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काले कपोत [कविता] – अशोक कुमार पाण्डेय

किसी शांतिदूत की सुरक्षित हथेलियों में
उन्मुक्त आकाश की अनंत ऊँचाइयों
की निस्सीम उडान को आतुर
शरारती बच्चों से चहचहाते
धवल कपोत नही हैं ये

न किसी दमयंती का संदेशा लिए
नल की तलाश में भटकते धूसर प्रेमपाखी
किसी उदास भग्नावशेष के अन्तःपुर की
शमशानी शान्ति में जीवन बिखेरते पखेरू भी नही
न किसी बुजुर्ग गिर्हथिन के
स्नेहिल दाने चुगते चुरगुन
मंदिरों के शिखरों से मस्जिदों के कंगूरों तक
उड़ते निशंक
शायरों की आंखों के तारे
बेमज़हब परिंदे भी नही ये

भयाकुल शहर के घायल चिकित्सागृह की
मृत्युशैया सी दग्ध हरीतिमा पर
निःशक्त परों के सहारे पड़े निःशब्द
विदीर्ण ह्रदय के डूबते स्पंदनों में
अँधेरी आंखों से ताकते आसमान
गाते कोई खामोश शोकगीत
बारूद की भभकती गंध में लिपटे
ये काले कपोत !

कहाँ -कहाँ से पहुंचे थे यहाँ बचते बचाते
बल्लीमारन की छतों से
बामियान के बुद्ध का सहारा छिन जाने के बाद
गोधरा की उस अभागी आग से निकल
बडौदा की बेस्ट बेकरी की छतों से हो बेघर
एहसान जाफरी के आँगन से झुलसे हुए पंखों से
उस हस्पताल के प्रांगन में
ढूँढते एक सुरक्षित सहारा

शिकारी आएगा - जाल बिछायेगा - नहीं फंसेंगे
का अरण्यरोदन करते
तलाश रहें हो ज्यों प्रलय में नीरू की डोंगी
पर किसी डोंगी में नहीं बची जगह उनके लिए
या शायद डोंगी ही नहीं बची कोई

उड़ते - चुगते- चहचहाते - जीवन बिखेरते
उजाले प्रतीकों का समय नहीं है यह
हर तरफ बस
निःशब्द- निष्पंद- निराश
काले कपोत !

*****

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19 टिप्पणियाँ

  1. आज हर कोई आतंक के साए में जी रहा है...कब कोई दुर्घटना घट जाए...कुछ पता नहीं...


    आपकी कविता अच्छी लगी लेकिन कहीं-कहीं कठिन शब्दों का प्रयोग अखरा भी...अच्छा होता यदि आप कठिन शब्दों के अर्थ भी साथ में देते जिससे आम पाठकों को कविता के मर्म को समझने में आसानी होती...

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  2. शिकारी आएगा - जाल बिछायेगा - नहीं फंसेंगे
    का अरण्यरोदन करते
    तलाश रहें हो ज्यों प्रलय में नीरू की डोंगी
    पर किसी डोंगी में नहीं बची जगह उनके लिए
    या शायद डोंगी ही नहीं बची कोई

    सशक्त अभिव्यक्ति है। बहुत अच्छा प्रतीक चुना है आपने अपनी बाल कहने के लिये।

    जवाब देंहटाएं
  3. उड़ते - चुगते- चहचहाते - जीवन बिखेरते
    उजाले प्रतीकों का समय नहीं है यह
    हर तरफ बस
    निःशब्द- निष्पंद- निराश
    काले कपोत !

    सच्ची बात। बहुत प्रभावशाली रचना। आज के समय के बिलकुल अनुकूल।

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  4. सुन्दर भावभरी सार्थक संदेश देती कविता

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  5. धवल- सफ़ेद
    भग्नावशेष- खँडहर
    दग्ध- जली हुई
    विदीर्ण - टूटे हुए

    राजीव जी आपके आदेश पर हमने अर्थ दे दिए.
    (यह कविता अहमदाबाद विस्फोट के बाद लिखी गयी थी. )

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  6. रचना मन में गहरी सोच उत्पन्न करती है। हर समय यह सामयिक है..यह दौर एसा ही है।

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  7. “काले कपोत” अशोक कुमार पाण्डेय की बेहतरीन कविता है जिसमें प्रगतिशीलता के तत्व सुगमता से लक्षित किये जा सकते हैं। मैं राजीव तनेजा जी की इस बात से सहमत नहीं कि कविताओं को सदैव सरल ही होना चाहिये। यथार्थ की गहराई से टटोल के कारण कविता कहीं-कहीं क्लिष्ट भी हो सकती है और उनके भाव संश्लिष्ट भी। मुक्तिबोध और निराला की कवितायें ऐसी ही हैं। मुक्तिबोध की कविता “चाँद का मुँह टेढ़ा है” और “अँधेरे में” जटिल कवितायें ही हैं पर यथार्थ की पड़ताल के कारण ये कवितायें हिंदी की मानक कवितायें बन पड़ी हैं और इन्हें व्यापक स्वीकृति मिली है जिससे आज भी शिद्दत से पढ़ी जाती है।
    डर के साये में जी रहे आदमी का बयान है “काले कपोत” कविता जिसमें बिम्ब चित्रात्मकता को व्यक्त करने में सफल हुये हैं। कविता की भाषिक संरचना भी अन्यतम हैं। ‘गिर्हथिन’,‘चुरगुन’,‘डोंगी’ जैसे देशज शब्दों का प्रयोग कविता में भाव के अनुरूप हुआ है जो उसे चेतस और भावप्रवण बनाते हैं। जिन कविताओं को कवि की व्यक्तिगत अनुभूति के स्तर पर जटिल और दुर्बोध बना दिये जाते हैं वह (कठिनता) कवि के रूपवादी आग्रहों की वज़ह से मोह के वशीभूत हो जाने से प्रत्युत्पन्न होता है। इनमें जन की आवाज़ कुंद हो जाती है और ये सिर्फ़ मध्यम-वर्ग के मानसिक तृप्ति का साधनमात्र बनकर रह जाते हैं। यहां अशोक कुमार पाण्डेय ने कविता में संश्लिष्टता का जो प्रमाण दिया है,उसमें जनवाद की महक़ है,फिर भी कवि का ध्यान हमेशा यह होना चाहिये कि कविता इन्द्रिय-बोध के स्तर से लिखी जाय और अंतर्वस्तु के प्रकटीकरण में ज्ञानेन्द्रियाँ भी संलग्न हो बजाय सिर्फ़ मन के। यह सावधानी किसी कविता को अमूर्तन होने से बचाती है। अशोक कुमार पाण्डेय जी को अन्यत्र भी पढ़ता रहा हूँ,अच्छा लिखते हैं।-सुशील कुमार। मोबाईल- 0 94313 10216

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  8. बहुत अच्छी कविता है अशोक जी, गहरी और सोचने को बाध्य करती हुई। आपकी रचना में एक कसावट है और भाषा तथा शब्दों का भावों की संप्रेषणीयता के लिये प्रयोग भी बखूबी से हुआ है।

    ***राजीव रंजन प्रसाद

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  9. बहुत अच्छी कविता के लिये बधाई।

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  10. उड़ते - चुगते- चहचहाते - जीवन बिखेरते
    उजाले प्रतीकों का समय नहीं है यह
    हर तरफ बस
    निःशब्द- निष्पंद- निराश
    काले कपोत !
    बहुत सुन्दर रचना है। सामयिक रचना। बहुत-बहुत बधाई।

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  11. कविता पर कवि की गहरी पकड प्रतीत होती है। शब्दों का चयन कविता को उठा रहा है। आज के हालात पर चोट करती संवेदनशील कविता है।

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  12. सशक्त अभिव्यक्ति के लिउए बधाई।

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  13. हर तरफ बस
    निःशब्द- निष्पंद- निराश
    काले कपोत !


    सामयिक सुन्दर रचना....


    बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  14. कहाँ -कहाँ से पहुंचे थे यहाँ बचते बचाते
    बल्लीमारन की छतों से
    बामियान के बुद्ध का सहारा छिन जाने के बाद
    गोधरा की उस अभागी आग से निकल
    बडौदा की बेस्ट बेकरी की छतों से हो बेघर
    एहसान जाफरी के आँगन से झुलसे हुए पंखों से
    उस हस्पताल के प्रांगन में
    ढूँढते एक सुरक्षित सहारा
    संवेदनशील सामयिक रचना|

    जवाब देंहटाएं
  15. बेहद उम्दा रचना।
    रोष और भावावेष के दौर में भी ऎसी कविता रची जा सकती है, यह दिखाता है कि कवि में कितनी संभावनाएँ हैं, नहीं तो लोग बस गुस्से को कागज़ पर उतार देते हैं और कविता का ठप्पा जड़ देते है।

    बधाई स्वीकारें।

    जवाब देंहटाएं
  16. सभी मित्रों का शुक्रिया. यह मेरे आत्मविश्वास और जनवाद के प्रति आस्था को और संबल देगा.

    मेरा विश्वास कि लिखित शब्द आज भी दुनिया बदलने में सहायक हो सकते हैं और मज़बूत हुआ है.

    अशोक कुमार पाण्डेय
    09425797930

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  17. bahut acchi kavita ,

    poori tarah se apne aap mein ek mahagaatha.

    badhai

    vijay

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