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बड़े साहब [उपन्यास अंश] - रूपसिंह चंदेल

उसकी नौकरी की शुरुआत मेरठ से हुई थी। मेरठ में उसके विभाग के तीन कार्यालय थे; दो निदेशक स्तर के और एक संयुक्त निदेशक स्तर का। कुछ वर्ष पूर्व वहाँ के दो कार्यालयों को जम्मू और पूना स्थानांतरित कर दिया गया था। कारण था वहां की शक्तिशाली कर्मचारी यूनियन। यद्यपि उसके विभाग में 'यूनियन' की कल्पना हास्यास्पद-सी लगती है, बावजूद इसके कि पूरे देश में निदेशक स्तर के पन्द्रह कार्यालयों में छोटे-बड़े कर्मचारी संगठन थे। उनमें भी आपसी विभाजन था। दो संगठन दो राजनीतिक दलों से सम्बद्ध थे। एक सी.पी.एम. समर्पित था, जबकि दूसरा कांग्रेस। लेकिन दोनों संगठनों का दोनों पार्टियों से रिश्ता नहीं के बराबर था। सी.पी.एम. समर्पित संगठन का कार्यालय कलकत्ता स्थित निदेशक कार्यालय में था - अर्थात उससे जुड़ी शाखाओं को दिशा निर्देश कलकत्ता कार्यालय से जारी होते थे, जबकि दूसरी का कार्यालय पूना में था। लेकिन दूसरे वाले को कमजोर संगठन माना जाता था।

मेरठ यूनियन कलकत्ता से सम्बद्ध थी और मेरठ में ही लगभग एक हजार कर्मचारी उसके सदस्य थे। कितनी ही बार वहाँ की यूनियन अधिकारियों के विरुद्ध सड़कों पर उतर चुकी थी। जिस विभाग में हड़ताल की कल्पना संभव नहीं थी, उसके मेरठ संगठन के लोगों ने संयुक्त निदेशक त्रेहन को निलम्बित करने के लिए हड़ताल की धमकी दी थी और धरने पर बैठे थे। लेकिन प्रशासन अनिल त्रेहन को बचाने पर आमादा था और पुलिस ने भी उसका साथ दिया था। विभागीय उच्चाधिकारी त्रेहन का साथ उसी प्रकार दे रहे थे जैसे राजनीति में भिन्न पार्टियों के नेता एक-दूसरे पर घोटालों और अपराधों के आरोपण-प्रत्यारोपण करते हैं, जो होते शत-प्रतिशत सच हैं, लेकिन आरोपित नेता जब सत्ता से बाहर होता है और आरोप लाने वाला सत्ता में तब आरोपित के विरुद्ध कोई कार्यवाई नहीं की जाती। इस मामले में उत्तर प्रदेश और बिहार को विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के अच्छे उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। वैसे देश का शायद ही कोई राज्य हो जहाँ घोटाले न हों और कोई ही सरकारी विभाग हो जहाँ रिश्वतखोरी न हो। ये सब अब इस लोकतन्त्र में घुलमिल गए हैं। कभी इनका समाचार जनता को चौंकाता था, वैसे ही जैसे, आज दिल्ली के अखबारों में प्रकाशित बलात्कार या दुर्घटना-लूटपाट की कोई घटना, लेकिन अब अखबार खोलने से पहले ही पाठक यह सोच चुका होता है कि दो-चार ऐसी घटनाएं उसमें होगीं ही और उसे या तो वह बिना पढ़े छोड़ देता है या कुछ पंक्तियाँ पढ़कर। इसे उसकी संवेदनहीनता कहा जा सकता है, लेकिन इसका दोष व्यवस्था को ही जाता है, जो अपराधों को नियन्त्रित करने में या तो रुचि नहीं लेती या आधी-अधूरी मानसिकता से नियन्त्रित करती है।

बात अनिल त्रेहन की हो रही थी। अनिल, लम्बा, खूबसूरत और स्मार्ट अफसर था। कानपुर के क्राइस्टचर्च कॉलेज का छात्र रहा था। उसने अर्थशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन किया था और पहले ही प्रयास में आई.ए.एस. एलाइड में चयनित हुआ था। वह खूबसूरत था इसलिए कॉलेज समय में कुछ छात्राओं के साथ फ्लर्ट कर चुका था। एक छात्रा से उसने शादी का वायदा किया था। उसके सब्जबाग में आकर वह उसे समर्पित हो चुकी थी। परिणाम जो होना था, हुआ था, लेकिन अनिल तेज था। वह उसे डाक्टर के पास ले गया था और, "शादी से पहले कुछ नहीं और शादी नौकरी के बाद" कह उसे आश्वस्त कर डाक्टर की सलाह पर चलने का सुझाव दिया था। डाक्टर ने अनिल त्रेहन को चिन्ता मुक्त कर दिया था, लेकिन लड़की डाक्टर से मुक्त न हो पायी थी। लम्बे समय तक डाक्टर उसे ब्लैकमेल करता रहा था। अंततः दुखी लड़की ने अनिल त्रेहन से अपनी मुक्ति की गुहार की थी और जब उसने उसे झिड़क दिया तब लड़की ने कॉलेज प्रशासन से शिकायत की थी। उसने त्रेहन पर उसे बर्बाद करने और उक्त डाक्टर के ब्लैकमेल की कहानी प्रिन्सिपल को सुनाई। प्रिन्सिपल ने त्रेहन को बुलाया और उसने दो टूक शब्दों में कहा, "सर, नेहा के साथ मित्रता के अतिरिक्त कुछ भी न था। वह मुझ पर झूठा आरोप लगा रही है। वह मुझसे रुपये ऎंठना चाहती है।"

प्रिन्सिपल ने नेहा और उसे साथ बुलाकर वास्तविकता जाननी चाही, लेकिन त्रेहन घाघ था। उसने फिर रुपये ऎंठने की कहानी कही, "सर , इसने मुझसे पचीस हजार रुपये मांगे थे। यू नो सर, मैं कहाँ से दे सकता हूँ. फैक्ट्रियां मेरी नहीं, पापा की हैं। मेरा अपना कुछ नहीं सर, कार-ड्राइवर भी पापा ने दिया हुआ है। जब मैंने रुपये देने में असमर्थता व्यक्त की तो नेहा ने मुझ पर आरोप लगा दिया।"

"यह, डाक्टर सौरभ जैन कौन है?" प्रिन्सिपल ने अनिल की आंखों में देखते हुए पूछा।

"मैं उन्हें नहीं जानता सर।"

"नेहा का कहना है कि तुम उसे उसके पास ले गए थे, इलाज के लिए।" प्रिन्सिपल ने जानबूझकर गर्भपात की बात नहीं कही, जबकि नेहा ने इस विषय में उन्हें सब बता दिया था।

"सर, मैं उस डाक्टर को जानता ही नहीं। आप चाहें तो डाक्टर को बुलाकर पूछ लें।"

प्रिन्सिपल ने डाक्टर से पहले ही पूछताछ कर ली थी और 'नेहा नाम की किसी लड़की को वह नहीं जानता और न ही किसी अनिल त्रेहन को।" डाक्टर ने स्पष्ट इंकार कर दिया था।

और नेहा नाम की एक कुशाग्र बुद्धि छात्रा ने कॉलेज छोड़ दिया था, जबकि दोनों की मित्रता का आधार था आई.ए.एस. की साथ-साथ तैयारी। नेहा को आई.ए.एस. का स्वप्न भी त्यागना पड़ा, जबकि त्रेहन सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता अपनी शिकार युवतियों-महिलाओं की संख्या में वृद्धि करता गया था। इलाहाबाद, हैदराबाद, पूना, चण्डीगढ़ आदि स्थानों में नियुक्त रहने के बाद, वह जब मेरठ पहुँचा तब उसके चर्चे उससे पहले ही वहाँ पहुँच चुके थे।

जिन दिनों त्रेहन संयुक्त निदेशक के रूप में मेरठ पोस्ट हुआ, उससे एक वर्ष पूर्व सुशान्त ने वहाँ उसी कार्यालय में ज्वायन किया था। वह नया था और कार्यालयों की राजनीति के विषय में अनभिज्ञ। जब लोग आपस में किसी विषय पर चर्चा करते, वह सुनता, लेकिन उसकी समझ में प्रायः कुछ भी नहीं आता था। त्रेहन के विषय में लोग कहते, 'वह काला चश्मा पहनकर प्रायः सुबह कार्यालय समय से कुछ देर पहले कार्यालय के गेट पर आकर खड़ा हो जाता है और कार्यालय में प्रवेश करने वाले कर्मचारियों को देखता रहता है। बोलता किसी से कुछ भी नही, लेकिन उसका उद्देश्य कर्मचारियों में भय उत्पन्न करना होता है और होता है महिला कर्मचारियों की टोह लेना। चण्डीगढ़ और पूना में कुछ महिला कर्मचारियों को आतंकित कर उनके साथ सम्बन्ध स्थापित करने में वह सफल रहा था।'

"मुझे इन बातों पर विश्वास नहीं होता। आखिर वह भी सरकारी कर्मचारी है - अफसर है तो क्या, वह किसी को अपने साथ सोने के लिए विवश नहीं कर सकता.." सुशान्त ने अपने सहयोगी मधुसूदन सहाय से कहा था।

"सुशांत, बहुत भोले हो तुम। तुम जिस विभाग में नियुक्त हुए हो, जानते हो, किसी भी कर्मचारी की औकात बताने के लिए उसका सहज ढंग क्या है?"

वह चुप रहा था।

"ट्रंसफर, माई डियर। और जो प्रोबेशन में हों उनके सिर पर दो वर्षों तक तलवार लटकती रहती है। अधिकारी उस तलवार का जैसा चाहे इस्तेमाल कर सकता है।" क्षणभर चुप रहकर मधुसूदन बोला था, "त्रेहन, सदैव प्रशासन में रहा। प्रशासन का छोटा अफसर, जिसे आप सेक्शन अफसर कहते हैं, अपने को शेर समझता है। फिर यह सहायक, उपनिदेशक रहा - नौकरी करनी है तो शर्तें मानो वर्ना घर बैठो...... और कुछ ने शर्तें मानी ही होंगी। अफवाहों के भी सिर पैर होते हैं। मेरठ की अपेक्षा दूसरे कार्यालयों की यूनियनें कमजोर हैं - त्रेहन जानता था कि यूनियन के पदाधिकारियों को टुकडे़ फेंककर अपनी मनमानी करता रह सकता था।"

"टुकड़े----- मतलब?"

"टुकड़े का मतलब, किसी न किसी प्रकार उन्हें ओब्लाइज करना। किसी यूनियन नेता का स्थानान्तरण करवाने या रुकवाने के लिए हेड क्वार्टर आफिस को सिफारिश करना, किसी के भाई-भतीजे को कैजुअल रखना----- इसी प्रकार----- और यूनियन वाले उसके हर काले-सफेद के लिए चुप्पी साधे रहे। तो सुशान्त जी, ऐसे व्यक्ति का नाम है अनिल त्रेहन। पहुँच ऊँची है। उसके खिलाफ ढेरों शिकायतें हेड-क्वार्टर आफिस से लेकर मन्त्रालय तक जाती हैं। लेकिन पत्ता भी नहीं हिलता।"

वही अनिल त्रेहन उसके कार्यालय में संयुक्त निदेशक होकर आ रहा है।

*********

त्रेहन स्थितियाँ भाँपकर काम करने वाला व्यक्ति था। उसे मालूम था कि मेरठ की यूनियन मजबूत थी। कहा जाता था कि बड़े से बड़े खुर्राट अफसर मेरठ पोस्टिंग से घबड़ाते थे, क्योंकि यूनियन नेता मामूली बात में ही उनका अपमान कर देते थे।

ज्वाइन करने के दूसरे ही दिन त्रेहन ने यूनियन के पदाधिकारियों की बैठक बुलायी। परिचित वह उनसे पहले ही दिन हो चुका था। हुआ यह था कि उसे सड़क के रास्ते दिल्ली से मेरठ आना था। वह चण्डीगढ़ से दिल्ली आ गया था और अपने मेरठ पहुँचने का कार्यक्रम उसने मेरठ के सहायक निदेशक को फोन पर बता दिया था। उसके दिल्ली पहुँचने की सूचना मेरठ के सभी कार्यालयों में फैल गई थी। कुछ ही घण्टे में यूनियन नेता एकत्रित हुए थे और उन्होंने त्रेहन के आगमन के विषय में चर्चा की थी। तय हुआ था कि यूनियन के तीन नेता, सेक्रेटरी, प्रेसीडेण्ट और एक सदस्य अगले दिन सुबह त्रेहन को लेने दिल्ली जायेंगे। खाली स्टाफ-कार उनके साथ जायेगी, जिसमें त्रेहन मेरठ आयेगा।

यूनियन नेताओं ने त्रेहन को फोन किया। वह रजौरी गार्डन में अपनी साली के घर ठहरा हुआ था। दरअसल त्रेहन वही चाहता था जो यूनियन नेता करना चाहते थे। यही परम्परा थी। सुशान्त को बताया गया था कि यह परम्परा देसी अफसरों को अंग्रेजों से विरासत में मिली थी। अंग्रेज चले गए थे, लेकिन उनकी बादशाहत को देसी अफसर भोग रहे थे। भले ही नेता-मन्त्री अपने को बादशाह मानते हैं, लेकिन वस्स्तविकता यह है कि वे ब्यूरोक्रेसी के सामने बौने बादशाह हैं। और कर्मचारी----- अपने कर्मचारियों को ये बादशाह गुलामों से अधिक आँकने को तैयार नहीं। मेरठ की यूनियन वाले भी इस हकीकत को जानते थे और उनका प्रयास रहता कि वे किसी भी अफसर से टकराव को टालें। पहले वे सभी के साथ तादातम्य स्थापित करने का प्रयत्न करते। आने वालों को भी वहाँ की स्थिति की जानकारी होती थी, अतः वह भी टकराहट टालने का प्रयत्न करता था। दूसरे शहरों में यूनियन वालों से भिन्न मानसिकता मेरठ वालों की न थी। वे भी अफसरों से लाभ उठाना चाहते थे, लेकिन एक मजबूत यूनियन का लाभ उठाते हुए वह उसे अपनी ताकत का एहसास भी करवाते रहते थे।

दिनभर में अनिल त्रेहन के स्वागत की पूरी योजना तैयार कर ली गई थी। अगले दिन त्रेहन को लेने गए यूनियन नेता वहाँ से चलते समय मेरठ फोन करके बतायेगे, जिससे संयुक्त निदेशक कार्यालय जहाँ त्रेहन को ज्वाइन करना था, का सहायक निदेशक कार्यालय के मुख्य गेट पर उसके स्वागत के लिए खड़ा रहेगा। मुख्य गेट से त्रेहन के चैम्बर तक लाल कार्पेट बिछाया जाना था। फूल-माला----- उसी प्रकार की पूरी व्यवस्था की जानी थी जैसी किसी भी मन्त्री के पदार्पण के समय इस देश में की जाती है।

त्रेहन की कार जैसे ही दूर से आती दिखी, कार्यालय में शोर मचा, "आ गये---- आ गये बड़े साहब----."

पूरा कार्यालय, जिसमें लगभग तीन सौ कर्मचारी थे, गेट की ओर लपका था। सहायक निदेशक, जो मोटा, गठिया का मरीज और दुखी चेहरे वाला पचपन वर्षीय व्यक्ति था, जिसका नाम डोरी लाल कालरा था, हड़बड़ाकर गेट की ओर दौड़ा। हड़बड़ाहट में वह सीढ़ियों पर गिरते बचा। वह बुके और फूलों की माला भूल गया। तुरन्त पलटा और चपरासी नन्दलाल पाण्डे को चीखते हुए आवाज दी, "पाण्डे, जल्दी , बड़ा साहब आ गया----- फूल, माला---- बुके----- हरिअप----."

उम्र और नौकरी में वरिष्ठ होने के कारण त्रेहन के स्वागत का काम डोरी लाल को सौंपा गया था, जो एक रैंकर था, जबकि आई.ए.एस. अलाइड में चयनित मोहित कुमार, जो युवा था, वहाँ प्रशासन का सहायक निदेशक था और ऐसे कार्य प्रशासन की जिम्मेदारी होते थे।

संयोग था कि डोरीलाल कालरा एक मिनट पहले पाण्डे के साथ गेट पर पहुंच चुका था। कर्मचारियों का हुजूम पंक्तिबद्ध गैलरी में दोनों ओर वैसे ही खड़े थे अपने भावी इंचार्ज के स्वागत के लिए जैसे किसी मुख्य मन्त्री के स्वागत के लिए उसके सेक्रेटरियेट के लोग और उसके अपने मंत्री खड़े होते हैं। त्रेहन की गाड़ी झटके से गेट के बाहर रुकी। ड्राइवर मशीनी ढंग से दौड़कर आया और उसने बड़े साहब के लिए गाड़ी का दरवाजा खोला, लेकिन तभी दूसरी गाड़ी से, जो त्रेहन की गाड़ी के पीछे आ रुकी थी, यूनियन वाले उतरे थे और ड्राइवर की ही भांति तीव्रता प्रदर्शित करते हुए त्रेहन का दरवाजा खोलने के लिए दौड़कर गए थे, लेकिन तब तक त्रेहन उतर चुका था। तीनों नेता उसके इर्द-गिर्द ऎसे हो लिए थे, जैसे मन्त्री के इर्द-गिर्द सुरक्षा गार्ड।

त्रेहन मुस्कुराया था। कालरा ने आगे बढ़कर भारी माला उसके गले में डाली, एक युवती कर्मचारी, जिसे इस काम के लिए नियुक्त किया गया था, ने त्रेहन को बुके पकड़ाया। यूनियन की ओर से भी बुके भेंट किया गया और माला पहनाई गई। त्रेहन ने सभी अफसरों से हाथ मिलाया, उनके परिचय प्राप्त किये। तीन सीढ़ियाँ चढ़कर वह गैलरी में पहुँचा। कालरा, मोहित कुमार, दूसरे अफसर और यूनियन नेता उसके पीछे थे। त्रेहन गैलरी में दोनों ओर पंक्तिबद्ध खड़े कर्मचारियों पर इस प्रकार दृष्टि डालता आगे बढ़ा था मानो वह सैन्य निरीक्षण कर रहा था।

त्रेहन के चैम्बर को किसी दुल्हन की भांति सजाया गया था। कालीन पर सधे कदम रखता, अपने उच्च-अधिकारी होने के गर्व के बोझ तले दबा वह विजयोल्लसित-सा चैम्बर में दाखिल हुआ। उसने चारों ओर नजरें घुमाकर चैम्बर को देखा, और आश्वस्त हुआ कि कालीन और पर्दे बदलने के अतिरिक्त सब कुछ दुरस्त था।

दरअसल यह भी परम्परा थी, सुशान्त को यह भी बताया गया था कि यह परम्परा अंग्रेजों से चलकर आई थी या आजादी के बाद देसी अफसरों की देन थी, इस पर शोध होना था कि जब कोई नया उच्चाधिकारी किसी दफ्तर में स्थानान्तरित होकर आता और यदि वह उस दफ्तर का इंचार्ज होता तो वह अपने से पहले वाले अफसर के समय के पर्दे, कालीन, यहाँ तक कि फर्नीचर आदि बदल देता है। उसके द्वारा त्यागी गई वस्तुएं प्रायः छोटे अफसरों के कमरों की शोभा बढ़ाती हैं या नीलाम होकर सस्ती कीमत में छोटे अफसरों के घर पहुँच जाती हैं। त्रेहन ने कालीन और पर्दे ही बदलवाने का निर्णय किया था जबकि केन्द्र और राज्य सरकारों के मन्त्रियों में अपने पूर्व मन्त्री के समय की वस्तुओं को बदल देने की सनक का परिणाम आम आदमी भोगता है। इस सबमें अरबों खर्च हो जाते हैं और अनेक जन-उपयोगी योजनाएं धनाभाव के बहाने रोक दी जाती हैं।

कार्यालय में स्वागत सत्कार के बाद त्रेहन अपना बंगला देखने गया, जो उसके लिए सुरक्षित था। बंगले प्र.र. विभाग के अधीन थे और वह विभाग 'रासुल' विभाग की सूचना पर उच्चाधिकारी के लिए बंगला सुरक्षित कर देता था। वैसे तो प्रायः यही होता था कि आने वाले अफसर के लिये जाने वाला अफसर बंगला खाली कर जाता था और वह आने वाले के लिए सुरक्षित रहता था।

उस दिन त्रेहन का सारा दिन प्रशासन के अफसरों और कर्मचारियों से मिलने और कार्यालय की स्थितियों को समझने में बीता था। अगले दिन का समय उसने यूनियन नेताओं के साथ मुलाकात के लिए निश्चित किया था।


********* 
उपन्यास - गुलाम बादशाह नाम से शीघ्र ही प्रवीण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली से प्रकाश्य है.

प्रस्तुत उपन्यास अंश इसी उपन्यास का हिस्सा है। 
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लेखक परिचय: - 

१२ मार्च, १९५१ को कानपुर के गाँव नौगवां (गौतम) में जन्मे वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चन्देल कानपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. हैं।

अब तक उनकी ३८ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ६ उपन्यास  जिसमें से 'रमला बहू', 'पाथरटीला', 'नटसार' और 'शहर गवाह है' - अधिक चर्चित रहे हैं, १० कहानी संग्रह, ३ किशोर उपन्यास, १० बाल कहानी संग्रह, २ लघु-कहानी संग्रह, यात्रा संस्मरण, आलोचना, अपराध विज्ञान, २ संपादित पुस्तकें सम्मिलित हैं। इनके अतिरिक्त बहुचर्चित पुस्तक 'दॉस्तोएव्स्की के प्रेम' (जीवनी)  संवाद प्रकाशन, मेरठ से प्रकाशित से प्रकाशित हुई है।

उन्होंने रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय के अंतिम उपन्यास 'हाजी मुराद' का हिन्दी में पहली बार अनुवाद किया है जो २००८ में 'संवाद प्रकाशन' मेरठ से प्रकाशित हुआ है।

सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन

दो चिट्ठे- रचना समय और वातायन

संप्रति: roopchandel@gmail.com  
         roopschandel@gmail.com

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11 टिप्पणियाँ

  1. प्रस्तुत उपन्यास अंश से उपन्यास के तेवरों का बखूबी पता चलता है। साहित्य शिल्पी से अनुरोध है कि जब यह उपन्यास प्रकाशित हो तो इसकी सूचना भी प्रकाशित करें जिससे इसे पढने की चाह पूरी हो।

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  2. I would like to read full novel.

    Alok Kataria

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  3. उपन्यास , अफसरशाही की म्लान हो चुकी आत्मा को सामने रखता हुआ प्रतीत होता है. प्रतीक्षा रहेगी .....

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  4. रूपसिंह जी बधाई इस उपन्यास के प्रकाशन की। यह अश जाहिर कर रहा है कि उपन्यास दमदार होगा।

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  5. अच्छी प्रस्तुति है, अधूरा लगा उपन्यास अंश एक छोटा सा टुकडा और जोडा जाना चाहिये था जिससे किसी एक घटना को ही पूर्णता प्राप्त होती। वैसे यह एसा ही है कि अब पूरा उपन्यास पढना ही पडेगा।

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  6. KAYEE UPNYAASON KE RACHYITAA SHRI
    ROOP SINGH CHANDEL HINDI JAGAT KAA
    JAANAA-PAHCHAANAA NAAM HAI .AESE
    NAAMEE-GIRAAMEE RACHNAAKAAR KO
    SAHIYA SHILPI PAR DEKH KAR BADAA
    SUKHAD LAGAA HAI.
    GULAAM BAADSHAH KE DO ANSH
    MAIN PAHLE BHEE ANYATRA PADH CHUKAA
    HOON.DONO ANSH MUJHE BHASHA AUR
    SHILP KE HIAAB SE SASHAKT HEE NAHIN
    BALKI ATEE ROCHAK BHEE LAGE THE."BADE
    SAAHAB"WAALAA ANSH BHEE UTNAA
    SHASHAKT AUR ROCHAK LAGAA HAI.ANSH
    KAB SHURU AUR KAB KHATM KIYA
    PATAA HEE NAHIN LAGA!
    SHRI ROOP SINGH CHANDEL KO
    UPNYAAS KE UTTAM ANSH KE LIYE BAHUT
    -BAHUT BADHAEEAN AUR SHRI RAJIV
    RANJAN KO BHEE NAANA BADHAAEEAN ,
    IS ANSH KE PRAKASHAN KE LIYE.

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  7. एक बेहतरीन उपन्यास के अंश पढ़ कर अच्छा लगा. उपन्यास की व्यवसायिक सफलता के लिए रूपचंद जी को शुभकामनाएं.

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  8. प्रिय राजीव जी,

    साहित्य शिल्पी में मेरे उपन्यास - ’गुलाम बादशाह’ का अंश -’बड़े साहब’ प्रकाशित करने के लिए आभार. मैं उन सभी को भी अपना अभार व्यक्त करना चाहता हूं जिन्होनें इसे पढ़ा और बहुत उत्साहवर्धक टिप्पणियां दीं. प्रकाशक के अनुसार उपन्यास मई/जून’०९ तक प्रकाशित होगा, जिसकी सूचना साहित्य शिल्पी के माध्यम से मैं अपने प्रिय पाठकों को अवश्य उपलब्ध करवाऊंगा.

    एक बार पुनः आभार.

    रूपसिंह चन्देल

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  9. रोचक और दमदार अंश। उपन्यास का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा। बधाई !

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  10. aapke novel ka ansh padhkar mugdh ho gaya.. mujhe ab padna hai aapka novel ..

    kaise pad paunga , ye batayen pls ..

    aapko bahut badhai ..

    vijay
    poemsofvijay.blogspot.com

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