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कमलेश्वर जी पीछे छोड़ गये अपनी रचनात्मक बेचैनी [पुण्यतिथि पर विशेष] - कृष्ण कुमार यादव

अजीब दिन थे/ नीम के झरते हुए फूलों के दिन/ कनेर में आती पीली कलियों के दिन/ न बीतने वाली दोपहरियों के दिन/ और फिर एक के बाद एक लगातार बीतते हुए दिशाहीन दिन .......... अपने चर्चित उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ में जब यह पंक्तियाँ कमलेश्वर जी ने लिखी होंगी तो सोचा भी नहीं होगा कि ऐसी ही किसी वसन्त ऋतु में वह इस संसार को अलविदा कह जायेंगे। एक बार आगरा विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक में अज्ञानतावश कमलेश्वर जी की मृत्यु की बात छाप दी गई तो उसके जवाब में उसी अंदाज के साथ उन्होंने तत्काल एक लेख लिखा- ‘कमलेश्वर अभी जिंदा है।’ यहाँ कमलेश्वर सिर्फ एक शरीर का प्रतीक नहीं वरन् एक ख्यातिलब्ध साहित्यकार, अदभुत कथाशिल्पी, बेजोड़ पत्रकार व कुशल पटकथा लेखक हैं। कभी अमृता प्रीतम ने इस व्यक्ति के बारे में कहा था- ‘‘यदि सलमान रूश्दी को हिन्दी साहित्य के बारे में वाकई जानना है तो वे केवल कमलेश्वर कृत ‘कितने पाकिस्तान’ पढ़ लें।’’

मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव के साथ नई कहानी की त्रयी रहे कमलेश्वर का जन्म 6 जनवरी 1932 को उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में हुआ था। वर्ष 1954 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम0ए0 करने के बाद वे पटकथा लेखक के रूप में दूरदर्शन से जुड़ गए। अपने जीवन के इस लम्बे पड़ाव में कमलेश्वर ने हर क्षेत्र में अपना हुनर आजमाया। विहान, इंगित, नई कहानियाँ, सारिका, कथा यात्रा, श्री वर्ष और गंगा के सम्पादन से वे जुड़े तो बतौर पत्रकार 1990 से 1992 तक दैनिक जागरण और 1996 से 2002 तक दैनिक भास्कर पत्र से जुड़े रहे व इनका सम्पादन भी किया। 1980-82 तक उन्होंने दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक का कार्यभार सँभाला तो कई फिल्मों के संवाद और पटकथा को भी अपनी लेखनी से सँवारा। इसमें सौतन, सौतन की बेटी, ऐ देश, लैला, रंग-बिरंगी, मि0 नटवर लाल, मौसम, आँधी, राम-बलराम, साजन की सहेली, सारा आकाश, अमानुष, छोटी सी बात, आनंद आश्रम, रजनीगंधा, पति-पत्नी और वो एवम् द बर्निंग ट्रेन प्रमुख थीं। यही नहीं उन्होंने आकाश गंगा, दर्पण, रेत पर लिखे, एक कहानी, चन्द्रकांता, युग व बेताल-पचीसी सरीखे टी0 वी0 धारावाहिकों की पटकथा भी लिखी।

कमलेश्वर जी ने दर्जन भर उपन्यास व नाटक लिखे। इनमें लौटे हुए मुसाफिर, रेगिस्तान, सुबह-दोपहर-शाम, तीसरा आदमी, आगामी अतीत, इतने अच्छे दिन, देश-देशान्तर, समुद्र में खोया हुआ आदमी, डाक बंगला, एक सड़क सत्तावन गलियाँ, वही बात, काली आँधी, एक और चंद्रकान्ता एवम् कितने पाकिस्तान प्रमुख हैं। इसके अलावा कमलेश्वर जी ने 300 से अधिक कहानियाँ लिखीं। उनकी पहली कहानी 1948 में प्रकाशित हुई पर 1957 में ‘कहानी’ पत्रिका में प्रकाशित ‘राजा निरबंसिया’ ने उन्हें रातों-रात प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचा दिया। उनकी कहानियों में अपना एकान्त, जिंदा मुर्दे, बयान, तलाश, नागमणि, नीली झील, माँस का दरिया, आसक्ति, मुर्दों की दुनिया, कस्बे का आदमी, स्मारक, जार्ज पंचम की नाक, गर्मियों के दिन, खोई हुई दिशायें, इतने अच्छे दिन, कोहरा, रावल की रेल, आजादी मुबारक एवम् दिल्ली में एक मौत अविस्मरणीय हैं। आलोचना के क्षेत्र में उनकी ‘नई कहानी की भूमिका’ और ‘मेरा पन्ना: समानान्तर सोच’ (दो खंड) महत्वपूर्ण पुस्तकें समझी जाती हैं तो खंडित यात्रायें, जलती हुयी नदी, यादों के चिराग, संस्मरण जो मैंने जिया एवं कश्मीर: रात के बाद इत्यादि यात्रा-संस्मरण भी उन्होंने लिखे। यही नहीं कमलेश्वर जी ने संकेत, नई धारा, मेरा हमदम-मेरा दोस्त इत्यादि हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, मराठी व तेलगु कथा संकलनों का भी सम्पादन किया।

कमलेश्वर जी समय की नब्ज को पहचानने में माहिर थे। उन्होंने अपने को एक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखा वरन् साहित्य के अलावा पत्रकारिता, टी0 वी0 धारावाहिकों और सिनेमा माध्यमों से भी वे गहरे व जीवन्त रूप से जुड़े रहे। शायद वे मनोहर श्याम जोशी के इस तर्क के कायल थे कि - ‘‘जो भी विद्या मुझे अपने पास बुलायेगी, उसके पास जाना चाहूँगा। अनामंत्रति ढंग से विधाओं से मेल-मिलाप नहीं करूँगा।’’ कमलेश्वर जी बीसवीं सदी के हिन्दी कहानीकारों में अग्रणी रहे। उनमें एक साथ प्रेमचन्द व फणीश्वरनाथ रेणु के गुणधर्मों का विकास देखा जा सकता है। उनकी जुबान ऐसी थी जिसने हिन्दी- उर्दू के बीच के भेद को मिटा दिया। एक बार उन्होंने कहा था कि- ‘‘हिन्दी और उर्दू के गीतकार और गजलकार मिलकर देश में एक नई क्रांति ला सकते हैं, जो देश की जमीन पर भारतीय भाषाओं और संस्कृतियों की एकता का आगाज बन सकती है। सामाजिक शोषण से मुक्त समाज की कल्पना हम तभी कर सकते हैं, जब हमारे कलमकार एक आवाज बनें, एक स्वर में देश की पीड़ा गायें और भेदभाव से परे एक मंच पर एकजुट होकर इस देश को एकता के सूत्र में बाँधें।’’ साहित्य को वह परम्पराओं और सीमाओं में न बाँधकर समग्र रूप में देखने के हिमायती थे। साहित्य में राजेन्द्र यादव और मोहन राकेश के साथ मिलकर उन्होंने ‘नई कहानी’ आन्दोलन का सूत्रपात किया। यह बात अलग है कि प्रख्यात आलोचक डा0 नामवर सिंह ने इस त्रयी में से किसी की भी कहानी को पहली नई कहानी होने का श्रेय न देकर निर्मल वर्मा की कहानी ‘परिन्दे’ को दिया था। सही शब्दों में कहा जाय तो कमलेश्वर नई सृजनशीलता के प्रणेता ही नहीं वरन् हर उस नयेपन के समर्थक थे, जिसकी सामाजिक सार्थकता पर उन्हें यकीन था। उनका स्वयं का व्यक्तित्व और साहित्य मानवतावाद को प्रतिबिम्बित करता है। अपनी रचनाओं में एक तरफ उन्होंने शहरी जीवन की जटिल समस्याओं और संवेदनशून्यता तथा जीवन की धृष्टताओं को बखूबी रेखांकित किया तो समकालीन जीवन के जटिल प्रश्नों को सेकुलर दृष्टि से सुलझाने का भी प्रयत्न किया। इसके चलते जहाँ उनके लेखन में सहज सम्प्रेषणीयता आई, वहीं वे प्रयोगधर्मी भी बने रहे। अपनी रचनाओं में उन्होंने लोक शैली व उनसे जुड़े प्रतीकों का भी जीवन्त रूप में इस्तेमाल किया।

कमलेश्वर जी की सर्जनात्मकता पर समाज की विभिन्न प्रवृत्तियों और जीवन की विषम परिस्थितियों का भी गहरा प्रभाव पड़ा। वे सही मायने में कई आन्दोलनों का सूत्रपात करने वाले सामाजिक व सांस्कृतिक प्रवक्ता थे। जहाँ उन्होंने ‘नई कहानी’ आन्दोलन का सूत्रपात किया, वहीं मुम्बई में ‘सारिका’ पत्रिका के सम्पादन के दौरान उन्होंने ‘समान्तर कहानी’ आन्दोलन भी चलाया, जिसमें मराठी के दलित आन्दोलन को शामिल कर अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया। आज हिन्दी में दलित साहित्य आन्दोलन की जो रूप-रेखा है, उसके पीछे कमलेश्वर का बहुत बड़ा हाथ है। वस्तुत: कमलेश्वर ऐसे व्यक्ति रहे जो अपने समय से आगे जाकर सोचते थे। सारिका के सम्पादन के दौरान उन्होंने पत्रिका को तीखे तेवर दिए और साहित्य व पत्रकारिता के बीच महीन लकीर खींची। ‘नई कहानियाँ’ और ‘सारिका’ के सम्पादक रूप में उन्होंने बड़ी संख्या में युवा कथाकारों को तरजीह दी और इनमें से कई तो हिन्दी भाषी क्षेत्रों के बाहर से थे। उनके समय में सारिका सामान्य जन के संघर्ष का शंखनाद बन चुकी थी और उनके सम्पादकीय आम आदमी को ही समर्पित होते थे। ‘सारिका’ में कमलेश्वर ने लेखकों के संघर्ष को चित्रित करता स्तम्भ ‘गर्दिश के दिन’ आरम्भ किया, जो काफी लोकप्रिय हुआ। कमलेश्वर की सम्पादकीय सदाशयता इतनी मशहूर थी कि कई जरूरतमंद कथाकारों को उन्होंने पारिश्रमिक पहले दिया और कहानी बाद में छापी। एक साहित्यकार किस हद तक एक्टिविस्ट हो सकता है, इसका पता सारिका के सम्पादक के रूप में कमलेश्वर जी के कार्यों को देखकर चलता है।

मुम्बई में ‘सारिका’ के सम्पादन के दौरान ही कमलेश्वर फिल्मी जगत के करीब आए और फिल्मों के आलेख भी लिखने आरम्भ कर दिये। इस तरह रचनात्मक लेखन के साथ फिल्म लेखन का एक नवीन आयाम भी उनके साथ जुड़ गया, जिससे उनके लिये स्पेस और भी बड़ा हो गया। हिन्दी फिल्म जगत में लेखक का दर्ज़ा एक मुंशी से उठाकर सम्मानित लेखक बनाने का काम जिन लोगों ने किया, उसमें कमलेश्वर प्रमुख थे। उन्होंने सैकड़ों फिल्मों व धारावाहिकों की पटकथाएं भी लिखीं। उनकी पटकथा पर आधारित फिल्म ‘आँधी’ और ‘द बर्निंग ट्रैन’ काफी चर्चित रही। कमलेश्वर जी के उपन्यास पर आधारित गुलजार निर्मित फिल्म ‘आँधी’ की कथा और नायिका सुचित्रा सेन के हाव-भाव को इन्दिरा गाँधी से भी जोड़कर देखा गया। भारत में दूरदर्शन को रंगीन बनाने में भी कमलेश्वर का बहुत बड़ा हाथ रहा। उन्होंने ही सर्वप्रथम दिल्ली में हुए एशियाड के रंगीन प्रसारण के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को राजी किया था। यही नहीं कमलेश्वर को भारतीय दूरदर्शन के प्रथम पटकथा लेखक के रूप में भी जाना जाता है। दूरदर्शन के कार्यक्रम ‘परिक्रमा और ‘बंद फाइलें’ काफी लोकप्रिय हुए। लगातार सात सालों तक चलने वाले उनके कार्यक्रम ‘परिक्रमा’ की लोकप्रयिता का आलम यह था कि दर्शक सारे कार्य छोड़कर उस समय टी0 वी0 से चिपक जाते थे। यही नहीं कार्यक्रम के दौरान अगर बिजली चली गई तो कई बार बिजली विभाग वालों को जनता का कोपभाजन भी बनना पड़ा। भारतीय कथाओं पर आधारित प्रथम साहित्यिक धारावाहिक ‘दर्पण’ भी कमलेश्वर जी ने ही लिखा और दूरदर्शन पर साहित्यिक कार्यक्रम ‘पत्रिका’ की शुरूआत भी उन्होंने ही की।

कमलेश्वर पुराने मूल्यों की जगह नए मूल्यों को स्थापित करने वाले रचनाकार रहे हैं। मध्यम वर्ग के मानस को उन्होंने अपनी रचनाओं में उकेरा भी। सम्भवत: प्रेमचन्द के बाद कमलेश्वर ही एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने आजीवन अपने शब्दों को हथियार बनाकर शोषण के विरूद्ध सर्वहारा का संघर्ष जारी रखा। आपातकाल के दौर में सरकारी पक्ष के बहिष्कार की उन्होंने एक नई तकनीक ईजाद की और ‘सारिका’ के पन्नों के उन अंशों को सरकारी नौकरशाहों के सामने रखने की बजाय काली स्याही से ढककर अपना विरोध दर्शाया था। उनके बेबाकी के और भी उदाहरण हैं। मसलन, दूरदर्शन का क्षेत्रीय निदेशक बनाने की चर्चाओं के बीच जब वे तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी से मिलवाये गये तो उन्होंने बेबाकी से उन्हें बताया कि उन्होंने आपातकाल के खिलाफ अखबारों में तमाम सम्पादकीय और ‘आँधी’ फिल्म की कहानी लिखी है। अन्तत: इंदिरा जी भी उनकी इस बेबाकीपन और स्पष्टवादिता की कायल हुईं और 1980-82 के मध्य कमलेश्वर दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक पद पर आसीन हुए। इस पर रहते हुए उन्होंने दूरदर्शन का चेहरा काफी बदला और उसकी कलाहीनता पर नकेल भी कसी।

कमलेश्वर जी के व्यक्तित्व और उनकी रचनाधर्मिता को किसी खास फ्रेम में जड़कर देखना मुनासिब नहीं होगा। वह एक साथ ही बहुत कुछ थे, पर अपनी हर भूमिका में वे सृजनशीलता व नएपन को प्रोत्साहित करते रहे। अपने उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ में उन्होंने हर प्रकार की साम्प्रदायिकता व अंधता पर जमकर चोट की। इस उपन्यास को राष्ट्रीय ही नहीं वरन् अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया। हिन्दी में ‘कितने पाकिस्तान’ पहला ऐसा उपन्यास है, जिसके सबसे तेजी से बारह संस्करण छपे व बिक गए और विश्व की बीसियों भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। यही नहीं यह उपन्यास एक रचनाकार की कभी न खत्म होने वाली सामाजिक व मानसिक बेचैनियों को सामने लाती है और उपन्यास के उस पारम्परिक खाके में गम्भीर तोड़फोड़ करता है जिसके लिए इधर का उपन्यास काफी बदनाम रहा है। ‘कितने पाकिस्तान’ हेतु कमलेश्वर को 2003 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। इसके अलावा 1995 में उन्हें पद्मभूषण से भी सम्मानित किया गया था। 

अपना पूरा नाम कमलेश्वर प्रसाद सक्सेना लिखने वाले कमलेश्वर जी की रचनाधर्मिता तो बहुआयामी थी ही, कभी हर रोज साठ से सत्तर सिगरेट पी जाने वाले कमलेश्वर की याददाश्त के भी सभी कायल थे। उनका व्यक्तित्व भी उतना ही बहुआयामी था। 1979 में एक लेख में हिन्दुत्व पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा था कि -‘‘मैं जन्मजात हिन्दू हूँ, पर मुझे हिन्दू बनाया जा रहा है। मुझसे कहा जा रहा है कि तुम तभी सेक्युलर माने जाओगे जब अपने मन को हिन्दू मानोगे। क्योंकि हिन्दू हिन्दुत्व की प्रकृति के कारण सेक्युलर है। ........ मैं बहुत परेशान हूँ। मैं अपने मन से राष्ट्रीय भावना का लोप होना सह नहीं पा रहा हूँ। मुश्किल यह है कि मैं अभी तक हिन्दू हूँ। अब क्या करूँ। क्या मैं दोबारा हिन्दू बनना मंजूर करूँ या वही इंसान बना रहूँ जो मुझे मेरे घर वालों ने बनाया था।’’ ऐसे ही न जाने कितने मुद्दों पर कमलेश्वर जी की कलम बेबाकी से चली और किसी भी कट्टरता को उन्होंने बर्दाश्त नहीं किया। एक बार मुम्बई में दलित लेखकों के सम्मलेन का उद्घाटन उन्होंने शिवसेना की धमकियों से बेपरवाह होकर किया। उनके एक प्रशंसक ने उनके बारे में लिखा कि- ‘‘याद आता है कमलेश्वर का सदाबहार मुस्कुराता या बहसों में फँसा तमतमाता चेहरा। संगोष्ठियों के उपरान्त रस-रंजन के दौरान लतीफेबाज, हँसोड़ और यारबाश कमलेश्वर की उपस्थिति हमेशा किसी नई घटना का कारण बनती थी।’’

यह सही है कि स्थापित साहित्यकारों की ओर से सर्वाधिक हमले कमलेश्वर पर ही हुए; यहाँ तक कि उनकी वजह से साहित्य में स्थापित रचनाकारों ने भी उनको नहीं बख्शा, पर उन्होंने इसकी परवाह किये बिना अपना काम जारी रखा और आलोचकों को भी गले लगाते रहे। प्रेमचंद और यशपाल के पश्चात अवतरित नई कहानीकारों की पीढ़ी में उन्होंने प्रभावी भूमिका अदा की और जब-जब कहानी ही दिशा में भटकाव आए, उन्होंने समीक्षक की तरह मार्गदर्शन भी किया। कमलेश्वर एक जुझारू शख्सियत की तरह अपनी अंतिम साँस तक लिखते रहे। चाहे हिन्दू-मुस्लिम एकता का सवाल हो, चाहे आतंकवाद की समस्या हो, चाहे छद्म धर्मनिरपेक्षता या कट्टर धार्मिकता का सवाल हो, या फिर भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध, कश्मीर की समस्या हो, चाहे विदेश नीति या समाज की आन्तरिक समस्यायें हों या नैतिक मूल्यों के क्षरण से लेकर आम आदमी के रोजमर्रा जीवन से जुड़े सवाल हों, कमलेश्वर जी ने अपने नीर क्षीर विवेक से बेबाक रूप में सभी पर लेखनी चलायी।

कहा जाता है कि ईश्वर किसी व्यक्ति को सभी गुण एक साथ नहीं देता पर कमलेश्वर इसका अपवाद रहे। वे उन अपवाद स्वरूप लोगों में से रहे जिन्होंने अपने विभिन्न गुणों के साथ कई भूमिकाओं को जिया। ख्यातिलब्ध साहित्यकार, कथाशिल्पी, सम्पादक, अनुवादक, उपन्यासकार, कुशल पटकथा लेखक, दूरदर्शी पत्रकार, आन्दोलनकर्मी व सशक्त प्रशासक के रूप में उन्होंने हर भूमिका को जिंदादिली के अंदाज में जिया। 27 जनवरी 2007 को उनके देहावसान से उनकी भौतिक काया भले ही विलुप्त हो गयी हो पर उनकी कभी न खत्म होने वाली और निरन्तर सक्रिय बनी रहने वाली क्रांतिधर्मी रचनात्मक बेचैनी अभी भी जिन्दा है जो आगामी पीढ़ियों को उनके वजूद का अहसास कराती रहेगी।

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29 टिप्पणियाँ

  1. कमलेश्वर पर बहुत शोधपरक आलेख है। उन्हे पुण्यतिथि पर याद करना अच्छा लगा।

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  2. "कहा जाता है कि ईश्वर किसी व्यक्ति को सभी गुण एक साथ नहीं देता पर कमलेश्वर इसका अपवाद रहे। वे उन अपवाद स्वरूप लोगों में से रहे जिन्होंने अपने विभिन्न गुणों के साथ कई भूमिकाओं को जिया। ख्यातिलब्ध साहित्यकार, कथाशिल्पी, सम्पादक, अनुवादक, उपन्यासकार, कुशल पटकथा लेखक, दूरदर्शी पत्रकार, आन्दोलनकर्मी व सशक्त प्रशासक के रूप में उन्होंने हर भूमिका को जिंदादिली के अंदाज में जिया।" आपने इस आलेख में कमलेश्वर के जीवन व रचनासंसार के हर पहलु को छुवा है।

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  3. कमलेश्वर और उनकी आलोचनाओं का साथ साथ का रिश्ता रहा है, फिर भी यह कहा जा सकता है कि वे इस युग के सर्वाधिक चर्चित कहानीकार-उपन्यासकार-लेखक-पत्रकार रहे। मेरा उन्हे प्रणाम।

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  4. बहुत अच्छा लेख है कमलेश्वर पर। बधाई।

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  5. कलमेश्वर अभी जिन्दा है उन्होंने अनायास नहीं लिखा, कमलेश्वर हमेशा जीवित रहेंगे। कृष्ण कुमार यादव जी को धन्यवाद देना होगा कि एक ही लेख में कलेश्वर को परिचित कराने में तथा गागर में सागर भरने के अपने प्रयास में सफल हुए हैं।

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  6. bahutबहुत अच्छा आलेख है. कमलेश्वर जैसे लोग वाकई एक मिसाल होते हैं. आपने बहुत अच्छे शबदों मे उनके जीवन की झलक दिखाई है आपको बधाई.

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  7. पुण्यतिथि पर अच्छा विस्तृत आलेख. आभार.

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  8. कमलेश्वर पर बहुत शोधपरक आलेख है। उन्हे पुण्यतिथि पर याद करना अच्छा लगा।

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  9. कमलेश्वर की पुण्यतिथि पुण्यतिथि लेख है यह http://vinitutpal.blogspot.com/2009/01/blog-post_27.html

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  10. लेखकों व साहित्यकारों को उनके जन्म दिवस पर अथवा पुण्यतिथि पर याद करना एक बडा और सराहनीय कार्य है। साहित्य शिल्पी अपने मंच पर यह कार्य गंभीरता से अंजाम दे रही है, अच्छा लगता है। कमलेश्वर पर यह आलेख अच्छा है।

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  11. कमलेश्वर का पुण्य स्मरण करते हुए उन्हे श्रद्धांजलि।

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  12. बेहतरीन आलेख.कमलेश्वर जी को के.के. जी ने बड़े सुन्दर शब्दों में याद किया है.

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  13. एक बार आगरा विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक में अज्ञानतावश कमलेश्वर जी की मृत्यु की बात छाप दी गई तो उसके जवाब में उसी अंदाज के साथ उन्होंने तत्काल एक लेख लिखा- ‘कमलेश्वर अभी जिंदा है।’....ऐसी जिन्दादिली ही कमलेश्वर जी को भीड़ से अलग करती है. इस पुण्य स्मरण के लिए कृष्ण कुमार जी को साधुवाद !!

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  14. बड़े रोचक शब्दों में के.के. जी ने कमलेश्वर को मानो पुन: जीवंत कर दिया है. अद्भुत प्रतिभा...अद्भुत लेख.

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  15. कभी अमृता प्रीतम ने इस व्यक्ति के बारे में कहा था- ‘‘यदि सलमान रूश्दी को हिन्दी साहित्य के बारे में वाकई जानना है तो वे केवल कमलेश्वर कृत ‘कितने पाकिस्तान’ पढ़ लें।’’....कमलेश्वर जी जैसे लोग विरले ही पैदा होते हैं...पुण्य स्मरण पर श्रद्धांजलि.

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  16. जी हाँ विविध गुणों का एक साथ मिलना वाकई चमत्कार है ओर एक चीज जो आप भूल गए वे बहुत अच्छे वक्ता भी थे .

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  17. अपनी रचनाओं में एक तरफ उन्होंने शहरी जीवन की जटिल समस्याओं और संवेदनशून्यता तथा जीवन की धृष्टताओं को बखूबी रेखांकित किया तो समकालीन जीवन के जटिल प्रश्नों को सेकुलर दृष्टि से सुलझाने का भी प्रयत्न किया। इसके चलते जहाँ उनके लेखन में सहज सम्प्रेषणीयता आई, वहीं वे प्रयोगधर्मी भी बने रहे। अपनी रचनाओं में उन्होंने लोक शैली व उनसे जुड़े प्रतीकों का भी जीवन्त रूप में इस्तेमाल किया।...Really Kamleshwar ji was a great man.

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  18. एक गैप के बाद पुन: के.के. जी की साहित्याशिल्पी पर कोई रचना. मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव के साथ नई कहानी की त्रयी रहे कमलेश्वर जी जैसी विभूति पर बड़ा सारगर्भित लिखा है. बड़ा सम्यक विश्लेषण है कि- यहाँ कमलेश्वर सिर्फ एक शरीर का प्रतीक नहीं वरन् एक ख्यातिलब्ध साहित्यकार, अदभुत कथाशिल्पी, बेजोड़ पत्रकार व कुशल पटकथा लेखक हैं।

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  19. कृष्ण कुमार जी! आपकी रचनाधर्मिता पर देहरादून से प्रकाशित ''नवोदित स्वर'' के 19 january अंक में प्रकाशित लेख "चरित्र की ध्वनि शब्द से ऊँची होती है " पढ़कर अभिभूत हूँ....अल्पायु में ही पत्र-पत्रिकाएं आप पर लेख प्रकाशित कर रहें हैं, गौरव का विषय है !! आपकी हर रचना सोचने को विवश कर देती है.

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  20. ....गागर में सागर. इस लेख में कमलेश्वर जी के जीवन को जिस तरह पिरोया गया है, काबिले-तारीफ है. इसके लिए कृष्ण कुमार जी की जितनी भी तारीफ की जाय कम होगी.

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  21. सही शब्दों में कहा जाय तो कमलेश्वर नई सृजनशीलता के प्रणेता ही नहीं वरन् हर उस नयेपन के समर्थक थे, जिसकी सामाजिक सार्थकता पर उन्हें यकीन था ...कमलेश्वर जी का सटीक विश्लेषण....श्रद्धांजलि !!

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  22. कमलेश्वर जी का पुण्य स्मरण सुखद लगा. युवा पीढी के उत्प्रेरकों में से वो एक हैं.

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  23. जानकारियों से भरा सुरुचिपूर्ण लेख !

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  24. बेहतरीन आलेख है। कमलेश्वर जी की पुन्य स्मरण के लिए कृष्ण कुमार जी को बधाई।

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  25. कमलेश्वर जी जैसे व्यक्तित्व के लिए जितना भी लिखा जाए कम है... उनके बारे में सार्थक लेख के लिए यादव जी का आभार.

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  26. बहुत अच्छा लेख है कमलेश्वर पर....
    बधाई

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  27. शोध से भरपूर अच्छा एवं विस्तृत लेख...बधाई स्वीकारें

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  28. बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी नई कहानी के अगुआ कमलेश्वर के कृतित्व और व्यक्तित्व पर प्रकाश डालता सारगर्भित शोधपरक लेख. उनका सृजन हमारी अमूल्य धरोहर है.

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