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काव्यालोचना [साहित्य शिल्पी पर सितम्बर माह में प्रकाशित रचनाओं पर] - सुशील कुमार

पिछले तीन आलेखों मे यह गुनने-बुनने की छोटी-सी पहल की गयी थी कि साहित्य में कवितालोचना की क्या प्रासंगिकता है, साहित्यविधा में कविता का क्या स्थान है और क्यों है और वह किन तत्वों से महान बनती है। यह तो हुआ प्लेटफॉर्म समीक्षा के इस स्तंभ में अपने सुधी पाठकों के समक्ष अपनी बात आगे रखने का। पर सितम्बर 2008 अंक में दृष्टिगत कवियों की रचनाओं से रू-ब-रू होने के पहले हमें कविता के भारतीय चित्त और उसके देशज चरित्र पर भी गौर कर लेना चाहिये क्योंकि उसे जाने बिना हम कविता के समकाल को अच्छी तरह नहीं समझ सकते हैं।

किसी देश या काल के साहित्य की जड़ें उस देश और उस काल के वलय में गहरे धँसी होती है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि हर देश का चित्त अपनी धरती, वहां की जलवायु, इतिहास, सामाजिक संरचना, संस्कृति और उससे प्रत्युत्पन्न परिवेश की गहरी छाप अपने उपर लिये रहता है। दीगर है कि हमारे प्रथम कलाचिंतक और सौंदर्यशास्त्री आचार्य भरत ने भी अपने नाटक और अपनी कविता में लोक को ही आगे रखा। उनके नाटक का मूल प्रयोजन दु:खी, थके-हारे जन को मानसिक सहारा देना था। उन्होंने कहा- 'दुखार्तानां ..नाट्यमेतद् भविष्यति' अर्थात दु:खी लोक को संबल देना ही उनके नाटक का मूलभूत उद्देश्य था। महाकवि कालीदास और भवभूति ने भी रचना को 'लोक का समाराधन' बताया। मसलन, राम ने लोक के उद्धार के लिये अपनी सुख-सुविधा का त्यागकर वनवास का आश्रय ले लिया । तुलसी के राम भी तो सदा लोक से ही घिरे रहते थे, भले ही उनका अभिजन वर्ग राजे-महराजे क्यों न हो ! कहना न होगा कि भक्तिकाल का पूरा संत- साहित्य ही लोक का आचरण करता है। सूर, मीरा और जायसी लोक के राग-पक्ष को- उसके सौंदर्य-रूझान को व्यापक बना रहे हैं। कबीर, दादू, रैदास, ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम और गुरूनानक आदि सभी लोक-जागरण से मनुष्य-सत्ता को सर्वश्रेष्ठ बताकर जातिगत भेदभाव और सामाजिक उत्पीड़न का विरोध कर रहे हैं। वरिष्ठ कवि-चिंतक विजेन्द्र जी ने कविता के भारतीय चित्त पर प्रकाश डालते हुये ने कहा है कि ''इससे लगता है कि भारतीय चित्त सदा लोकानुरागी, लोक-सजग तथा किन्हीं अर्थों में लोक-पक्षधर भी रहा है। इसलिये आज लोक की बात उठाकर हम न केवल केवल कविता में समकालीनता को सही परिप्रेक्ष्य में परख रहे हैं बल्कि उसके बहाने हम अपनी परम्परा को भी आज के संदर्भ में नवीकृत और व्याख्यायित कर रहे हैं।" पर पाश्चात्य मीमांसा और सम्भ्रांत वर्ग ने हमारे लोक को फोक (folk) के रूप में परोसा और प्रचारित किया है जबकि लोक का सही संदर्भ जन, यानि मासेज (masses) से है। यह अभिजन (elite claas) से अलग है और आबादी का बहुलांश भी है। आधुनिक युग के बड़े कवियों ने भी अपनी कविता का खनिज यहीं से लिया। निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार बाबू से लेकर आज के लब्ध -प्रतिष्ठ और चर्चित कवि विजेन्द्र, ज्ञानेन्द्रपति ,अरूण कमल, एकांत श्रीवास्तव, राजेश जोशी, अशोक सिंह, कुमार अम्बुज, पवन करण, अशोक कुमार पाण्डेय और उन जैसे अनेकों ने अपनी रचना में जन का ही पक्ष लेकर भारतीय काव्य-परम्परा को ठोस, मूर्त और नवीकृत किया।

हम अगर पूरे कालक्रम पर अपनी विहंगम दृष्टि डालें तो यह लक्षित होता है कि समय बदला, मानवीय संवेदनायें बदलीं, कविता की भाषा, मुहावरा भी परिवर्तित हुये पर जन का स्वर लगातार प्रखर ही होता चला गया।छायावाद के कवि भी अपनी पलायनवादी प्रवृतियों की वज़ह से बाद में ढ़लान की ओर प्रवहमान होने लगे और काव्य-धारा की प्रगतिशीलता उन्हें चुनौती देने लगी। फलत: आज़ादी के बाद छायावाद की धारा भी मंद पड़ गयी।अगर रीतिकालीन कवियों को छोड़ दें तो यहाँ तक तो कविताई ठीक-ठाक ही चला और रचना को जनता का आदर भी मिला। पर इसके विपरीत और समानांतर भी, जिन कवियों ने सत्ता का जितना आश्रय लिया- जितना सता के पास जाने की कोशिश की- आज या पहले, उन्होंने अपनी कविता और उसके गौरव को गिराया और जनता का मान भी उन्हें वह नहीं मिला जिसकी उनको अपने जीवन-पर्यन्त उत्कंठा बन रही।

गौरतलब है कि रीतिकाल के कवियों ने राजाओं के लिये लिखा, उनके मनोरंजन के लिये, उनकी वाहवाही लूटने के लिये रूप का मुल्लमा चढ़ाया अपनी रचना में। हालाकि रूप और सौंदर्य की बेहद सुन्दर कृति उस काल में रची गयी पर वे जनकवि कभी न बन पाये और न उनकी रचना लोगों का कंठहार ही बन पायी। और इसके फल भी सामने हैं - साहित्य और जनता ने या कहें, इतिहास ने ही रीतिकाल के कवियों को नकार दिया। वे सिर्फ़ इतिहास की विस्मरणीय वस्तु-भर बन कर रह गये। आज भी जो कवि मधयमवर्गीय मन और मिज़ाज से भारतीय जीवन और बड़े संसार को सिर्फ़ विदूषकीय मुहावरों से सजा रहे हैं, समझ रहे हैं और कविता में चमत्कारी वक्र भाषा का उपयोग कर पाठकों को भ्रमित कर रहे हैं, उनको लोक फोक के रूप में ही दिखलाई पड़ रहा है, वे लोक के सबल पक्ष से सदैव बेहद दूर रहे हैं। पर हम एक ऐसे देश-काल में जी रहे हैं, साँस ले रहे हैं जहाँ की सौ करोड़ जनता का जनतन्त्र अभी भी उनका अपना जनतन्त्र नहीं बन पाया है। चारो ओर लूट-खसोट, छ्ल-छ्द्म, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद, भूखमरी, गरीबी, आतंकवाद और डर के साये घिरे-पड़े हैं। बिचौलियों और जनप्रतिनिधियों के बीच जनता का सच्चा सेवक नहीं दीखता कहीं। जनता त्रस्त हो रही है सर्वत्र शासन से, सत्ता से और वर्तमान से। अत: जन की आवाज़ ही कविता या कहें कि समग्र साहित्य का ही मुख्य ध्येय होना चाहिये। अगर आज हम जनसामान्य की अवहेलना कर सिर्फ़ बुर्जुआ नेत्रों से चीज़ों को देखेंगे तो कविता में रूपवादी रूझानों की ही ओर बढ़ेंगे और हमारा इन्द्रियबोध कुंद होकर भोगवाद की ओर मुड़ जायेगा।
अस्तु, अब 'साहित्य-शिल्पी' के विगत सितम्बर 2008 के कवियों पर आता हूँ -

साहित्यशिल्पी पर सितम्बर २००८ माह के कवि
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किस देस चलूँ मौला-अनुपमा चौहान
'हरामखोर' गाली नही है - राजीव रंजन प्रसाद
बिक गये जो एक घर के वास्ते (गज़ल) -सतपाल ख्याल
उस तितली से बन जाओ (बाल कविता) - रचना सागर
कोमल बेल या मोढ़ा - मोहिन्दर कुमार
बेकल मन की बेकल बातें - गीता पंडित (शमा)
यह जमीं है गाँव की - योगेश समदर्शी
आप भी अब मिरे गम बढ़ा दीजिए (गज़ल)- श्रद्धा जैन
चलो चाँद नापते हैं (कविता) -उपासना अरोरा
दर्द का रिश्ता (कविता) -सुनीता चोटिया
गीली रेत - शोभा महेन्द्रु
एक दर्दनाक मंजर - सुशील कुमार छोक्कर
माँ - मीनाक्षी जिजीविषा
वक्त पर कुछ छोटी कवितायें - दीपक कुमार 'तन्हा'
बाँसूरी चले आओ - डा. कुमार विश्वास
वारिश - आलोक शंकर
जब तक उसके पास रहा (गज़ल) - दीपक गुप्ता
माँ का पिंडदान - दिव्यांशु शर्मा
कत्ल यहाँ अरमानों का (गज़ल) - यौगेन्द्र मौदगिल

अनुपमा चौहान संशय की स्थिति में हैं कि 'किस देश चलूँ मौला'। कविता में धर्म के नैतिक छीजन को सतही तौर पर रखांकित किया गया है। वह भी संशय के कारण कोई विकल्प प्रस्तुत करती नहीं दिखती। कविता की अंतर्वस्तु यही है कि धर्म अपने मूल में करुणा का लक्ष्य न कर अहम और दिखावे-मात्र को ही प्रदर्शित करता है जो एक सच्चाई है। कविता की लय संगति में है पर कवयित्री का लक्ष्य एक सीमा तक ही सफल हुआ है क्योंकि यहाँ भाव संश्लिष्ट होने के बजाय जटिल ही हुआ है और अंत तक आते-आते कवयित्री का प्रश्न निराशा में बदल जाता है। कहें कि यह कविता बनते-बनते चूक गयी प्रतीत होती है। कविता में विचार-बोध अधिक है जबकि राजीव रंजन की कविता 'हरामखोर' गाली नही है', अपेक्षाकृत भावबोध के ज्यादा करीब है क्योंकि वह इन्द्रिय को सजग ही नही करती प्रत्युत कविता की अंतर्वस्तु उसके रूप के साथ तादात्म्य होकर अपने सादा किंतु अर्थपूर्ण बयान में जो अर्थ-ध्वनि और बिम्ब रचती है, वह सार्थक और गहरी प्रभावन्विति छोड़ती है। स्पष्ट है कि हमारे आस-पास जो भी घटित हो रहा है उसे जब कविता में हम लाते है तो इन्द्रियबोध के संवेगात्मक गति के कारण अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी ढंग उसके बिम्ब से पाठक की चेतना में प्रवेश पाते हैं। इसलिये मैं यह बराबर कहता रहा हूँ कि कविता करते समय कवि का मात्र मन ही नही, उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ भी सजग होनी चाहिये। तभी कविता जड़ता का शिकार होने से बच पाती है। निश्चय, राजीव की कविता भोगे हुये सत्य के सन्निकट है ।
बाल कविता करना रचना सागर का बड़ा सराहनीय़ कवि-कर्म है। बाल-सुलभ ज्ञानेन्द्रियाँ तो वयस्कों के पास नहीं होती, वह बनाना पड़ता है जो एक दु:साध्य कार्य है। इसलिये बाल कविता को जो उपरी मन से सिर्फ़ अच्छी कविता कहकर 'बायपास' हो जाना चाहता है या पढ़ना नहीं चाहता, उनसे मेरा नम्र निवेदन है कि वे एक बाल कविता लिखें। तभी बाल कविता का मर्म समझ में आयेगा। शब्द- चयन में भी उतनी ही सतर्कता रखनी पड़ती है और बिम्ब भी एक सीमा तक अन्य कविता के क्रिएशन की तुलना में अलग होते है। रचना सागर की 'उस तितली से बन जाओ' (बाल कविता) इसका उदाहरण बन सकती है। आज अच्छी बाल कविताओं की बड़ी कमी है पर उसकी माँग बहुत है। बच्चे उन्हें चाव से पढ़ते हैं। मैं तो कहूँगा कि रचना को बाल कविताओं का संकलन भी निकालना चाहिये।

मोहिन्दर कुमार की कविता' कोमल बेल या मोढ़ा' स्त्री-विमर्श की सशक्त
कविता लगी-
बेटी व्याही, तो समझो गंगा नहाये
सुनकर लगा था कभी
जैसे कोई पाप पानी मे बहा आये
..........
बाकी सब वही है
एक बेल को उखाड कर
दूसरी जगह रोपा
एक भार दूसरे को सोंपा
बेल पनपेगी,
पल्लवित होगी
पर कौन जाने
कितनी सबल बनेगी ?
क्या जनेगी ?
कोमल बेल
या
मोंढ़ा
उसी से उसका आंकलन होगा
देखें आज का दुल्हा कल क्या कहाता है
मुक्त रहता है, या गंगा नहाता है

-कोमल बेल और मोढ़ा बिम्ब बड़े अर्थपूर्ण बिम्ब के रूप में लिये गये हैं जो अभिव्यक्ति को गहराई प्रदान करता है।

गीत हो या गजल, कविता हो या रुबाईयाँ, उसमें जन की आवाज़ होनी ही चाहिये। व्यक्तिगत अभिव्यक्ति अगर सार्वजनीन न हो और मात्र आत्ममुग्धता के घेरे में सिमट कर रह जाये तो जन को उससे क्या लाभ? त्रिलोचन की कवितायें देखिये, उनकी कविता को कलाहीन कला (artless art) कहा जाता है क्योंकि जन की आकांक्षा ही वहाँ कविता का मूल स्वर होती है या फिर वह प्रकृति के करीब होती है। प्रकृति से न्यस्त होकर भी कवि प्रफुल्लित होता है क्योंकि वह उसे इस जटिल दुनिया में हृदयहीन होने से बचाती है। अब आप गीता पंडित शमा के गीत' बेकल मन की बेकल बातें' की तुलना उसी के नीचे छपी योगेश समदर्शी की गीति-कविता 'यह जमीं है गाँव की' से कीजिये। पाठकों को स्वयं समाधान हो जाता है कि योगेश के गीत कितने सशक्त और अपने उद्देश्य में सफल हुए हैं ! कवि का स्वर जनवादी है जबकि गीता जी का झुकाव इस कविता में रूपवाद की ओर जान पड़ता है।

श्रद्धा जैन की हर ग़जल पठनीयता से बड़ी लबरेज होती है। शब्दों का ताना-बाना अत्यंत सहज, पर भाव उसमें अत्यंत गुम्फित होता है जो उनके कवि को भविष्य के बेहतर कवि/ गजलकार के रूप में देखने को बाध्य करता है, देखिये -
रोशनी के लिए, इन अंधेरों में अब
कुछ नही तो मिरा दिल जला दीजिए ।
उनके गजल-विधा में विद्यमान सौष्ठव को देखकर लगता है कि वह गजल की दुष्यंत-परम्परा को निर्वाह करने सक्षम हो सकता है, यदि आने वाले दिनों में उनकी रचनाशीलता अबाध और सचेत बनी रहे और लोकधर्मी चेतना का उनमें प्रसन्न विकास हो। पर उपासना अरोरा जी को फिलहाल चाँद नापने की जरूरत नहीं, और पाठकों को तो देखिये, कितने लट्टु हो गये हैं उनके साथ चाँद को नपवाने में । उलजलूल टिपणियाँ की हैं लोगों ने बिना बात को समझे- बूझे। ठीक बात है, उपासना की कविता के निहितार्थ कि, "मुहब्बत बला ही ऐसी होती है कि चाँद क्या, न जाने क्या -क्या नपवा कर छोड़े !" सुनीता चोटिया की कविता "दर्द का रिश्ता " विशुद्ध रूप से व्यक्तिवादी है जो किसी साहित्यिक चर्चा की माँग नहीं करती। पहले तो इन दोनों कवयित्रियों को अच्छे और वरिष्ठ समकालीन कवियों यथा विजेन्द्र, ज्ञानेन्द्रपति, राजेश जोशी, अरुण कमल,अनामिका, निर्मला पुतुल (नगाड़े की तरह बजते शब्द -अनुवाद:अशोक सिंह) आदि कवियों को पढ़ना चाहिये ताकि इनका व्यक्तिवाद स्खलित और टूटकर समाज और जन की पीड़ा में ढल सके। शोभा महेन्द्रु की कविता 'गीली रेत' बहुत छोटे पहल की कविता है जहाँ संवेदना का दायरा सिमट कर रह जाता है। पर मन को छूती है।
'नहीं जानती/लहरों का आवेग/और भावों का उद्वेग/क्षणिक होते है'
इसे कविता के बजाय क्षणिका कहना ज्यादा उपयुक्त होगा।

सुशील कुमार छोक्कर की कविता 'एक दर्दनाक मंजर' ऐन्द्रिक बिम्बों के रचाव के कारण संप्रेषणीय और प्रभावशाली हो पायी है और इन्द्रिय-बोध की परतों को खोलने में सक्षम भी। पर कविता में निष्कर्ष नहीं दिये जाने चाहिये। इसी कविता की अंतिम पंक्ति 'लगता हैं/तुम इंसान नहीं.....' यदि कविता में न होती तो शायद और भी तीक्ष्ण हो जाती। संकेत और प्रयुक्त ध्वनियाँ भी कविता में कविता को सपाट होने से बचाती है। अब मीनाक्षी जिजीविषा की कविता 'माँ' पर आता हूँ। मीनाक्षी बहुत ही सहज और संश्लिष्ट कवयित्री हैं। इनकी कविता 'माँ' इस माह की अच्छी कविताओं में से एक है। वैसे माँ विषय ही ऐसा है कि हर कवि इस पर लिखना चाहता है पर इस कविता में संवेदना अपेक्षाकृत अधिक बारीक और नुकीली है जो हृदय को भेद कर उसे उद्वेलित करती है। मां के अंतस में पूरा संसार समाया हुआ है और मां को जानकर संसार को जाना जा सकता है, यह कवयित्री सरीखी कोई गहरे अनुभव से युक्त प्राणी ही जान सकता है। कवयित्री का साक्षात्कार माँ के उस रूप से होता है जहाँ मां घर और जीवन को बिगड़ने से आसानी से बचा लेती है। भाषा की सरलता भावानुरूप और इतनी तरल है कि कविता किसी भी पाठक को बिना प्रभावित किये नहीं रहती। इसलिये किसी स्त्री का मां होना बहुत बड़ी बात है क्योंकि "हम तो घबरा उठते हैं/छोटी छोटी मुश्किलों में..../छोड देते हैं धैर्ये...../चुक जाती है शक्ति...../शायद 'माँ' होना/अपने आप मे ही 'ईश्वरीय शक्ति'/का होना है।"

विश्व दीपक 'तन्हा' बेहद सम्भावनाओं से युक्त कवि मालूम होते हैं। उन्हें लिखना जारी रखना चाहिये। 'वक्त' पर उन्होंने यहाँ चार छोटी कवितायें दी हैं। उनकी भाषा मुझे संयत और कविता के लिये उपयुक्त लगती है, देखिये-
वह बरगद-
जवां था जब,
कई राहगीर थे उसकी छांव में,
वक्त भी वहीं साँस लेता था,
फिर बरगद बूढा हुआ,
राहगीरों ने
उससे उसकी छांव छीन ली,
अब कई घर हैं वहाँ,
वक्त अब उन घरों में जीता है,
सच हीं कहते हैं -
वक्त हमेशा एक-सा नहीं होता।
भाषा और काव्य-तत्व दोनो धीरे-धीरे पक रहे हैं विश्व दीपक 'तन्हा' के भीतर।

डा.विश्वास की कविता "बाँसूरी चली आओ" पाठक की रुचि को बदलती तो जरूर है पर कविता में अंतर्वस्तु का प्रकटीकरण नहीं हो पाता। क्या कविता को सिर्फ़ भावों से संवलित होना चाहिये? भूख की दलील से और कुसमय से बाँसूरी कैसे अलग हो गयी? दु:ख भी तो कवि का ही गान, और उसकी बाँसूरी की तान हो सकती है। आलोक शंकर की कविता 'बारिश' में कवि की संवेदना स्खलित नहीं हुई है जो उनके कविता को एक दर्जा देती है पर शब्दचयन में कवि ने जो प्रयोग किये हैं, वह असफल रहा है और कविता को समकालीन होने से रोकती है। जैसे कि- 'स्वस्ति सुधा की इन बूँदों ने,/मन आह्लादित कर डाला है;/स्नेह भरा हृत्पात्र, नयन में,।/बारिश ने कुछ कर डाला है।/पृथा, कृषक की आँखो से,/गिर पड़े हर्ष-चक्ष्वारि उमड़कर;/कहीं मगर, शोकान्धकार/ले आये खल घट घुमड़-घुमड़कर।' अब इन शब्दों का चलन कहाँ? अगर आलोक समकालीन कविताओं की पत्रिकाएँ पढेंगे तो उनको स्वयं यह भान हो जायेगा कि अब की कविता की भाषिक संरचना कैसी होती है। हमें कविताओं मे जबरन शब्दों की घुसपैठ नहीं करानी चाहिये। भाव और शब्द में गहरा अंतर्संबंध होता है और अगर कवि सावधान और निस्पृह है तो भाव स्वयं शब्द तय करने लगते हैं और कविता बनने लगती है। उसमें बलजोड़ी ठीक नहीं, वर्ना कविता का स्वाद बिगड़ने लगता है।

'जब तक उसके पास रहा' - दीपक गुप्ता के छोटे बहर की अच्छी गजल है पर उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि गजल की विषयवस्तु मात्र आत्मश्लाघा न हो बल्कि उनमें वस्तुगत उदेश्य के पूट हों। उनमें मानव जीवन के अतर्द्वंद्व और संघर्ष की दिप्ति हो न कि मात्र प्रेमालाप और विरह के उत्स ही। गजल हो या कविता जब वह निवैयैक्तिक होकर साधारणीकृत हो जाता है तो फिर कवि का हृदय भी आत्मबद्ध नहीं रह पाता। वह मुक्त हो जाता है और तब जन के स्पंदनों को कवि अपनी रचना में महसूसने लगता है।

दिव्यांशु शर्मा की कविता 'माँ का पिंडदान' की संवेदना मन को झंकृत करती है और अपनी अभिव्यक्ति में सफलीभूत भी हुई प्रतीत होती है। यह एक हृदयस्पर्शी रचना है, देखिये- 'अन्तिम यात्रा कहते हैं लोग इसे,/रोने भी नही देते जी भर,/देते हैं मुझे हवाले ,/वासांसि जीर्णानि से,/नैनम छिन्दन्ति तक,/गीता से गरुड तक,/ईश्वर से नश्वर तक,/लौकिक से शाश्वत तक,/मैं मुस्कुरा के तुझे,/देता हूँ मुखाग्नि,।'

इस माह का प्रांरंभ योगेन्द्र मौदगिल के गजल से हुआ है। वे कलमदंश (हरिय़ाणा) के संपादक भी हैं। ये एक चर्चित जनवादी हास्य- कवि और गजलकार हैं। इनकी गजल 'कत्ल यहां अरमानों का' यहाँ प्रस्तुत हुआ है। इनकी इस रचना में जनपक्षधरता का स्वर न सिर्फ़ मुखर है, बल्कि तेवर भी तल्ख है-

उसको तो भाते हैं किस्से, केवल सुर्ख गुलाबों के
जिसके घर में इन्तज़ाम है, रोज सुनहरे दानों का।

इक चंबल सुनते थे, अब तो बस्ती-बस्ती चंबल है
राजभवन में राज हुआ है, जंगल के शैतानों का।
इनकी हृदय को आलोड़ने वाली इस गजल से गजल लिखने वालों को यह सीख लेनी चाहिये कि कैसे गजल में जन को आवाज़ दी जाती है। बात है कि जिनकी दृष्टि में मध्यमवर्गीय कुंठा न होकर लोकजगत का धूसर-धूमिल होता दृश्य उभरता है और जिनके लेखकीय संस्कार और स्वभावगत प्रवृतियाँ लोक की व्यापक अनुभूतियों से पगी होती हैं वे तो रचना में जन-गण को स्वर देंगे ही। उनकी रचना में समय का द्वंद्व स्वयं स्वभावगत होकर परिलक्षित होता है और रचना का मूल्य बढ़ा देता है।

सतपाल ख्याल की गजल भी लगभग इसी कोटि की है। यहाँ भी गजल की न सिर्फ़ विधा अपने पूरे आब पर है बल्कि उसकी अस्मिता भी आम आदमी के अदब के साथ है जिसमें एक जिन्दा इन्सान की गहरी जिजीविषा की छाया पाठक के अंतस में प्रतिकृत होती दिखाई देती है, जो एक सफल गजल की पहचान है, देखिये-
मेरे मौला रात लंबी खत्म कर
अब उजाला कर सफ़र के वास्ते।

कितने बदले हैं किराए के मकान
छ्त्त बना पाये न सर के वास्ते।

अक्टुबर अंक के कवि-गण अब इतज़ार करें अगले अंक का, वैसे अभी भी लिख सकता था पर वेबपृष्ठ के विस्तार और उसकी सीमा और साथ ही पाठकों के धैर्य को भी देखना पड़ता है,वैसे.......जो मज़ा इतज़ार में है - वो वस्ले यार में कहाँ ?

तब तक "साहित्यशिल्पी' के सुधीजनों को प्रणाम और अपना विश्राम ।***

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23 टिप्पणियाँ

  1. पैनी समालोचना है। बहुत अच्छा लगा इसे पढना। कवियों के यह अपनी कविता परखने का जैसे पैमाना है।

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  2. बहुत परिश्रम से तथा बारिक द्रष्टि लेकर लिखा है सभी के बारे मेँ विस्तार सहित जिसके लिये सुशील जी, आपका बहुत बहुत आभार

    - लावण्या

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  3. इसे समीक्षा या आलोचना न कह कर सुलोचना कहना पडेगा बहुत बडिया

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  4. निर्मला जी का सुलोचना शब्द बहुत अच्छा लगा। मै कविताओं को सामने रख कर फिर आलोचना पढ रही थी। गंभीर विवेचना है।

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  5. कविता को मन से पढना ही अपने आप में भारी काम है..हम आभारी हैं सुशील कुमार जी के जिन्होंने इतनी सारी कवितायें न सिर्फ़ पढी परन्तु उन पर समालोचना भी की वह भी विस्तार से. हमें आशा है कि आगे भी वह इसी तरह से हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगें.

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  6. पैनी काव्यालोचना। पढकर कुछ नई चीजें पता चली। यह एक अच्छा प्रयास हैं। सुशील जी का शुक्रिया।

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  7. समालोचक का कार्य वाकई कठिन है । बहुत ही ईमानदारी से कविताऒं की विवेचना व समालोचना करी गई है।

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  8. आदरणीय सुशील कुमार जी की यह प्रस्तुति कविता क्या, क्यों और कैसे जैसे प्रश्नों पर मार्गदर्शन करती है। सूक्षम मंथन और तार्किक विश्लेषण से अपनी ही कविता में वे आयाम भी दिखने लगते हैं जिन्हे जान कर लेखन को और निखारा जा सकता है।

    मेरी कविता को अपना दृष्टिकोण प्रदान करने का आभार।

    ***राजीव रंजन प्रसाद

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  9. सुशील जी ने

    आईना लगा दिया है

    सब देख परख और

    समझ-सीख सकते हैं।


    सिर्फ दूसरों के दोष

    गुण ही न देखें

    अपने दूर करने

    का करें प्रयास।


    तभी पायेंगे
    सुशील जी
    मंजिल

    पहली,दूसरी

    अथवा तीसरी।


    वैसे इमारत
    कर सकते हैं

    खड़ी बहुमंजिली।

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  10. यह आवश्यक व प्रसंशनीय स्तंभ है। यह कसौटी है। सुशील कुमार जी का श्रम दिखायी पडता है। उनके विचारों व स्पष्टवादिता से प्रभावित हूआ।

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  11. यह एक निष्पक्ष समालोचना है। सुशील जी को कविता की वर्तमान मुख्यधारा में "साहित्य शिल्पी" के सितम्बर 08 में प्रकाशित कविताएं जैसी लगीं, उन्होंने अपनी बेलाग टिप्पणी की है। कोरी वाह वाह नहीं की। रचनाओं को सामने रखा, कवियों के नामों को नहीं। यहीं नहीं उन्होंने रचनाओं के माध्यम से कवियों में छिपी संभावनाओं को भी तलाशने की कोशिश की है। इस तरह के प्रयास नए रचनाकारों के लिए बेहद मार्गदर्शक होते हैं।
    -सुभाष नीरव

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  12. भाई सुभाष नीरव जी हमारे अग्रज और मार्गदर्शक भी हैं। बहुत दिनों बाद उनकी चुप्पी टूटी है,वैसे मैं उनके शब्द-कर्म का प्रशंसक भी रहा हूँ। अपनी निजी व्यस्तताओं के बावजूद वे नेट पर साहित्य में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं जो समय पाकर बहुत रंग लायेगा,ऐसी आशा है।

    मैं ‘साहित्यशिल्पी’ के सुधी कवि-लेखक-पाठकों के इस सकारात्मक प्रतिक्रियाओं का तहेदिल से आभार व्यक्त करता हूँ। किंतु मेरे श्रम और आलोचना की सार्थकता तभी सिद्ध मानी जानी चाहिये जब लोग कविता के जनवादी-लोकधर्मी मूल्यों को आत्मसात कर अपने सृजन को उसका अभिन्न अंग मानकर कही बातों को उचित सोझ-समझ के साथ तन्मयता से अंगीकार कर सकें।

    राजीव रंजन जी से नियमित रूप से विचारों का विनिमय होता रहता है। वे साहित्य के प्रति न सिर्फ़ समर्पित हैं,बल्कि विनम्र, सजग और सचेत भी हैं। मैं उनका भी आभारी हूँ।

    कविता के गंभीर पाठकों के लिये मैंने दो साईट भी बनाया है । पहला तो ‘पतझड़’ है जिसका पता है-
    http://diary.sushilkumar.net
    और दूसरा का नाम है - ‘अक्षर जब शब्द बनते हैं’।इसका पता है- http://www.sushilkumar.net
    निवेदन है कि आप सुधीजन फुर्सत के वक्त यहाँ भी भ्रमण करें और विमर्श में भाग लें।- सुशील कुमार।(sk.dumka@gmail.com)

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  13. हमारे युवा कवि-समालोचक सुशील जी की यह आलोचना बड़ी संतुलित और प्रेरणादात्री है।मैं इनकी निष्पक्षता का कायल हूँ।

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  14. वाह सुशील जी आपने तो दूध का दूध पानी का पानी कर दिया... बहुत मेहनत लगाकर आपने प्रत्येक कविता का विश्लेषण किया है... उससे पहले इस की भूमिका के रूप मे आपने जो कविता और उसके संसार को सम्झाने की कोशिश की है वहा वाकई काबिले तरीफ है... आपके दिशानिर्देश और आपकी समीक्क़्षा इस मंच को एक विविधता तो प्रदान करेगी ही साथ ही कवियों को दिशा भी मिलेगी... आपको बधाई और साहित्य शिल्प मंच का धन्यवाद कि उसने यह अवसर पैदा किया...

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  15. susheel ji ,

    is naye yug men ,aap jaisi swast alochan karna bhi bahut mehnat aur dhairya ka kaam hai ..

    aur jis gahrai se aapne vishleshan kiya hai , wo kabile-tareef hai

    bahut bahut badhai ..

    aapka
    vijay
    http://poemsofvijay.blogspot.com/

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  16. SUSHEEL JEE ,MAIN AAPKE IS VISHLESHAN KEE MAN SE SARAAHNA
    KARTA HOON.HAR US VISHLESHAN KAA
    SWAAGAT HONA AUR USKO SARAAHAA
    JAANAA CHAAHIYE JO MAARGDARSHAK
    HO.EK BAAT AUR-AESE VISHLESHNON
    MEIN SAHITYA SHILPI MEIN AAYEE
    CHUNINDA TIPPNION BHEE SHAAMIL
    HONEE CHAAHIYE.KAYEE TIPPNIAN BHEE
    MAHATTAVPOORN HOTEE HAIN.

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  17. कविता के सौंदर्य-शास्त्र और काव्यात्मकता की सही ज़मीन को परखने की कसौटी है इस तरह की समीक्षा का स्तंभ। संभवत: ब्लॉग- हिंदी की दुनिया में पहला क़दम। स्वागत !

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  18. काफ़ी सुन्दर लगी.

    बहुत कुछ सीखने को मिला..

    एक जबर्दश्त पैनी नज़र...

    एक तरफ़ आपकी धारदार कविताएँ....

    दूसरी तरफ़ जानदार समालोचना.....

    क्या कहूँ??????

    सिर्फ़ धन्यवाद.......

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  19. मान गये गुरु!!
    लिख्खाड हो तो आप जैसा
    वरना हो ही ना…
    पुनश्च प्रणाम

    जवाब देंहटाएं
  20. बहुत अच्‍छा स्‍तंभ शुरू किया है साहित्‍य शिल्‍पी ने .... और बहुत अच्‍छी समालोचना करते हैं आप।

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