं है।
प्रवीण पंडित
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