
सोचता हूँ कई दिनों से
पिंजरे में कैद इस पंछी को
मुक्त कर दूँ,
उड़े यह स्वच्छ्न्द आकाश !
पर पंख खोल उड़ना
इसने तो सीखा ही नहीं
फड़फड़ा तो सकता है
पर उड़ नहीं सकता
यह पेड़ पर बैठ
दाना चुग नहीं सकता
इसकी बाँहों में पंख नहीं उगे थे
जब इसे पेड़ के कोटर से
उतारा गया था ।
मुझे संशय है
और दु:ख भी
कि अब यह पंछी ही न रहा
पंख इसकी बाँहों में
एक निर्रथ सी चीज़ बन गयी है।
खुला आकाश,
चूमती हुई पहाड़ों की मेखलाएँ
और घूमती हुई मेघमालायें
जंगल के लहराते हरे सैलाब
क्षितिज तक दौड़ती कल-कल नदियाँ
वृन्दों में चहकना
अनंत उछाह और आज़ादी
प्रेम-प्रसंग करना.... आदि आदि
का तो इसे अनुभव नहीं ।
इस अनुभवहीन पंछी का मैं क्या करूँ
यह पिंजरा इसका घर हो गया है
और संसार भी ।
पंछी- (दो)
एक और पंछी भी
पिंजरे में बंद है ,
यह दाना चुगने का
लोभ संवरण न कर सका
और बहेलिया के जाल में आ फँसा
अब केवल फड़फड़ाता है
न सोता है
न चुगता है
कई दिनों तक सीखचों से
लड़ता हुआ वह विकल पंछी
थकहार कर चुप बैठ गया
बिसार दिये फिर उसने अपने सुख के दिन
गुलामी को अपनी नियति मान ली
धीरे-धीरे उसकी मति और गति भी
पहला पंछी की तरह ही हो गई ।
स्वच्छ्न्द विहार ,
पंख और उड़ान के विस्मरण से
अब उसका भी घर-संसार
वह पिंजरा ही बन गया।
पंछी - (तीन)
एक अन्य पंछी भी पिंजरे में
कई दिनों से कैद है
सीखचों से टकरा-टकराकर
उसकी बाँहें लहुलुहान हो रही है
और पंख भी झड़ रहे हैं
फ़िर भी उसने हार नहीं मानी है
पंख तोलना पंख खोलना
खुले आकाश में उड़ान की खुशी
अब तक नहीं भूला पाया है वह
फड़फड़ाहटें उसके पिंजरे से
दिनरात सुनायी देती हैं
और नित्य अपने सुख के दिन पर
बिसूरता है यह पंछी
इस पंछी के लिये
अब भी एक संभावना शेष है -
कब यह पिंजरा खुले
कब वह उड़े !
आज़ादी के सममूल्य
उसके लिये कोई अन्य वस्तु नहीं ,
न यह स्वर्ण-जड़ित पिंजर
न अन्न के दाने
न वहाँ रखी नक्काशीयुक्त धातु की कटोरियाँ
न और ही कुछ !
पर बुद्धिजीवियों में बहस छिड़ी है कि
पिंजरा तो सुरक्षित ज़गह है इस पंछी के लिए
कम से कम बाज़ तो आकर नहीं खायेगा उसे
और दाना-पानी भी इफ़रात है !!
पंछी - (चार)
एक और भी पंछी है
सबसे न्यारा ,
परम स्वतन्त्र !
वह मायावी नहीं है
वह दु:खों से सर्वथा मुक्त है
समूची पृथ्वी का पंछी
उसका परिवार है ।
वह स्वच्छन्द विहार करता है
और जगह-जगह जाकर
पंछियों को संदेश देता है -
आज़ादी का
उड़ान का
पंखों के बाँहों पर होने का
अर्थ बतलाता है
और पिंजरे से जाल से बहेलिये से
सावधान करता है
पूरे पक्षी -जगत को।
*****
22 टिप्पणियाँ
All the four scenes are ultimate, a nice poem. Thanks.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria.
आपकी काव्यालोचना की कडिया पढ कर आपके प्रति एक विचार बना था, इस कविता नें उसे पुष्ट किया है। पहली बार नेट पर आया हूँ अपना ब्ळॉग भी बनाया है। उम्मीद है आप मुझे भी अपनी सराहना देंगे। पंछी की तीसरी कविता अधिक अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंचल उड़ा जा रे पंछी...
जवाब देंहटाएंअब ये देश हुआ बेगाना...
अलग-अलग आयाम लिए चारों कविताएँ पसन्द आई
इस अनुभवहीन पंछी का मैं क्या करूँ
जवाब देंहटाएंयह पिंजरा इसका घर हो गया है
और संसार भी ।
पंछी पर प्रस्तुत आपके चारों आयाम अच्छे लगे।
और दु:ख भी
जवाब देंहटाएंकि अब यह पंछी ही न रहा
पंख इसकी बाँहों में
एक निर्रथ सी चीज़ बन गयी है।
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कई दिनों तक सीखचों से
लड़ता हुआ वह विकल पंछी
थकहार कर चुप बैठ गया
बिसार दिये फिर उसने अपने सुख के दिन
गुलामी को अपनी नियति मान ली
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अब भी एक संभावना शेष है -
कब यह पिंजरा खुले
कब वह उड़े !
आज़ादी के सममूल्य
उसके लिये कोई अन्य वस्तु नहीं
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पर बुद्धिजीवियों में बहस छिड़ी है कि
पिंजरा तो सुरक्षित ज़गह है इस पंछी के लिए
कम से कम बाज़ तो आकर नहीं खायेगा उसे
और दाना-पानी भी इफ़रात है !!
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आज़ादी का
उड़ान का
पंखों के बाँहों पर होने का
अर्थ बतलाता है
और पिंजरे से जाल से बहेलिये से
सावधान करता है
पूरे पक्षी -जगत को।
****
परत दर परत आपने कविता को उँचाईया दी हैं।
पंछी अच्छा बिम्ब है और यह गुलामी और विद्रोह को पारिभाषित करने में सक्षम है।
जवाब देंहटाएंभाई सुशील कुमार जी की कविता ‘हृदय का पंछी’ बेहद खूबसूरत है।यह दु:खद है कि आज के इस ‘प्लास्टिक’ होती ज़िन्दगी में आदमी केवल मन की सवारी को ही पसंद कर रहा है। इस यात्रा में उसे जिस चीज़ की ज़रुरत पड़ेगी वह मात्र मन के घोड़े पर सवार होकर हासिल नहीं किया जा सकता है। उसके लिये उसे उन्मुक्त हृदय की आवश्यकता होगी। इस कविता में बिम्ब के रूप में आया “पंछी” उसी उन्मुक्त हृदय का प्रतीक है।
जवाब देंहटाएंकविता का शिल्प भी अन्यतम है। इसे मैं हिंदी की सुप्रतिष्ठित पत्रिका ‘अक्षरा’-भोपाल में भी पिछले वर्ष पढ़ चुका हूँ। तब इस पर गंभीर चर्चा भी हुई थी।- जितेन्द्र कुमार ,दुमका से।
पंछी तो माध्यम भर लगता है
जवाब देंहटाएंपर इस माध्यम से उकेरती
जीवन की कटु सच्चाईयों का अंकन
एक सिद्धहस्त कवि ही कर सकता है
।
अनेक कविता में विचार हैं नेक
मूल भावना सबकी है सिर्फ एक
आजादी का नहीं कोई मुकाबला
गुलामी की बनी रहती है संभावना।
इससे निकलने का नहीं कोई तोड़ है
पर आजादी पाने की अच्छी यह एक
सबको पसंद आयेगी, ऐसी होड़ है
कविता और विचार, प्रतीक और बिम्ब
पूरी कविता में वस्तुत: बेजोड़ हैं।
हृदय की स्वतन्त्रता पर बहुत ही अच्छी और प्रतीकात्मक है सुशील कुमार की यह कविता।
जवाब देंहटाएंपिंजरा तोड कर आजाद होने वाला भी एक पंछी होता है। वह क्रांति कर देता है। अच्छी कविता है।
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ कह गए ये पंछी। बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंपंछियों की प्रतीक से बहूत कुछ कहा है इस कविता ने
जवाब देंहटाएंसुंदर कविता
सुशील जी की यह कविता सबसे पहले जयपुर की एक उत्कृष्ट कविता पत्रिका ‘कृतिओर’ में आयी थी जिसके प्रधान संपादक वरिष्ठ कवि-चिंतक श्री विजेन्द्र हैं। मैंने उसी समय इसे पढ़ी थी। यह पहली बार आज वेब पर आयी है। इस कविता की बड़ी विशेषता यह है कि कविता अत्यंत सरल है,भाषा भी सुबोध, पर उसका अर्थ अत्यंत गू्ढ़। इतना संश्लिष्ट कि एक बार पढ़ने से उसका वाजिब अर्थ पल्ले नहीं पड़ता। उसको कई बार पढ़ना पड़ता है कविता की गहराई में जाने लिये। ‘साहित्यशिल्पी’ पर इतनी अच्छी कविता भी आ रही है,यह हर्ष का विषय है।-अशोक सिंह,जनमत शोध संस्थान, दुनका,झारखंड।
जवाब देंहटाएंयह कविता सघन इन्द्रियबोध से लिखी गयी प्रतीत होती है क्योंकि कविता सहज रूप से पाठक के भीतर प्रवेश पाकर उसको स्वतन्त्रता का संदेश पंछी की विविध स्थितियों से देता है। काफी सुन्दर और सफल बन पड़ी है यह कविता-‘हृदय का पंछी’ ।
जवाब देंहटाएंअच्छी और सुगठित कविता।
जवाब देंहटाएंमेरे नाम राशि अग्रज भाई अशोक जी ने पहले ही वो सब लिख दिया है जो मै लिखता।
हम सब शायद तीसरे पन्छी है और चॉथा बनने की ख्वाहिश पाले सन्घर्ष कर रहे हैं ।
आज़ादी का
जवाब देंहटाएंउड़ान का
पंखों के बाँहों पर होने का
अर्थ बतलाता है
और पिंजरे से जाल से बहेलिये से
सावधान करता है
पूरे पक्षी -जगत को।
सुंदर....
बहुत अच्छी ....चारों कविताएँ ...
बधाई।
एक और भी पंछी है
जवाब देंहटाएंसबसे न्यारा ,
परम स्वतन्त्र !
वह मायावी नहीं है
वह दु:खों से सर्वथा मुक्त है
समूची पृथ्वी का पंछी
उसका परिवार है
-बहुत अच्छी कविताएँ,
चारों कविताएँ पसन्द आई-बधाई।
वेकल मन भी एक पंछी ही है विभिन्न परिवेशों में विभिन्न प्रतिक्रियाऐं.. पंछी के मन के भावों को आपने बहुत ही खूबसूरत ढंग से अपनी कविताओं में बिम्बित किया है...
जवाब देंहटाएंमोहिन्दर कुमार जी मुझसे और अशोक कुमार पाण्डेय जी से आकांक्षा जी की कविता पर टिप्पणी को लेकर नाराज तो नहीं हैं?
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता है सुशील जी।
जवाब देंहटाएंसुशील जी का भाव- पंछी जितनी बार चहका और जितनी तरह चहका- बेमिसाल है ।
जवाब देंहटाएंमन भी इसी पंछी की मानिंद तो है ।
प्रवीण पंडित
susheel kumar ji , aap hi mujhe kuch shabd de dijiye ,ki main aapki in kavitaon ki tareef karun...
जवाब देंहटाएंitna accha likha hai .... bahut sundar abhivyakti
aapko bahut badhai ..
vijay
poemsofvijay.blogspot.com
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