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कहानी एक रक्तजीवी की [व्यंग्य] - राजीव तनेजा


"हाँ!...मैँ एक रक्तजीवी हूँ और ऐसा कहने में मुझे कोई गम...कोई शर्म....कोई ग्लानि..नहीं कि मैँ जीवन से थक-हार कर टूट चुके... बेसुध हो चुके मरीज़ों को अपना खून बेच उनमें नए जोश...नई उमंग और नई स्फूर्ति का संचार करता हूँ और इसी नाते मैँ खुद को रक्तजीवी(अपना रक्त....अपना खून बेच के ज़िन्दा रहने वाला) कहलाना पसन्द करता हूँ।

"अब आप सोचेंगे कि धर्म-कर्म के काम में पैसे का क्या काम?"...
"तो इसके जवाब में मैँ बस इतना ही कहूँगा कि आपका कहना शत-प्रतिशत सही है कि ये रक्त दान...ये अंग दान वगैरा सब धर्म-कर्म और इनसानियत के दायरे में आने वाली चीज़ें हैँ और इनमें किसी भी कीमत पर पैसे को इनवाल्व नहीं करना चाहिए लेकिन ये भी तो सच है ना कि भाषण देना कितना आसान है?कहने को तो आपने फट से मुँह खोला और झट से झाड़ दिया लैक्चर कि ये सब गलत है...अनैतिक है।

तो चलो आप ही बता दो कि हमारे देश में नैतिकता से चल ही क्या रहा है?
क्या सरकारी डाक्टर अपने ड्यूटी धर्म को निभाते वक्त मरीज़ों को जो पर्सनल विज़िटिंग कार्ड थमा उन्हें अपने निजी क्लीनिक पे आने का न्यौता देते हैँ...वो सही है?...
या सरकारी डिस्पैंसरियों से आपसी बन्दर बांट के चलते दवाईयों का वक्त-बेवक्त गायब हो जाना जायज़ है?...
या वो नुक्कड़ पे खोखा जमाए पांडुरंग जूस वाला जो आपको जूस के नाम पे सिंथैटिक रंगो और फ्लेवरों से सुसज्जित ज़हर परोस रहा है...वो जायज़ है?
क्या वो जो हलवाई अड्डे की 6 x6 की दुकान में ठिय्या जमाए बैठा झोलाछाप डाक्टर लड़का होने की शर्तिया दवाई दे अपना उल्लू सीधा कर रहा है...वो सही है?...
या वो 'बाबा बन्ने खाँ बंगाली'...जो तंत्र-मंत्र और मुठकरनी के बल पर बरसों से बिगड़े काम महज़ चार घंटे में हल करने का दावा कर भोली जनता को सरेआम लूट रहा है...सही है?...

नहीं ना?...
अब जब किसी को देश की...आवाम की चिंता ही नहीं है तो मैँ अकेला चना भाड़ फोड़ूँ भी तो कैसे?...
और क्योंकर फोड़ूँ?....क्या मेरे साथ पेट नहीं लगा हुआ है?...या मुझे सिर्फ हवा और पानी पे ज़िन्दा रह अपने वजूद को बचाना आता है?

आप बात करते हो धर्म और कर्म की....एकता और समानता की...बौधिकता और नैतिकता की लेकिन आज के ज़माने में नैतिकता बची ही किसके पास है?
ये कहाँ की और कैसी समानता है कि आप लोगों के लिए आपका खून.....'खून' है और हमारा खून...सिर्फ 'पानी'?...
आपको ज़रा सी...माड़ी-मोटी खरोंच भी लग जाए सही..रो-रो के...हाँफ-हाँफ के बुरा हाल हो जाता है जनाब का।बिना किसी देरी के पूरी स्फूर्ति और तत्परता दिखाते हुए आप तुरंत हाय-तौबा मचाना शुरू कर देते हैँ और बिना किसी प्रकार की कोताही बरतते हुए गिरते-पड़ते..जैसे-तैसे किसी क्लीनिक...अस्पताल या नर्सिंग होम का रुख कर अँधाधुँध दौड़े चले आते हैँ और यहाँ हम...हम तो नतीजा जानते हुए भी जानबूझ कर सब समझते हुए रोज़ाना बिना किसी नानुकुर और नागे के अपने बदन को सुईयों से छलनी करवाते हैँ।

आप कहते हैँ कि पैसे लेकर खून जैसे पवित्र और पावन चीज़ को बेचना सही नहीं है क्योंकि ये हमारी बनाई हुई नहीं बल्कि ऊपरवाले द्वारा हमें बक्शी गई नेमत है।
चलो मानी आपकी बात!...कि ये सब गलत है...सही नहीं है लेकिन अब जब आप इतना सब समझा ही दिए हो हमको तो तनिक ई शिक्षा भी तो लगे हाथ देते जाओ कि अपना खून बेचे के बदले हम पईस्सा ना लें तो कईसन पेट भरें अपना और कईसन पालें आपन बचवा को ई निष्ठुर दिल्ली जईसन्न मँहगे शहर में?
"बाबू!...का हम कोरी धूल फाँक के और सूखी हवा निगल के जिन्दा रहें?

लाख कोशिशों के बावजूद ये बात मेरे पल्ले आज तक नहीं पड़ी कि जब आप अपनी बारी में काजू-मेवे...किशमिश-चिलगोज़े... पिस्ता-बादाम से लेकर बोर्नवीटा तथा हॉर्लिक्स तक में से किसी को नहीं बक्शते तो हमारी बारी में हमें दो-तीन रुपए का पॉरले ग्लूकोज़ बिस्किट का पैकेट...एक फ्रूटी या माज़ा के साथ थमा अपने कर्तव्य को तिलांजली क्यों दे डालते हो?

हमें इस चीज़ का गम नहीं कि हमें दोयम दर्ज़े का नागरिक मान हमारे साथ भेदभाव किया जा रहा है वरन हमें चिंता है...
"अमीर-गरीब में बढती खाई की...देश में बढती मँहगाई की"

"क्या आप बता सकते हैँ कि हमारी बारी में ही क्यों साँप सूँघने लग जाता है आपको?
"क्या हम पेट से और...आप आसमान से टपके हैँ?"...
या फिर....
"आप इनसान की और...हम जानवर की औलाद हैँ?"

अगर ऊपर दिए गए कारण सही हैँ तो मेरी राय में तो आप लोगों को बिना किसी देरी के तुरंत हमसे ये खूनी लेन-देन बिलकुल बन्द कर देना चाहिए क्योंकि फिलहाल किसी भी देश में इनसानों में जानवरों के अंगों का प्रत्यारोपण वैध घोषित नहीं हुआ है।

आप कहते हैँ कि हम कुछ क्रिएटिव काम करने के बजाय वेल्ले बैठ हरदम हँसी-ठट्ठा क्यों करते हैँ?"
तो पहले आप ही बता दें कि पूरा दिन मगज मारी के बाद आप ही क्या कमा लेते हैँ?माना...कि आप इनकम टैक्स और सेल टैक्स वालों के झमेले में फँसने के डर से अपनी कमाई ..अपनी आमदनी को उजागर नहीं करना चाहेंगे।लेकिन सच कहूँ तो दिहाड़ी बजाने से आखिर मिलता ही क्या है? पूरे दिन पसीने से लथ-पथ होने के बाद जो सौ-सवा सौ रुपए मिलते भी हैँ तो उसमें तो हमारा चाय-पानी ही बड़ी मुश्किल से चल पाता है और हम इतने पागल भी नहीं है कि सौ सवा सौ रुपल्ली के लिए पूरे दिन पस्त होते फिरें।

आज हम पूरा दिन कुछ ना करते हुए भी शाम से पहले-पहले चार सौ से पाँच सौ तक अपने बना लेते हैँ।इन पैसों ने अगर साथ दिया और किस्मत अच्छी हुई तो हम रोज़ाना के कई हज़ार बनाने से भी नहीं चूकते हैँ।एक्चुअली!..इसमें हमारा पत्ते सैट करने का बरसों पुराना हुनर काम आता है।इसी कमाई से हमारी खुराक...हमारा नशा वगैरा चलता है।

"आप कहें तो एक राज़ की बात बताऊँ?"....
"स्मैक और ब्राउन शुगर से लेकर पोस्त तथा गांजे वगैरा जैसे मँहगे नशों में से कोई भी हमसे अछूता नहीं है लेकिन ये सब हम अपने शौक के लिए नहीं करते हैँ बल्कि रोज़ाना सुइयों के चुभने से होने वाले दर्द को...तकलीफ को भूलने के लिए हम इनका सेवन करते हैँ।हम में से कुछ तो नशे के इतने आदि हो चुके हैँ कि सारे पैसे इसी पर बर्बाद करने के बाद भी उन पर ये ये मामुली नशे असर ही नहीं करते और मजबूरन उनमें से कुछ को नाक के जरिए पैट्रोल सुड़क कर....

तो कुछ को छिपकली निगल कर अपने वजूद को ज़िन्दा रखना पड़ रहा है।तरस आता है मुझे इनकी दयनीय हालत पर जब मैँ किसी गरीब बेचारे को पैसे ना होने के कारण मजबूरी में पैट्रोल पाईप में जमी हुई गर्द को फांकते हुए देखता हूँ।

आप कहते हैँ कि हम आपके इस कथातथित बढिया शहर के बढिया माहौल के नाम पर धब्बा हैँ।
सच कहूँ!...तो मेरा या मेरे जैसा का पूरा वजूद ही आप जैसे उन नामर्दों के दम पे टिका है जो अपने भाईयों को ..अपनी बहनों को... अपने सगे वालों तक को अपना खून देने से कतराते हैँ और वक्त-ज़रूरत के समय इधर-उधर बगलें झाँकने लगते हैँ।अरे!...पढी-लिखी दुनिया के बेवाकूफो!...क्या इतना भी नहीं जानते कि दिया गया खून चौबीस घंटे में वापिस पूरा हो जाता है और ये तो सोचो कम से कम कि तुम्हारा दिया खून एक ज़िन्दगी को बचाएगा...एक घर को आबाद कराएगा।

हमें देखो!....जिसे हम खून देते हैँ हम उसका नाम तक नहीं जानते...ना वो हमारा कोई भाई होता है और ना ही कोई सगे वाला।फिर भी हम उसे अपना खून दे उसकी जान बचाने को तत्पर रहते हैँ।लेकिन आप तो शायद!...उसके अपने ..उसके सगे वाले हैँ ना?...

"आप क्यों कन्नी काटने लगे?"...
"क्या सिर्फ पैसे देने से ही आप हमारे अहसानों का बदला चुका पाओगे?"...
"और ये जो हम पैसे लेते हैँ ना आपसे?".....
"वो किसी शौक या हॉबी को पूरा करने के लिए नहीं बल्कि खुद ज़िन्दा रहने के लिए ताकि हम फिर अगले दिन किसी ज़रूरतमन्द के काम आ उसकी जान बचा सकें"...

वैसे तो हम रक्तजीवी लोग अपनी ज़िन्दगी से बेहद खुश हैँ ..कोई नाराज़गी नहीं है ऊपरवाले से हमें लेकिन अभी भी कुछ बातें हैँ जो अन्दर तक बेध जाती हैँ हमें जैसे कि हमारे रक्त के सहारे आप लोग जीते हैँ...ज़िन्दा रहते हैँ लेकिन विडंबना ये कि आप हमें ही अपने पास बिठा दो प्यार भरी बातें करने से कतराते हैँ।

पहले तो जी!...हाँ जी और....बाद में...आक!...थू..."..

अरे!...इतने गए गुज़रे भी नहीं हैँ हम कि इज़्ज़त होने में और बेइज़्ज़त होने में फर्क महसूस ना कर सकें।वो कहते हैँ ना कि मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं।कई बार आप जैसे निष्ठुर लोगों की जमात को देख के तो दुखी हो मन करता है कि सब छोड़-छाड़ के वापिस बिजनौर...अपने वतन ...अपने शहर लौट जाऊँ लेकिन जो एक बार दिल्ली जैसे बड़े शहर में टिक गया ना..उसे भला गांव-कस्बों का जीवन कहाँ रास आना है?
ना वहाँ..यहाँ की तरह चमचमाती जल-बुझ करती बत्तियाँ...
ना वहाँ...यहाँ की तरह लंबी चमचम चमचमाती हुई एक से बढकर एक गाड़ियाँ ...
ना वहाँ..यहाँ की तरह आसमान से बात करती ऊँची अटालिकाएँ।

और दूसरे मुझे शिकायत है बिचौलियों की उस पूरी जमात से जो कैमिस्ट से लेकर जूते पॉलिश करने वाले तक ...ब्लड बैंक के चपरासी से लेकर सिक्योरिटी पर तैनात पुलिस वाले ठुल्ले तक और.........ऑटो-टैक्सी वालों से लेकर....रिक्शे वालों तक का भेष धारण किए बैठी हैँ।ये हमारी कमाई का एक मोटा...तगड़ा हिस्सा खुद ले जाते हैँ।

स्सालों!...को हराम की कमाई की लत लग चुकी है।...ये कहाँ का इंसाफ है कि दर्द सहें हम...कमज़ोरी सहें हम...खून निचोड़ा जाए हमारा और मज़े-मज़े में कुछ ना करते हुए भी मज़े लूट ले जाएँ वो?

"ट्रिंग...ट्रिंग"...

"हैलो"...
"हाँ जी!...बोल रहा हूँ"...
"बी पॉज़िटिव?"...
"कितने यूनिट?"...
"हाँ जी!...मिल जाएगा"..
"आप चिंता ना करें"...
"एकदम तंदुरुस्त भेजूँगा"...
"वोही पुराना रेट है"....
"फी यूनिट Rs.2200"...
"नहीं!...इस से कम में तो मुशकिल है"...
"पूरी दिल्ली में यही रेट चल रहा है"...
"आप बेशक!...कहीं और ट्राई कर लीजिए"...
"बस!..एक घंटे में पहुँच जाएगा"....
"ओ.के"...
"बॉय"...

"जैसा कि आपने अभी देखा...बिज़नस का टाईम हो गया है"...
"इसलिए!...बाकी की राम कहानी फिर कभी"...

"हैलो!...
"हाँ!..छगनमल?"...
"एक काम कर...खोसला हास्पीटल पहुँच जा "...
"हाँ!..अभी"...
"अर्जैंट केस है"...
"बात तो मैँने Rs.2200 में फाईनल करी है लेकिन...तू Rs.2700 से कम के लिए साफ नॉट जाईयो"....
"स्साले!...अपनी फटती को आप देंगे"...

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13 टिप्पणियाँ

  1. रक्तजीवियों पर आपका यह व्यंग्य गंभीरता से रक्त -विक्रय जैसी गंभीर समस्या को समझा पाने में सक्षम है।

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  2. आप खोज खोज कर विषय लाते हो और फिर अपने खोज बीन कर लाये केरेक्टर का तिया पाँचा कर देते हैं।

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  3. कितना सही और सटीक लिखा है आपने.
    काफी मेहनत की गई है
    बधाई
    आपका
    -विजय

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  4. रक्त जीवी कितने खतरनाक है यह जाहिर है। आपने जिस भाषा और रोचकता से तथ्य को प्रस्तुत किया है उसका भी जवाब नहीं।

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  5. रक्त और उसके लिये किये जा रहे व्यापार पर आपका व्यंग्य अच्छा बन पडा है।

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  6. rajiv ji,
    aapne bahut achha aalekh likha hai. padhkar bahut achha laga. badhayi sweekaren.

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  7. राजीव जी आप मुद्दों पर लिखते हैं और आपकी कलम मुद्दों पर गंभीर प्रहार करने में सक्षम है। कटाक्ष का अपना असर है और आप व्यंग्यकार के सामाजिक सरोकारों से वाकिफ हैं।

    ***राजीव रंजन प्रसाद

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  8. रचना से बिल्कुल मेल खाता शीर्षक है.. एक दम सटीक और करारा प्रहार है.. इस तरह के अमानवीय लोगों को चुन चुन कर चौराहे पर फ़ांसी दे देनी चाहिये जो लोगों के दर्द में भी सौदा करने से नहीं चूकते.

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  9. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  10. तीखा कटाक्ष ।
    और भरपूर ,सामाजिक उत्तरदायित्व को निभाते हुए।
    धंधों की कमी नहींऔर नाही चूसने-नोचने वालों की।

    प्रवीण पंडित

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  11. rajeev ji ,is vyangya rachana ke liye bahut bahut badhai ..

    desh ke haalat par sahi rachana hai

    aapka
    vijay
    http://poemsofvijay.blogspot.com/

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