
बिल्कुल सुनसान
एकदम वीरान
पड़ा है खण्डहर सा।
नुक्कड़ पे
बन्द और बेसुध
खड़ी है एक झुलसी दुकान।
न जाने क्यूं
वहां आते हैं लोग, फिर भी
और देखते हैं नज़ारा, करते हैं चढ़ावा।
श्मशान के उस पार है वह।
भयावह, शायद कोई शिवालय...
सूयॆ की अलसाई किरणों सा
चमकता कहां है वह अब।
नतमस्तक होता है आदमी
फिर भी
न जाने क्यूं?
*****
8 टिप्पणियाँ
It is a nice poem. Thanks.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
न जाने क्यूं
जवाब देंहटाएंवहां आते हैं लोग, फिर भी
और देखते हैं नज़ारा, करते हैं चढ़ावा।
श्मशान के उस पार है वह।
भयावह, शायद कोई शिवालय...
सूयॆ की अलसाई किरणों सा
चमकता कहां है वह अब।
नतमस्तक होता है आदमी
फिर भी
न जाने क्यूं?
बहुत खूब। अच्छी रचना।
बहुत अच्छी कविता है प्रकाश जी, बधाई।
जवाब देंहटाएंगहन अनुभूति है, अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंदृश्य खीचती हुई कविता है। बहुत अच्छे से विचार संप्रेषित हुए हैं।
जवाब देंहटाएंहर बार साम्प्रदायिकता की आग हमारे अमन की रूह को ज़ख्मी कर जाती है और हम सोचते हैं कि बस बहुत हुआ, अब और नहीं पर न जाने क्यूँ.....
जवाब देंहटाएंये आग ना जाने कब बुझेगी....
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता
यह रचना एक लघुकथा की तरह खुलती है और पाठकों के सामने सवाल खड़े कर अपना कर्तव्य निबाह जाती है।
जवाब देंहटाएंपसंद आई।
-तन्हा
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