
एक अच्छी ग़ज़ल के लिए शुद्ध व सही भाषा होना भी आवश्यक है। मंजी हुई भाषा के बारे में उर्दू-हिंदी और पंजाबी के जाने-माने शायर जनाब सोहन 'राही' ने क्या सटीक कहा है-
सादा सहल सही जुबां
गर हो तो ग़ज़ल होती है।
रामनरेश त्रिपाठी ने कभी हिंदी कवियों की भाषा पर टिप्पणी करी थी- “उर्दू के शायरों और हिन्दी के कवियों की तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उर्दू के शायरों नें अपनी भाषा को शुद्ध करनें, खरादने, मांजने और चमकाने में जितना परिश्रम और लगन से काम किया है उनके मु़काबले में उस तरह की प्रवृति हिंदी कवियों ने बिल्कुल नहीं दिखाई है और न अब दिखा रहे हैं।“
हिन्दी के कुछ एक ग़ज़लकारों के अशुद्ध भाषा व शब्दों के गलत प्रयोग के संदर्भ में उनका कथन आज भी असत्य नहीं है। ग़ज़ल की सही व शुद्ध भाषा उसको शक्ति व स्तरीयता प्रदान करने में सक्षम होती है। निम्नलिखित शेर का महत्व इसलिये है क्योंकि उसकी भाषा मंजी और मुहावरेदार है।
बड़े शौक से सुन रहा था ज़माना
हमीं सो गए, दासतां कहते-कहते- सफ़ी लखनवी
मंजी हुई और मुहावरेदार भाषा का जादू पाठक के सर पर ही नहीं बल्कि उसके दिल की गहराइयों में उतर कर बोलता है। यहां एक बात ध्यातव्य है कि ग़ज़ल हो, गीत हो, रूबाई हो या चौपाई हो, भाषा में कोई अंतर नहीं है। ऐसा नहीं है कि ग़ज़ल की भाषा कुछ और होती है और गीत, रूबाई और चौपाई की भाषा कुछ और। हां यह आवश्यक है कि काव्य की भाषा ऐसी न हो जो गाली-गलौच जैसी लगे और जिसे सुनकर सुधी पाठक के मन में ग्लानि पैदा हो। ऐसे ही शेर से संबद्ध एक वाक्या है। लगभग पैंतालिस साल पहले की बात है कि जलंधर से प्रकाशित दैनिक उर्दू'प्रताप' के साहित्य संपादक द्वारिकादास 'निष्काम' के पास प्रताप में छपने के लिए उनके गुरूभाई राजन की ग़ज़ल आई। उसका मतला था-
'नु़क्ताचीनों की बात करते हो
किन कमीनों की बात करते हो'
इस शेर पर 'निष्काम' जी को उसकी भददी भाषा को लेकर एतराज़ था। उन्होंने ग़ज़ल को पत्र में नहीं छापा। राजन ने उस्ताद पं मेलाराम वफ़ा से इस बारे में शिकायत की। शेर की आपत्तिजनक भाषा को पढ कर वफ़ा साहब का चित्त भी हताश हो गया।
भाषा की एक छोटी सी भूल भी शेर के सौन्दर्य को कम कर देती है। दुष्यंत कुमार का शेर है:-
'उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें
चाकू की पसलियों से गु़ज़ारिश तो देखिए'
उन्होंने अपने शेर में 'उन्हें' शब्द का ग़लत प्रयोग किया है। 'उन्हें' के स्थान पर 'उनकी' होना चाहिए था। साथी छतारवी की दो पंक्तियाँ पढिए-
'अब तो टूट गया इस मन का वो चमकीला दर्पन
प्राण प्रिये अब मेरे घायल गीत तुम्हारे अर्पन'
'तुम्हारे' के स्थान पर 'तुम्हें ही' आता तो साथर्क होता।
काव्य-भाषा की शुद्धता से संबद्ध जितना स्तुत्य कार्य महाबीरप्रसाद द्विवेदी के युग में हुआ उतना परवर्ती युग में नहीं। सूयर्कांत त्रिपाठी 'निराला' तो लठ लेकर उन साहित्यकारों के पीछे पड़े रहते थे जो भाषा की शुद्धता को गंभीरता से नहीं लेते थे। भाषा की शुद्धता से संबद्ध उनके लेख उनकी पुस्तक 'चाबुक' में संग्रहित हैं। उर्दू अदब में इससे संबद्ध महत्वपूर्ण कार्य हुआ। इस संदर्भ में उर्दू ग़ज़ल तो है ही उल्लेखनीय। नसर की तरह उर्दू शायरी की विशेषता रही है -व्याकरण और कविता का चोली-दामन का घनिष्ट संबंध। उसकी एक-एक पंक्ति व्याकरण के हिसाब से चुस्त-दुरूस्त है।
व्याकरण के उलंघन की छूट पाना असंभव है। हर बात उसके घेरे में ही रह कर कहनी पड़ती है। वतर्मान कालिक सहायक क्रिया (हूं, हो या है) को ही लीजिए। हिंदी कवि अपनी काव्य-पंक्ति में इसका इस्तेमाल नहीं भी करे तो चलता है किन्तु उर्दू शायर को यह मान्य नहीं है। उसका तर्क है कि यदि शेर में भूतकालिक सहायक क्रिया (था, थी या थे) और भविष्यकालिक सहायक क्रिया (गा, गी या गे) काव्य में निश्चितरूप से आती है तो वतर्मान कालिक सहायक क्रिया ही की उपेक्षा क्यों हो? उदाहरण के लिए दो किल्पत पंक्तियां है-
मैं गीत प्रणय के गाता
बस इसमें ही रम जाता
'गाता' और 'जाता' की सहायक क्रिया हूँ को छोड़ देने से ऊपर लिखित दोनों पंक्तियों की पूर्णता पर प्रश्नचिह्न लग गया है। इनकी खूबसूरती बरकरार रहती अगर ये यूं होती-
मैं गीत प्रणय के गाता हूं
बस इसमें ही रम जाता हूं।
एक और उदाहरण लीजिए। ज्ञानप्रकाश 'विवेक' का मतला है-
गांव जब से बना है शहर दोस्तों
पी रहा हादसों का जहर दोस्तों
'बना ही सहायक क्रिया ' है' मतला के पहले मिसरे को पूर्णता प्रदान कर रही है सो तो ठीक है लेकिन दूसरा मिसरा 'पी रहा' की सहायक क्रिया ' है' के न होने से अधूरा लगता है। ' है' को शायरी में इस्तेमाल न करने की छूट ज़रूर है लेकिन उस पंक्ति में जिसमें नहीं शब्द आता है और वह पंक्ति भूतकाल या वतर्मान काल की ही होनी चाहिए। उसका सीधा-सादा उत्तर दिया जाता है कि 'नहीं' में ही ' है' निहित है। शेर देखिए -
हम वहां हैं जहां से हमको भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती- ग़ालिब
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27 टिप्पणियाँ
बहुत बढिया आलेख....
जवाब देंहटाएंकुछ समझेंगे...कुछ गौर करेंगे.....कुछ बेपरवाह बने रहेंगे.....ज़माना ही ऐसा है..क्या करें?
प्रयोग की दृष्टि से मेरा को मिरा या तेरा को तिरा जैसे प्रयोग ग़ज़ल में होते रहते हैं। क्या यह भाषा की अशुद्धता के अंतर्गत नहीं आते?
जवाब देंहटाएंआदरणीय प्राण जी। आपकी कक्षा मेँ आने के लिये सोमवार की मुझे प्रतीक्षा रहती है। नंदन जी की बात से ही अपना प्रश्न जोडना चाहूंगी कि आपका उदाहरण:
जवाब देंहटाएंमैं गीत प्रणय के गाता
बस इसमें ही रम जाता
इससे "काश एसा होता" अर्थ सामने आता है।
जबकि हूँ लगा कर-
मैं गीत प्रणय के गाता हूं
बस इसमें ही रम जाता हूं।
यहाँ "काश" जैसी भावना की प्रतीति नहीं होती।
एक नये गज़लकार को आप एसी मुश्किलों के लिये क्या सलाह देंगे?
आलंकारिक भाषा के लिये कई बार क्रिया से छेड छाड करनी पडती है। इसे आप किस दृष्टि से देखते हैं। लेख बहुत अच्छा है। बहुत सीखा है आपसे।
जवाब देंहटाएंसही बात, इस तरह के आलेखों की बहुत जरूरत है।
जवाब देंहटाएंवाक्यों की पूर्णता और भाषा की शुद्धता काव्य में चार चाँद लगा देती है. बहुत जानकारीपूर्ण एवं उपयोगी आलेख.
जवाब देंहटाएंप्राण साहब नमस्कार,
जवाब देंहटाएंभाषा की शुद्धता के बारे में बहोत ही उपयोगी और सही जानकारी दी है आपने ..ये लेख तो सहेज कर रखने लायक है बहोत बहोत आभार आपका..
आपका
अर्श
भाषा की शुद्धता का मैं भी समर्थन करता हूँ। भाषा को आगे बढाना है तो उसके साथ न्याय करना भी आवश्यक है। प्राण साहब का धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख है। बधाई।
जवाब देंहटाएंpप्राणजी मेरे जैसी अल्पग्य के लिये बहुत सार्थक जानकारी है धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंशायरी में रूचि रखने वाले लोगों के लिए एक उपयोगी एवं मार्गदर्शक लेख। आभार।
जवाब देंहटाएंNice Article. Thanks.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
प्राण शर्मा जी का गहन अध्ययन उनके आलेखों में नज़र आता है। ग़ज़ल पर उनके आलेख न केवल संग्रहणीय हैं अपितु हिन्दी में भी इस विधा को महत्वपूर्ण स्थान दिलाने में सहायक होंगे।
जवाब देंहटाएंकोई प्रश्न नहीं, केवल सहमति। भाषा की शुद्धता का ध्यान रखा जाना चाहिये, तभी साहित्य साहित्य होगा।
जवाब देंहटाएंआपके आलेख की गुण्वत्ता ही इस श्रंखला को महत्वपूर्ण बना रही है। बहुत अच्छा आलेख है।
जवाब देंहटाएंबड़े शौक से सुन रहा था ज़माना
जवाब देंहटाएंहमीं सो गए, दासतां कहते-कहते
सफ़ी लखनवी साहब के इस शेर में हमीं शब्द क्या भाषा की दृष्टि से प्रयोग में सही है।
Nandan jee,shayree mein vah Hindi
जवाब देंहटाएंKEE ho YAA Urdu kee swar ko giraana
ab fashion ban gayaa hai.Hamaare
bhaktikaaleen kavion ne bhee swar ko
giraayaa hai.Maine apne lekh mein
iske baare mein likha hai.
Nidhi jee,sahahak kriya ke prayog
se bhasha nikhartee hai.Agar "kash"
shabd kaa prayog hota to "Main
geet pranay ke gaataa" pankti sahee
hotee.
Anuj jee,"humhee" hum aur hee kee
sandhi se banaa hai.jaese tumhee,
unhee aadi.
pran sir ji ,
जवाब देंहटाएंnamaskar,
seekh raha hoon sir ji ... lekin thodi mushkil si baat lagti hai .. ek baat jaanna chahunga.. ki bahut jyada technicalities , kya gazal ko prabhaav ko kabhi kabhi week kar deti hai ? aisa sirf main kabhi kabhi sochta hoon ... maanta nahi .. bus jaanana chahta hoon..
aapka
sishya
vijay
भाषा की शुद्धता पर बहुत सी अनजानेपन में लिखी त्रुटियों को गंभीरता से लिया गया है। आज नवीन काव्यात्मक प्रवृत्तियों के विकास के नाम पर शब्दों के रूप को बिगाड़ना एक फ़ैशन सा हो गया है। इसमें संदेह नहीं कि बोलचाल की भाषा की प्रवृत्ति साहित्य के विकास में सहायक होती है किंतु ऐसा भी नहीं कि मर्यादा का उलंघन कर दिया जाए।
जवाब देंहटाएंशर्मा जी ने दैनिक 'प्रताप' में 'राजन' की ग़ज़ल के मतले का सुंदर उदाहरण दिया है।
इन्टर्नेट और साहित्य शिल्पी को नमन करता हूं कि आज प्राण शर्मा जैसे गुणी गुरू से जिज्ञासु पाठक अपने कंप्यूटर पर सीख रहे हैं, उनसे टिप्पणी-वार्ता द्वारा अपने संशय दूर कर रहे हैं। यह प्राण जी का महानता है कि लेख के बाद भी पाठकों के उत्तर देने में अपने मूल्यवान समय में से कुछ समय निकाल ही लेते हैं। आपके अगले लेख के पढ़ने की उत्सुकता बढ़ रही है जिसमें अन्य बारीकियों से अवगत कराएं जिससे रचनाओं को मांजने और चमकाने का अवसर मिले।
बधाई।
dhanyabaad praan ji
जवाब देंहटाएंkaafi gyaan badhaya aapne bhasha ki shudhta ke baare main dhanyabaad
Priy Vijay kumaar jee,
जवाब देंहटाएंQuality ho to cheez ziada
der chaltee hai.Hai n?
aadarniya pran ji ,
जवाब देंहटाएंmain aapse sahmat hoon ..
ab dekhna ye hai ,ki main kab aapka acha sishya ban jaata hoon ..
thodi samay ki kami hai , bus lekin kuch na kuch to kar hi loonga ..
aapka aashirwad jo hai , mujh par..
aapka
vijay
भाषा की शुद्धता और शब्दों के उपयुक्त चयन पर बहुत ही सूक्ष्म जानकारी ...... बहुत बढ़िया ....आभार
जवाब देंहटाएंप्राण जी को नमन है.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया के लिये शब्द कम हैं सर.
सोमवार से सोमवार तक की दूरी कभी इतनी लंबी नहीं लगी....
बहुत बढिया आलेख.
जवाब देंहटाएंguru ji main to seekh rahi hoon
जवाब देंहटाएंghnto baithi rahti hoon lekh ko padte samjhte
dubara padte aur dubara samjhte
phir kuch naya pad kar usko samjhan
aur uthe sawalon ko shant karna
yahi chal raha hai
'अब तो टूट गया इस मन का वो चमकीला दर्पन
जवाब देंहटाएंप्राण प्रिये अब मेरे घायल गीत तुम्हारे अर्पन'
'तुम्हारे' के स्थान पर 'तुम्हें ही' आता तो साथर्क होता।
उक्त उदहारण में 'तुम्हें' के साथ 'अर्पण' के स्थान पर 'अर्पित' लगाना होगा या नहीं?
लेख अपने आपमें एक उपलब्धि है.
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.