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एक शाम [कविता] - अनुपमा चौहान


बिखरे हुये लम्हों की लडी बना ली है
जब चाहे गले मे डाल ली जब चाहे उतार दी
झील का सारा पानी उतर आया आँखों में
न जाने कितनी गागर खाली हैं
तैरता था उसमें तिनका कोई
जो यूँ ही आँखों छलक गया कभी
हौले से उतरूँ सैलाब की रवानियों में
कि मेरी गागर अभी खाली है
इन ज़ुल्फों में न जाने कहाँ
सूरज की लालिमा खोती गयी
और घटायें बन कर फिर
झील में बरसने लगी
किनारे बैठे सोचती रही
और शाम ढलती रही

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11 टिप्पणियाँ

  1. बिखरे हुये लम्हों की लडी बना ली है
    जब चाहे गले मे डाल ली जब चाहे उतार दी
    झील का सारा पानी उतर आया आँखों में
    न जाने कितनी गागर खाली हैं

    सरल शब्द...बढिया भाव....अति उत्तम

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  2. हर दो पंक्ति नये बिम्ब के साथ अपनी बात कहती है। बहुत अच्छी कविता।

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  3. झील का सारा पानी उतर आया आँखों में
    न जाने कितनी गागर खाली हैं
    तैरता था उसमें तिनका कोई
    जो यूँ ही आँखों छलक गया कभी

    वाह वाह!!

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  4. बहुत अच्छी कविता है अनुपमा जी, बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  5. ्भाषा और शब्दो क चुनाव आकर्षित करता है…प्रभावित भी

    जवाब देंहटाएं
  6. अच्छी रचना है... अर्थ काफी गहरे और बहुआयामी हो सकते हैं कविता के एक एक पंक्ति मानों विस्तार से व्याख्या की मांग करती है....

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  7. ‘एक शाम’ कविता तो शाम को ही पोस्ट होनी चाहिये थी। सुबह-सुबह कैसे लग गयी ?अशोक कुमार पाण्डेय जरा मुझे भी बताने का कष्ट करेंगे कि कौन सी भाषा,कौन से शब्द पर वे लट्टु हैं ?

    जवाब देंहटाएं
  8. किनारे बैठे सोचती रही
    और शाम ढलती रही
    great sense
    regards

    जवाब देंहटाएं
  9. रचना में लय बद्धता की कमी अखरती है.. भाव गहरे होते हुये भी खाली पन सा महसूस होता है.. थोडे से प्रयास से इस कविता को प्रभावी बनाया जा सकता था.

    जवाब देंहटाएं

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