
जब भी अपने आपसे ग़द्दार हो जाते हैं लोग
ज़िन्दगी के नाम पर धिक्कार हो जाते हैं लोग
सत्य और ईमान के हिस्से में हैं गुमनामियाँ
साज़िशें बुन कर मगर अवतार हो जाते हैं लोग
बेच देते हैं सरे—बाज़ार वो जिस्मो—ज़मीर
भूख से जब भी कभी लाचार हो जाते हैं लोग
रात भर मशगूल रहते हैं अँधेरों में कहीं
और अगली सुबह का अखबार हो जाते हैं लोग
फिर कबीलों का न जाने हश्र क्या होगा, जहाँ
नोंक पर बंदूक की सरदार हो जाते हैं लोग
मतलबों की भीड़ जब—जब कुलबुलाती है यहाँ
हमने देखा है बड़े मक़्क़ार हो जाते हैं लोग
साहिलों पर बैठ तन्हा 'द्विज' ! भला क्या इन्तज़ार
आज हैं इस पार कल उस पार हो जाते हैं लोग
23 टिप्पणियाँ
रात भर मशगूल रहते हैं अँधेरों में कहीं
जवाब देंहटाएंऔर अगली सुबह का अखबार हो जाते हैं लोग
Vah, kya baat hai.
Alok Kataria
जब भी अपने आपसे ग़द्दार हो जाते हैं लोग
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी के नाम पर धिक्कार हो जाते हैं लोग
रात भर मशगूल रहते हैं अँधेरों में कहीं
और अगली सुबह का अखबार हो जाते हैं लोग
मतलबों की भीड़ जब—जब कुलबुलाती है यहाँ
हमने देखा है बड़े मक़्क़ार हो जाते हैं लोग
द्विज जी बहुत अच्छी ग़ज़ल है। बहुत अच्छे शेर।
साहिलों पर बैठ तन्हा 'द्विज' ! भला क्या इन्तज़ार
जवाब देंहटाएंआज हैं इस पार कल उस पार हो जाते हैं लोग
द्विज साहब को साहित्य शिल्पी पर पढना अच्छा लगा।
बहुत अच्छी ग़ज़ल। बधाई।
जवाब देंहटाएंद्विजजी दिल को छू लेने वाली गजल है बधाई
जवाब देंहटाएंरात भर मशगूल रहते हैं अँधेरों में कहीं
जवाब देंहटाएंऔर अगली सुबह का अखबार हो जाते हैं लोग
साहिलों पर बैठ तन्हा 'द्विज' ! भला क्या इन्तज़ार
आज हैं इस पार कल उस पार हो जाते हैं लोग
बहुत अच्छे शेर...
बहुत अच्छी ग़ज़ल.....
द्विज जी !
बधाई।
आज के समयानुसार लिखी गई बढिया गज़ल....
जवाब देंहटाएंद्विज जी को बधाई
'साज़िशें बुन कर मगर अवतार हो जाते हैं लोग।'
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब! हर एक शे'र ही गहराई लिये हुए है।
बधाई।
रात भर मशगूल रहते हैं अँधेरों में कहीं
जवाब देंहटाएंऔर अगली सुबह का अखबार हो जाते हैं लोग
कमाल की अभिव्यक्ति
regards
प्रभावित लिया आपकी ग़ज़ल नें।
जवाब देंहटाएंसत्य और ईमान के हिस्से में हैं गुमनामियाँ
साज़िशें बुन कर मगर अवतार हो जाते हैं लोग
हदों को पार करके भीतर तक छू जाने वाली ग़ज़ल ।
जवाब देंहटाएंऔर क्या कहूं।
प्रवीण पंडित
प्रभावशाली ग़ज़ल है। द्विजेन्द्र जी आज के समय के सशक्त हस्ताक्षर हैं।
जवाब देंहटाएंजब भी अपने आपसे ग़द्दार हो जाते हैं लोग
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी के नाम पर धिक्कार हो जाते हैं लोग
ग़ज़ल दमदार है। हर शेर पर वाह निकलती है।
आपकी अन्य ग़ज़लों की तरह ही बेहतरीन है।
जवाब देंहटाएंबेच देते हैं सरे—बाज़ार वो जिस्मो—ज़मीर
जवाब देंहटाएंभूख से जब भी कभी लाचार हो जाते हैं लोग
निस्संदेह अद्भुत कृति।
हर शे’र अपने आप मे एक ग़ज़ल है.द्विज जी की ग़ज़ल को यहाँ पेश करने के लिए रंजन जी को धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंमन को छूती हुई और इस जहान की सच्चाई वयान करती एक गजल.. बहुत पसन्द आई..
जवाब देंहटाएंबेच देते हैं सरे—बाज़ार वो जिस्मो—ज़मीर
भूख से जब भी कभी लाचार हो जाते हैं लोग
साहिलों पर बैठ तन्हा 'द्विज' ! भला क्या इन्तज़ार
आज हैं इस पार कल उस पार हो जाते हैं लोग
कटु यथार्थ के रंगों को उधेरती लाजवाब ग़ज़ल,मन मुग्ध कर गई ..... बहुत बहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंDwij Sahab ki ghazal padhwane ke liye shukriya. ghazal bahut acchi he aur aapka Sahitya Shilpi bhi. Ab aata hi rahoonga.
जवाब देंहटाएंNavneet Sharma
"साहित्य शिल्पी" के माध्यम से मेरी ग़ज़ल के तमाम पाठकों का तथा "साहित्य शिल्पी" का हार्दिक अभारी हूँ.
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन की लिए धन्यवाद.
सादर
द्विजेन्द्र "
द्विज"
सामाजिक वैषम्य के आधार पर द्विज साहेब की यह अनुपम ग़ज़ल है जिस में भौतिक अभावों
जवाब देंहटाएंको, जनता के दैन्य और दारिद्रय को बड़े अच्छे ढ़ंग से दर्शाया है। यह युग की मांग पूरा करने
वाले साहित्य से जुड़ी हुई जन-वादी धारा को प्रकट करती हुई उच्च कोटि की ग़ज़ल है। द्विज साहेब को बधाई।
भाई जान अगर शेरों की तारीफ़ करने लगूं तो मुझे ये पूरी ग़ज़ल ही यहाँ उतरनी पड़ेगी क्यूनके शेर नहीं एक एक हरफ कमाल है...कमेन्ट करने में देरी के कारण अब कुछ नहीं लिख पाउँगा ...
जवाब देंहटाएंक्योंके .........
"अब कलम हलकी पड़ेगी देखना ,
शख्श इक भारी सा उतरा कार से."
ऊंचाइयों को नमन
bahut hi acchi gazal , specially ye lines bahut achai ban padi hai ..
जवाब देंहटाएंरात भर मशगूल रहते हैं अँधेरों में कहीं
और अगली सुबह का अखबार हो जाते हैं लोग
aapko bahut badhai ..
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
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