
दिल मेरा ये मनचला है
ना तो मंज़िल ना रास्ता है
फिर कहाँ को बढ़ चला है
क्या जाने कब शब बुझी और
क्या जाने कब दिन ढला है...
ऑस बनकर जो गिरा था
धूप का जो इक सिरा था
दिलनशीं वो गुल सिताँ था
क्या कहें पर सब धुआँ था...
खाब के टूटे रेशे बुनता है ये पगला
औढ के फिर वो पैराहन
बादलों में जा बसा है
आँखों में एक आस सी और
दिल में डर का ज़लज़ला है...
वक़्त को तो गुज़रने दे
जी ले या फिर तू मरने दे
साँसों के गुंजल को खोलो
दिल की सारी बातें बोलो
दिन को भी रात में ही
क्यूँ गिनता है ये पगला
उंघति सी ज़िंदगी में
कोई तो इक वलवला हो
साथ कोई हमसफ़र हो
ना भी हो क्या खला है...
10 टिप्पणियाँ
sundar bahut pankhtiyaan...
जवाब देंहटाएंवक़्त को तो गुज़रने दे
जी ले या फिर तू मरने दे
ye lines apne aap mein bahut kuch kah jaati hai ..
aapko bahut badhai ..
vijay
poemsofvijay.blogspot.com
बहुत सुंदर रचना....पढकर अच्छा लगा...बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत हे अच्छा लिखा है आपने..पढ़ कर अच्छा लगा...
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना. भावपूर्ण अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंऑस बनकर जो गिरा था
जवाब देंहटाएंधूप का जो इक सिरा था
दिलनशीं वो गुल सिताँ था
क्या कहें पर सब धुआँ था...
खाब के टूटे रेशे बुनता है ये पगला
औढ के फिर वो पैराहन
बादलों में जा बसा है
आँखों में एक आस सी और
दिल में डर का ज़लज़ला है...
अच्छा लिखा है।
क्या कहें पर सब धुआँ था...
जवाब देंहटाएंखाब के टूटे रेशे बुनता है ये पगला
"beautiful expressions"
regards
जी बहुत पसन्द आई आपकी यह रचना...
जवाब देंहटाएंरचना पसंद आई। अच्छे और अनूठे बिंबों की प्रस्तुति "दिल" को छू गई।
जवाब देंहटाएंबस
"क्या जाने कब शब बुझी और
क्या जाने कब दिन ढला है..."
उपरोक्त पंक्तियाँ रक़ीब फिल्म के एक गाने
"जाने कैसे शब ढली,
जाने कैसे दिन खिला" की ओर ईशारा करती हुई प्रतीत हुई,जो दिल को थोड़ा सा खल गया।
वैसे यह मेरा मन्तव्य है। हो सकता है कि यह समानता बस एक संयोग हो।
-तन्हा
औढ के फिर वो पैराहन
जवाब देंहटाएंबादलों में जा बसा है
आँखों में एक आस सी और
दिल में डर का ज़लज़ला है...
अच्छा है....
apne aisi rachna gadi ahin har pathak ki prashnasha ypgya
जवाब देंहटाएंbabhut achi rachna lagi
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