
हर रोज अपने में
भूल जाता है भावनाओं की कद्र
हर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
देखता है दुनियाँ को
टी. वी. चैनलों की निगाहों से,
महसूस करता है फूलों की खुशबू
कागजी फूलों में
पर नहीं देखता
पास पडोस का समाज
कैद कर दिया है
बेटे को भी
चारदीवारियों में
भागने लगा है समाज से
चौंक उठता है
कॉलबेल की हर आवाज पर
मानो खडी हो गयी हो
कोइ अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आ कर
*****
36 टिप्पणियाँ
खुबसूरत
जवाब देंहटाएं...mehsoos karta hai phoolo ki khushbu kaaghzi phoolo meiN...
जवाब देंहटाएंaaj ke iss pdaarthvaadi yug ke mashini insaan ki steek abhivyakti
Badhaaee... !
---MUFLIS---
एक लम्बे समय बाद आकांक्षा जी को फिर से साहित्याशिल्पी में पढ़ रहा हूँ. सिमटता आदमी सिर्फ कविता भर नहीं है, बल्कि आज के जीवन का एक कड़वा यथार्थ है. बधाई स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंदेखता है दुनिया को
जवाब देंहटाएंटी. वी. चैनलों की निगाहों से,
पर नहीं देखता
पास पडोस का समाज
....कितनी सही बात कही आकांक्षा जी ने आज के दौर पर.
वाकई आपकी कविता पढ़कर आनंद आ गया. बड़ी खूबसूरती से आप विषय और शब्दों का चयन करती हैं.
जवाब देंहटाएंबस यूं ही
जवाब देंहटाएंबिन दस्तक... दरवाजा खोलता है
कौन आदमी में बोलता है
कि कौन है?
दिन भर की भागदौड़ में
चार पैसों की जोड़ में
चार पल की जिन्दगी
ज्यों चींटियों की भौंर है
दो दिन हुए
बच्चों की शक्ल नहीं देखी
मेरे मन में ही पत्नी रूठी बैठी
आज कह ही दूंगा ये नौकरी नहीं
पर क्यों? - कल का डर है।
हाय! किसके हाथ डोर है
- राजे-शा
बहुत खूब. समाज को आइना दिखाती कविता.
जवाब देंहटाएंचौंक उठता है
जवाब देंहटाएंकॉलबेल की हर आवाज पर
मानो खडी हो गयी हो
कोइ अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आ कर
.....very nice.
बहुत ही खूबसूरत कविता के लिए बारम्बार बधाई धन्यवाद और शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंBbahut bahut sahi kaha.Sundar abhivyakti
जवाब देंहटाएंआकांक्षा जी की कविताओं की मैं कायल हूँ. सहज-सारगर्भित शब्दों में यथार्थ का इतना अनुपम चित्रण विरले ही देखने को मिलता है. इसे आकांक्षा जी की खूबी कहें या फिर उनकी कविताओं की ! सिमटता आदमी कविता की एक-एक पंक्तियाँ सोचने को मजबूर करती हैं कि आदमी कहाँ जा रहा है ? आधुनिक प्रौद्योगिकी के साथ मानवीय क्षमताओं का विस्तार होने के साथ उसकी संवेदनाएं सिमटती जा रही हैं और आकांक्षा जी की इस कविता में यह बखूबी देखने को मिल रहा है.
जवाब देंहटाएंCelebrate Chocolate-Pizza day today and enjoy urself with a lot of fun with tadka of beautiful poems.
जवाब देंहटाएंभूल जाता है भावनाओं की कद्र
जवाब देंहटाएंहर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
........
क्या करे, आदमी दिनों-ब-दिन स्वार्थी होता जा रहा है. उसकी भौतिक लिप्सा ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही. मानो सब कुछ बटोरकर अपने साथ दूसरी दुनिया में ले जायेगा. आपकी कविता ऐसे मुद्दों को उठाकर अपनी प्रतिबद्धता को दर्शाती है. बधाई....!!!!
@ Rashmi Singh, Chocolate-Pizza day का नाम sunate ही मुँह में पानी आ गया. काश ऐसा होता कि विचार दिमाग में आते और मुंह में सीधे Chocolate-Pizza खाने को मिल जाता.
जवाब देंहटाएंएक दम सच्ची कविता ... एक वास्तविक तस्वीर खींचती हुई .. विकास होने के साथ साथ हमारे हाथ से कुछ फिसल भी रहा है जो दीखता नहीं है पर महसूस किया जा सकता है ..
जवाब देंहटाएंIts not a poem, its a truth. Nice.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
IS DAUR KE AADMI KEE SACHCHEE
जवाब देंहटाएंTASWEER.
आकांक्षा जी गद्य हो या पद्य आपका दोनों ही पर समान दखल है।
जवाब देंहटाएंचौंक उठता है
कॉलबेल की हर आवाज पर
मानो खडी हो गयी हो
कोइ अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आ कर
बधाई स्वीकारें।
यह तो अभी शुरूआत है
जवाब देंहटाएंआगे आगे देखिएगा
क्या क्या सच्चाईयां सामने आती हैं
अगर लाईट चली गई तो
कोई न कोई दरवाजा खटखटाएगा
आपने नहीं खोला तो उसका मन
खट्टा हो जाएगा, इसलिए काल बैल में
बैटरी समय से बदलती रहें
बिजली चली जाए फिर भी लोहा लेती रहें।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं-:प्रति-अभिव्यक्ति:-
जवाब देंहटाएंफैल रहा है वह
हर रोज़ अपनी इच्छाओं के वातयन में -
अलस्सुबह बिस्तर के छोड़ने से
रात को वापिस लौटने तक।
भूला नहीं,याद है उसे
अपनी मुकम्मल दुनिया
पूरी तरह और नाशाद है आज भी!
दुनिया उसे दीखती कहाँ?
बेतरतीव बिछे कागज के
फूलों में खुशबू होती कहाँ,
पास-पड़ोस क्या,
अपने ही भीतर के तहखानों में
बंद है आज आदमी अपने आदमीपन को
अदृश्य बेड़ियों से जकड़
सुख की दुर्दमनीय लालसा में।
कोई क्या बाहर की वस्तु दस्तक देगी उसे ,
कितनी विडंबना है कि
वह खुद अपनी ही अंतरात्मा की पुकार से
थर्रा रहा है, और कर रहा है
अनसुनी अपनी ही आवाज़ें !
संकुचित हो रहे नित्य उसके सुख-स्वप्न सब
और पसर रहे हैं रोज़ उसके दुख-प्रमाद सब।
आकांक्षा जी, कितनी भयावह बात है कि
फैल रहा है हर रोज़ वह इस तरह
अपनी इच्छाओं के वातयन में
आपकी कविता के विपरीत!
---सुशील कुमार (sk.dumka@gmail.com)
मोबाईल- 09431310216
(किसी को आपत्ति है क्या, इस कविता पर?)
आपकी यह कविता एक ऐसा सत्य जो शब्दों में ढल कर मस्तिष्क को झंझोड़ गया।
जवाब देंहटाएंदिल को छू गई आपकी कविता!
वाह वाह!!
जवाब देंहटाएंकॉलबेल की हर आवाज पर
जवाब देंहटाएंमानो खडी हो गयी हो
कोइ अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आ कर
सच लिखा है आपने।
भूल जाता है भावनाओं की कद्र
जवाब देंहटाएंहर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
सच्चाई से रुबरू कराती आपकी कविता पसन्द आई
बहुत अच्छी कविता है। बधाई।
जवाब देंहटाएंबेहद अफसोस है कि कुछ लोग अभी भी अन्यमनस्क हैं और समझ नहीं पाते मेरी टिप्पणी का मतलब !
जवाब देंहटाएंसुशील जी ने तो एक प्रतिकविता ही रच डाली।
जवाब देंहटाएंदरअसल यह कविता है ही नही…आकान्क्षा जी से क्षमा…लेकिन कविता के लिये जिस भाषा , जिस बिम्बात्मक अनूभूति और जिस सम्वेदना की ज़रूरत होती है…वह तो नही ही है , कथ्य के स्तर पर भी अत्यन्त घिसा पिटा बयान है जिसमे कोई चमक नही।
राजीव जी , कमेन्ट तो खैर सब पर आयेन्गे- मै तेरी तु मेरी - वाला खेल जो ठहरा पर सच मानिये ऐसी चीज़ें छापकर आप साहित्य का कोई भला नही कर रहे!
सुशील जी आप गम्भीर कविता रचते है, ऐसे उसे जाया न करे…प्रार्थना समझें इसे।
बिलम्ब से प्रतिक्रिया के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ.. नेट की बजह से...
जवाब देंहटाएंकविता कवि के मनोभाव का दर्पण है और जरूरी नही की हर पाठक को उसमे वही बिम्ब दिखायी दे जिस की कल्पना कवि ने कविता रचते समय की थी... वाह वाह कह देना या फ़िर यह कह देना की यह तो कविता है ही नही वस्तुत इस शिल्प पर कीचड उछालने से अधिक कुछ नही.. आप सभी से अनुरोध है की टिप्पणी में संयत भाषा का प्रयोग करें जिस से लिखने वाले के मन पर भी कोई दुश प्रभाव न पड़े बल्कि उसका उत्साह वर्धन हो... मेरा यह मत कदापि नही की आप आलोचना न करें .
भाई मोहिन्दर जी
जवाब देंहटाएंआपकी तरह मेरे पास वह विशिष्ट चश्मा नही है जिससे इस कविता का अलॉकिक बिम्ब देख पाऊँ आप देख पाये बधाई।
कवि ने क्या सोचकर लिखा है वह नहि महत्वपुर्ण वह है जो उससे पाठक ग्रहण करता है जो वह सम्प्रेषित कर रहा होत है।
जिस कवि मे आलोचना बर्दाश्त करने की हिम्मत नही उसे किसी सार्वजनिक मन्च पर आना ही नही चाहिये। आकान्क्षा जी युवा है और मेरा विश्वास है कि बहुत आगे जायेन्गी मेरी उनसे कोई व्यक्तिगत शत्रुता नही। एक खराब कविता से कुछ तय नही होता लेकिन पाठक के तॉर पर इसे रेखन्कित करना हमारा फ़र्ज़ है।
कविता और साहित्य मेरे लिउए जीवन का ही एक हिस्सा है,शॉक नही। अम्बुज जी से शब्द उधार लूँ तो 'कविता के बिना तो मै धुआ ही हो सकता हूँ 'तो मेरे सामने 2 ही विकल्प है या तो नज़रन्दाज़ करूँ या सच कहूँ …मैने दूसरा चुना।
भाषा की जहाँ तक बात है तो प्लीज़ मुझे उपदेश ना दें … असन्यत भाषा मैने कभी उपयोग नही की।साहित्य का अनुशीलन मै वर्षो से कर रहा हू गद्य और पद्य दोनो मे और कभि भी यह आरोप नही लगा। हाँ इमानदारी से लिखी बात चुभती तो है।
आकान्क्षा जि प्लीज़ इसे स्पोर्ट्स स्पिरिट से लीजिये और खूब अच्छी अच्छी कवितये लिखिये…शुभकामनाये।
उफ़ ये यूनिकोड्… अगर इतनी गल्ती प्रिन्ट मे होती तो लोग लटका ही देते।
जवाब देंहटाएंनया हूँ, सोचता हूँ इस बहस में न ही पडूँ। हाँ कविता अपनी बात कह देती है और बिना चाशनी के कह रही है। मुझे अच्छी लगी है।
जवाब देंहटाएंaakanksha ,
जवाब देंहटाएंderi se aane ke liye maafi chahta hoon.. business tour par tha.
aapki ye kavita , yataarth ko jeeti hui hai , aur aaj ke yug ki bhayawaah sacchai hai .
बेटे को भी
चारदीवारियों में
in pankhtiyon ne kahin aankhe nam kar di ...
aakanksha ..
kudos to you ..
aapko bahut badhai ..
vijay
poemsofvijay.blogspot.com
...तो अब साहित्य-शिल्पी पर भी ''विरोध के लिए विरोध'' होने लगा है. कुछ लोगों को अपना भाव बढ़ाने के लिए ऐसे फतवों की जरुरत पड़ती है.
जवाब देंहटाएं@ Ashok ji ! कवि ने क्या सोचकर लिखा है वह नहि महत्वपुर्ण वह है जो उससे पाठक ग्रहण करता है जो वह सम्प्रेषित कर रहा होत है।....तो क्या यह माना जाय की आपसे पहले जिन पाठकों ने भाव ग्रहण किये हैं, उन्हें हिंदी-साहित्य की समझ नहीं और आप बड़े तीसमारखां हैं...इसी खुशफहमी में रहिये और कठमुल्लों की तरह फतवे जारी करते रहिये...मुबारक हो !!
जवाब देंहटाएंsach bat kahna chahunga
जवाब देंहटाएंjesa mujhe laga
samaj me boutikvad ke pasarte pairo ke padchinho ko syahi di hain aap ne
bahut achhi
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.