
मैं बहुत हंसता था। हंसना, हंसाना और आनंद के भौतिक पहलू को ही जीवन का आधार मानता था। कहा करता था - सृष्टि की उत्पत्ति जब आनंद-विभु से ही हुई है तो आनंद में ही निवास करना जीवन का सार है। लोग ब्रह्म-आनंद की बात करते तो बात काट देता कि इस अमूर्त,काल्पनिक अव्यावहारिक शून्यमनस्कता का समक्ष-आनंद के सामने कोई क्रियात्मक मूल्य नहीं है। गर्व से कहता था “मैं आनंदवादी हूं।” काव्य-कहानियों में निराशा और जीवन का नकारात्मक पहलू मुझे साहित्य में प्रदूषण की भांति लगता था।
आराम कुर्सी पर बैठे हुए हाथ में पकड़ी हुई पुस्तक का पन्ना उलटते हुए अनायास ही मस्तिष्क के किसी कोने में छुपी हुई अतीत की स्मृतियों ने ३५ वर्ष पुराने टाईम-ज़ोन में धकेल दिया। पुस्तक के पन्नों में शब्द लुप्त से हो गए। ऐसा लगा जैसे इन पन्नों में चल- चित्र की रीलें चल रही हो। मेरी हंसी, मेरी मुस्कान, आनंद-विभु से बनी हुई सृष्टि - सब झबिया की गोद में नन्हे से ’ललुआ’ की पथराई आँखों से ढुलके हुए दो आँसुओं में समाये जा रहे हों।
पुरानी घटनाएं सजीव हो उठी। दिल्ली का वही पुल तो है जिसके नीचे सड़क के दोनों ओर फुटपाथों पर एक ओर ११ और दूसरी ओर १० व्यक्ति जीवन- यातना भुगत रहे हैं। शयनागार, रसोई, कारोबारालय, चौपाल - सभी कुछ इसी में समाये हुए हैं। ना दरवाज़े हैं, ना खिड़की हैं, ताले का तो प्रश्न ही नहीं होता। इन लोगों की जाति क्या है? ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र या दलित वर्ग में तो यह लोग आ नहीं सकते। जाति-वर्गित लोगों को तो लड़ाई झगड़ा करने का, ऊँच और नीच दिखाने का, फूट डलवा कर देश में दंगा फ़साद करवाने का और फिर अवैध युक्तियों से अपने बैंक बैलेंस को फुलाने का, अनेक सामाजिक, असामाजिक, वैध या अवैध अधिकार हैं।
इन २१ व्यक्तियों को तो ऐसा एक भी अधिकार नहीं है तो इनकी जाति कैसे हो सकती है! तो फिर ये लोग कौन हैं? इनके नाम हैं - भिखारी, कोढ़ी, लंगड़ा, अंधा, भूखा-नंगा, अपंग, भुखमरा, कंगला, और गरीब होने के कारण इनके तीन नाम और भी हैं क्योंकि कहते हैं, “गरीबी तेरे तीन नाम - लुच्चा, गुंडा, बेईमान!!”
हाँ, उन्हीं लोगों के बीच में जो बैठी हुई जवान सी औरत है, उसका नाम है ‘झबिया’। उसकी गोद में जो नन्हा सा बालक है, उसे ये लोग ‘ललुआ’ कह कर पुकारते हैं। पिता का नाम ना ही पूछा जाए तो उचित होगा क्योंकि कभी कभी कुछ विषम स्थिति में असली नाम बताना किसी गोपनीय मृत्यु-दण्ड जैसे अंजाम तक भी पहुँचा सकता है।
झबिया की क्या मजाल है कि कह सके कि उसकी गोद में इस हड्डियों के ढाँचे पर पतली सी खाल का आवरण लिए हुए नन्हे से बच्चे का पिता नगर के प्रतिष्ठित नेता का जवान सुपुत्र है।
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उस दिन अमावस्या की रात थी जब वह अपनी चमचमाती सी कार खड़ी करके बाहर निकला था तो झबिया ने केवल इतना ही कहा था, “साब, भूकी हूं, कुछ पैसे दे दो। भगवान आपका भला करे!” शराब का हलका सा नशा, अंधी जवानी का जोश और नेतागीरी के आगे गिड़गिड़ाता हुआ कानून - बस उसने झबिया को घसीट कर कार में खींच लिया। झबिया ने तो केवल भूखा पेट भरने को दो रोटी के लिए कुछ पैसे माँगे थे, ना कि यह माँगा था कि अपने उदर में उसका बच्चा लेकर उसको भी भूख से मरता देखती रहे!
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गर्मियों की चिलचिलाती हुई धूप, बरसात की तूफानी बौछारें और कंपकंपा देने वाली सर्दियाँ इन पुलों के नीचे रहने वाले बिन वोटों के नागरिकों के जीवन को अगले मौसम को सौंप कर चल देती हैं। इस बार तो ठण्ड ने कई वर्षों का रिकार्ड तोड़ डाला। ये कंपकंपाते हुए अभागे बिजली के खम्बों की रोशनी पर टकटकी लगाए हुए हैं। शायद इतनी दूर से बिजली के बल्ब से ही कुछ गर्मी उन तक पहुंच जाए!
हिमालय की पर्वत-शृंखलाओं से शिशिर ऋतु की डसने वाली बर्फीली शीत लहर गगनचुम्बी अट्टालिकाओं से टक्कर खाती हुई हार मानकर खिसियाई बिल्ली की तरह इन जीवित लाशों पर टूट पड़ी। इन निरीह निस्सहाय अभागों ने बचाव के लिए कुछ यत्न करने का प्रयास किया जैसे कंपकंपी, चिथड़े, कोई फटी पुरानी गुदड़ी या फिर एक दूसरे से सट कर बैठ जाना। इससे अधिक वे कर भी क्या सकते थे? सभी के दाँत ठण्ड से कटकटा रहे थे जैसे सर्दी ध्वनि का रूप लेकर अपने प्रकोप की घोषणा कर रही हो। कुछ शोहदे बिगड़ैल छोकरे राह चलते हुए छींटाकशी से अपना ओछापन दिखाने से नहीं मानते, “ऐसा लगता है जैसे मृदंग या पखावज पर कोई ताल चगुन पर बज रही है।” इन ठिठुरे हुए बेचारों के कानों के पर्दे सर्दी के कारण जम चुके हैं, कुछ सुन नहीं पाते कि ये छोकरे क्या कुछ कहकर हँसते हुए चले गए। यदि सुन भी लेते तो क्या करते? बस अपने भाग्य को कोस कर मन मसोस कर रह जाते!
झबिया की गोद में ललुआ ठिठुर कर अकड़ सा गया है, ना ठीक तरह से रो पाता है, ना ही ज्यादा हिल-डुल पाता है। माँ उसे सर्दी से बचाने के लिए अपने वक्ष का कवच देकर जोर से चिपका लेती है। ललुआ माँ के दूध-रहित स्तनों को काटे जा रहा है। बड़ी बड़ी बिल्डिंगों से हार कर बड़े आवेग से एक बार फिर यह बर्फानी हवा का झोंका इन पराजित निहत्थों पर भीषण प्रहार कर अपनी खीज उतार रहा है।
एक गाड़ी इस हवा के झोंके की तीव्र गति को पछाड़ती हुई सड़क पर पड़े हुए बर्फीली पानी पर सरसराती हुई चली जाती है। कार के पहियों से उछलती हुई छुरी की तरह बर्फीली पानी की बौछारों से इन लोगों के दातों की कटकटाहट भयंकर नाद का रूप ले लेती हैं। ललुआ ने अकस्मात ही झबिया के वक्ष को काटना, चूसना बंद कर दिया, आंखें खुली पड़ी हैं, माँ की ओर टिकी हुई हैं; जैसे पूछ रहा हो, “माँ, मुझे क्यों पैदा किया था?”
झबिया उसे हिलाती-डुलाती है किंतु ललुआ के शरीर में कोई हरकत नहीं है। वह दहाड़ कर चीख़ उठती है। सभी की आँखें उसकी ओर घूम जाती हैं, बोलना चाहते हैं पर बोलने की शक्ति तो शीत-लहर ने छीन ली है!!
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पुस्तक के पन्नों पर ऐसा लग रहा है जैसे ललुआ पथराई आँखों से ढुलके हुए दो आँसू गिराते हुए कह रहा होः “मेरी आँखों में आँखें डाल कर ज़रा हँस कर तो दिखाओ!! तुम तो आनंदवादी हो! अरे, तुम क्या जानो कि जीवन की गहराइयों की तह में कितनी पीड़ा है!” मैंने पुस्तक साथ की मेज़ पर रख दी और आँखें मूँद लीं!!!
20 टिप्पणियाँ
NARAYAN NARAYAN
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील कहानी।
जवाब देंहटाएं"पुस्तक के पन्नों पर ऐसा लग रहा है जैसे ललुआ पथराई आँखों से ढुलके हुए दो आँसू गिराते हुए कह रहा होः “मेरी आँखों में आँखें डाल कर ज़रा हँस कर तो दिखाओ!! तुम तो आनंदवादी हो! अरे, तुम क्या जानो कि जीवन की गहराइयों की तह में कितनी पीड़ा है!” मैंने पुस्तक साथ की मेज़ पर रख दी और आँखें मूँद लीं!!!"
जवाब देंहटाएंमहावीर जी, आपकी लेखनी को प्रणाम। आपकी भाषा आपका कहन सब कुछ प्रभावी है।
बहुत अच्छी कहानी है। आपकी भाषा ही आपका परिचय दे रही है।
जवाब देंहटाएंमैं साहित्य शिल्पी का नीयमित पाठक केवल इस लिये हूँ कि स्तर इसका पैमाना है। महावीर शर्मा जैसे रचनाकार जहाँ प्रस्तुत होते हैं। इस कहानी की मार्मिकता आँख नम कर देती है।
जवाब देंहटाएंझबुआ के माध्यम से समाज को आईना दिखाया है आपने। बहुत संवेदनशील।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लघु कथा, बधाई।
जवाब देंहटाएंUltimate. Thanks.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
जीवन की सच्चाईयों से रुबरू कराती मार्मिक कहानी
जवाब देंहटाएंपुस्तक के पन्नों पर ऐसा लग रहा है जैसे ललुआ पथराई आँखों से ढुलके हुए दो आँसू गिराते हुए कह रहा होः “मेरी आँखों में आँखें डाल कर ज़रा हँस कर तो दिखाओ!! तुम तो आनंदवादी हो! अरे, तुम क्या जानो कि जीवन की गहराइयों की तह में कितनी पीड़ा है!
जवाब देंहटाएं"" जिन्दगी के मनोभावों , पीडा की अनुभूति , भावनाओ के रहस्यों से सुशोभित संवेदनशील कहानी।"
Regards
आदरणीय महावीर जी,
जवाब देंहटाएंसच्चाई को आपकी लेखनी ने
तेज धार दे दी जो दिल चिर गई :-(
- लावण्या
समाज के अव्वल लोगों की पैठ फ़ुटपाथों के इन बेपर्दा लोगों मे किस हद तक है, कहानी इस नंगे सच को तो उजागर करती ही है । साथ ही , आह से उपजने वाले गान के संवेदन शील 'आनंदवाद ' को बनाए रखने मे भी सक्षम रही है।
जवाब देंहटाएंप्रवीण पंडित
पराई पीडा को शब्दों में समेटना कोई खेल नहीं है... मार्मिक कथानक को बहुत ही सलीके से आपने शब्द बंद किया है... बधाई
जवाब देंहटाएंआदरणीय महावीर जी,
जवाब देंहटाएंलेखन की गहरायी क्या होती है आपकी इस प्रस्तुति से ज्ञात होता है। इस प्रस्तुति का आभार।
***राजीव रंजन प्रसाद
बेबसी की पीडाओं का भान करा कर
जवाब देंहटाएंआनंद वादी आज बिलखते क्यो दिखते हैं
जब सबका सिद्धांत धरा पर बना हुआ है..
प्रकृति का न्याय बडी चीज होता..
फिर यह अन्याय क्यूं है यह हमे बताओ
जन्म से मिलते सुख दुख का मतलब समझाओ
कोई संत बताये हमको एक पहेली
क्यों पीडाये किसी के घर खेले अट्खेली
और कोई मौज करे है अन्यायी है...
शोषन पर पलता है वाह वाही है...
है कोई सिद्धांत पार्श्व मे इसके निश्चित
करम फल या क्या है अब करो सुनिशिच्त...
उत्तम रचना है पर यह प्रशन खडे कर देती है रोतो पर कविता लिखना आम है पर पीडा का आकलन अच्छा है... पर समाधान खोजने की जरूरत है केवल रोतो को देख कर आंनद मागी भे रोने लगे यह कोई समाधान नही है आदर्णीय की रचना प्रभावित करती है... बधाई...
अद्भुत कहानी...पढ़ कर सिरहन सी हो रही है और अपने मानव होने पर शर्म भी आ रही है...शशक्त रचना...
जवाब देंहटाएंनीरज
MAHAVIR SHARMA JEE KEE LEKHNI SE
जवाब देंहटाएंJAB BHEE KOEE KAVITA YAA KAHANI
NIKALTEE HAI VO MAN KO JHAKJHOR
DETEE HAI."ANANDVADEE"EK AESEE
HEE KAHANI HAI.
आदरणीय महावीर शर्मा जी की
जवाब देंहटाएंअप्रतिम अभिव्यक्ति को सलाम.
हमारे तथाकथित सभ्य समाज का यही असली चेहरा है.
जीवन की गहराइयों में छिपी पीड़ा सचमुच महसूस करवाती
यह सार्थक रचना आन्दोलित करती है.
सादर
द्विज
समाज के एक नंगे सच की मार्मिक अभिव्यक्ति! आभार महावीर जी!
जवाब देंहटाएं“मेरी आँखों में आँखें डाल कर ज़रा हँस कर तो दिखाओ!! तुम तो आनंदवादी हो! अरे, तुम क्या जानो कि जीवन की गहराइयों की तह में कितनी पीड़ा है!” मैंने पुस्तक साथ की मेज़ पर रख दी और आँखें मूँद लीं!!!"
जवाब देंहटाएंआदरणीय महावीर जी,
भाव, भाषा-शैली सभी का
सौंदर्य अनुपम....
कहीं अंदर तक पैंठता चला गया
एक-एक शब्द.....वाह......
नमन आपकी लेखनी को....
बहुत अच्छी प्रस्तुति.....
बधाई...
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.