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अपनी ज़मीन से छूटते हुये लोग [कविता] – सुशील कुमार

--1--

उनके पक्के इरादों में ढली
सौ-सौ फीट चौड़ी ये सड़कें
तुम्हारी छातियों पर दौड़ती हुई
पहुँच जाती हैं सीधे
खदानों से कल-कारखानों तक
बाज़ारों को नापती हुई उन दहानों तक
जहाँ सागर पर बेड़े खड़े हैं
और देखते ही रह जाते हो तुम
विकास की बाढ़ में लीलते
अपने गाँव-घर,खेत-बहियार सब।

बेदख़ल कर देते हैं तुम्हें तुम्हारी दुनिया से
थोड़ी-सी ज़मीन और कुछ रूपये
वे मुआवज़े के बतौर देकर।

तुम लौट आते हो यातना के सरकारी शिविरों में
जुते हुए बैलों की चाल की तरह भारी मन लिये।

घर-दुआर, खेत-खलिहान, गाँव की हर चीज़.....
यानि कि विस्थापन का पूरा भूगोल ही
तिरता है दिन-रात तब तुम्हारी लाचार आँखों में
और दिल में हरदम हूक सी उठती रहती है।

--2--

एक शहर अब तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है, देखो --
गाँव के किसान-कारीगर सभी
अपनी बहु-बेटियाँ, बच्चे और सरो-सामान से लदे
ट्रक-ट्रैक्टरों से वहाँ कूच कर रहे हैं
यह दुनिया देखो, कितनी जगजग है !

कहते हैं, इस शहर की कभी आँख नहीं लगती
न रात होती है यहाँ न सूरज उगता है
पक्षियों की चहचहाहटों और पत्तों की सरसराहटों से महरूम
इस शहर का अपना संगीत है
जिसके कनफोड़ शोर में बेसुध रहते हैं नागरिक यहाँ ।

किसी को खुलकर बतियाने की फुर्सत नहीं,
रोबट सी चलती है ज़िन्दगी यहाँ।

--3--

शवदाह-गृहों से निकली जली अपनी अस्थियाँ
फैक्ट्रियों के कचड़ों से नदी-जल में एकमेक होकर
एक दिन यहीं कहीं
'ग्लोबल-विलेज' का हिस्सा बन जायेंगी
और हमारी-तुम्हारी संस्कृति का एक भरा-पूरा
अध्याय भी समाप्त हो जायेगा !

--4--

अपनी ज़मीन से अनज़ान नईं पीढ़ियाँ
मन बहलाने गाहे-ब-गाहे पहूँच जाया करेंगी संग्रहालयों में
और अपनी आँखें फाड़-फाड़ देखेंगी
हल-फाल, ढेंकी, चाक, लालटेन, सिलौटे, जाँते, बैलगाड़ी
टमटम, हुक्के, पालकी, सेवार की चटाईयाँ, तीलियों के बने पिंजड़े
बाँस की आरामकुर्सियाँ, मेज वगैरह
भूले-बिसरे भित्ति-चित्रों में तुम्हें नाचते-गाते, ढोल बजाते...
और कहकहे लगायेंगी --
" ऐसे भी होते थे लोग कभी !"

अपनी ज़मीन से छूटती यह दुनिया
कहाँ चली जा रही है
बता पायेंगे कभी क्या अंतरिक्ष में गोता लगाते वैज्ञानिकगण ?

*****

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14 टिप्पणियाँ

  1. अपनी ज़मीन से छूटती यह दुनिया
    कहाँ चली जा रही है
    बता पायेंगे कभी क्या अंतरिक्ष में गोता लगाते वैज्ञानिकगण ?

    रचनायें बहुत अच्छी लगी और यह प्रश्न बहुत गंभीर लगा।

    जवाब देंहटाएं
  2. चारों विविध रंग जमीन से छूटते हुए लोगों के दृश्य, मनोभाव और परिणति को बहुत सुन्दरता से प्रस्तुत कर रहे हैं। बहुत अच्छी रचनायें हैं।

    जवाब देंहटाएं
  3. आज जिस तरह लोगों को उनके जड़ ज़मीन से हटाने की भयावह साजिश पूंजीपति वर्ग अपने सत्ता प्रतिनिधियों के गठजोड़ में कर रहा है और निर्वासन का शिकार व्यक्ति जिस तरह अपने ही देश में रिफ्यूजी बनता जा रहा है ..आपकी कविता उस सूरतेहाल में अपनी जनपक्षधर उष्मा के साथ सशक्त प्रतिरोध दर्ज कराती है.

    जवाब देंहटाएं
  4. धन्यवाद,अशोक कुमार पाण्डेय जी ।

    जवाब देंहटाएं
  5. तथाकथित सरकारी विकास की आड़ में आज हो रहे आमजन के विस्थापन और नित्य प्रति उनकी अपनी संस्कृति से बढ़ रही दूरियों का वास्तविक चित्रण हुआ है आपकी इस कविता में ।

    जवाब देंहटाएं
  6. चांद और मंगल पर पहुंच रहा नित्‍य ही इंसान

    तलाश रहा है वहां पर जीवन के आसार क्‍योंकि

    हो चुका है वह इस जीवन से परेशान वहां पर

    पहुचकर ही जमाएगा अब अपनी नई नई शान।

    जवाब देंहटाएं
  7. कभी नहीं, कोई वैज्ञानिक इस खोज को करेगा तभी तो बता पायेगा, वैज्ञानिक तो एडस का इलाज खोज रहे है, कई घंटो तक सेक्स का मजा कैसी लिया जाये इस पर शोध कर रहे है,, पूरे जीवन को आनंद से कैसे भरे यह शोध का विषय है ही नही जनाब, संसाधनों पर गुलमंडी मारने के नाम ग़्लोबल विलेज की नई परिभाषा गढने वाले लोग पैसे से सब खरीदने के अधिकार जल्द हे पा जाएंगे और तब हो सकत है कि वह संग्र्हालयों का अस्तित्व भी मटियामेट कर दें ...
    कविता बहुत अच्छा संवाद पैदा करती है, एक विशेष चिंता परिलक्षित होती है आपकी कविता मे... खास कर यह पंक्तिया वास्तव मे बधाई देने योग्य हैं
    अपनी ज़मीन से अनज़ान नईं पीढ़ियाँ
    मन बहलाने गाहे-ब-गाहे पहूँच जाया करेंगी संग्रहालयों में
    और अपनी आँखें फाड़-फाड़ देखेंगी
    हल-फाल, ढेंकी, चाक, लालटेन, सिलौटे, जाँते, बैलगाड़ी
    टमटम, हुक्के, पालकी, सेवार की चटाईयाँ, तीलियों के बने पिंजड़े
    बाँस की आरामकुर्सियाँ, मेज वगैरह
    भूले-बिसरे भित्ति-चित्रों में तुम्हें नाचते-गाते, ढोल बजाते...
    और कहकहे लगायेंगी --
    " ऐसे भी होते थे लोग कभी !"

    अपनी ज़मीन से छूटती यह दुनिया
    कहाँ चली जा रही है
    बता पायेंगे कभी क्या अंतरिक्ष में गोता लगाते वैज्ञानिकगण ?

    साधुवाद मित्रवर!

    जवाब देंहटाएं
  8. जन-पक्षधर इस रचना को गंभीर और गहरा कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी।

    जवाब देंहटाएं
  9. सुशील जी !

    अपनी ज़मीन से अनज़ान नईं पीढ़ियाँ
    मन बहलाने गाहे-ब-गाहे पहूँच जाया करेंगी संग्रहालयों में..
    .........
    ...............
    ...

    भूले-बिसरे भित्ति-चित्रों में तुम्हें नाचते-गाते, ढोल बजाते...
    और कहकहे लगायेंगी --
    " ऐसे भी होते थे लोग कभी !"
    अपनी ज़मीन से छूटती यह दुनिया
    कहाँ चली जा रही है

    काव्य ने इतिहास का मर्म छू लिया है .....
    एक कविता ...... अथवा एक युग ..... अभिभूत हूँ .... बधाई

    जवाब देंहटाएं
  10. कविता प्रभावित करती हैं। बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  11. भूले-बिसरे भित्ति-चित्रों में तुम्हें नाचते-गाते, ढोल बजाते...
    और कहकहे लगायेंगी --

    " ऐसे भी होते थे लोग कभी !"

    .......


    अपनी ज़मीन से छूटती यह दुनिया
    कहाँ चली जा रही है
    बता पायेंगे कभी क्या अंतरिक्ष में गोता लगाते वैज्ञानिकगण ?

    गंभीर प्रश्न ....

    बहुत अच्छी रचनायें ...


    सुशील जी !

    बधाई

    जवाब देंहटाएं
  12. विकास कह लीजिये या फ़िर जीवन स्तर में निरन्तर उत्थान के लिये पलायन की विवशता..मानवीय जीवन के मूल्यों में ह्वांस का कारण यही है. रास्ते की रुकावटों को हटाने में किस किस का बलिदान होता है यह कोई नहीं देखता बस एक स्वार्थ वश चलते जाने की चाह ही मनुष्य को गर्त में धकेल रही है..
    सुन्दर भाव भरी रचना के लिये आभार

    जवाब देंहटाएं
  13. जनपद की यह कविता विस्थापन और उसके दर्द को बडी सहजता से वयान करती है। ह्रदय को छू गयी।

    "घर-दुआर, खेत-खलिहान, गाँव की हर चीज़.....
    यानि कि विस्थापन का पूरा भूगोल ही
    तिरता है दिन-रात तब तुम्हारी लाचार आँखों में
    और दिल में हरदम हूक सी उठती रहती है।"

    सुन्दर रचना के लिए धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं

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