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सबसे बुरे दिन [कविता] - अशोक कुमार पाण्डेय

सबसे बुरे दिन नहीं थे वे
जब घर के नाम पर
चौकी थी एक छह बाई चार की
बमुश्किलन समा पाते थे जिसमे दो जिस्म
लेकिन मन चातक सा उड़ता रहता था अबाध!

बुरे नहीं वे दिन भी
जब ज़रूरतों ने कर दिया था इतना मजबूर
कि लटपटा जाती थी जबान बार बार
और वे भी नहीं
जब दोस्तों की चाय में
दूध की जगह मिलानी होती थी मजबूरियां.

कतई बुरे नहीं थे वे दिन
जब नहीं थी दरवाजे पर कोई नेमप्लेट
और नेमप्लेटों वाले तमाम दरवाजे
बन्द थे हमारे लिये.

इतने बुरे तो खैर नहीं हैं ये भी दिन
तमाम समझौतों और मजबूरियों के बावजूद
आ ही जाती है सात-आठ घण्टों की गहरी नींद
और नींद में वही अजीब अजीब सपने
सुबह अखबार पढ़कर अब भी खीजता है मन
और फाइलों पर टिप्पणियाँ लिखकर ऊबी कलम
अब भी हुलस कर लिखती है कविता.

बुरे होंगे वे दिन
अगर रहना पड़ा सुविधाओं के जंगल में निपट अकेला
दोस्तों की शक्लें हो गई बिल्कुल ग्राहकों सीं
नेमप्लेट के आतंक में दुबक गया मेरा नाम
नींद सपनों की जगह गोलियों की हो गई गुलाम
और कविता लिखी गई फाईलों की टिप्पणियों सी.

बहुत बुरे होंगे वे दिन
जब रात की होगी बिल्कुल देह जैसी
और उम्मीद की चेकबुक जैसी
विश्वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन
खुशी घर का कोई नया सामान
और समझौते मजबूरी नहीं बन जायेंगे आदत.

लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन
जब आने लगेगें इन दिनों के सपने!

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33 टिप्पणियाँ

  1. यतार्थ के धरातल पे लिखी गई एक सत्य उगलती कविता....तालियाँ

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बुरे होंगे वे दिन
    जब रात की होगी बिल्कुल देह जैसी
    और उम्मीद की चेकबुक जैसी
    विश्वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन
    खुशी घर का कोई नया सामान
    और समझौते मजबूरी नहीं बन जायेंगे आदत.

    लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन
    जब आने लगेगें इन दिनों के सपने!

    अच्छी रचना है लेकिन विरोधाभास भी है। यह समझना मुश्किल है कि कवि जिस स्थिति से असंतुष्ठ है उसे पाता क्यों है? यथास्थिति तो कभी भी बनायी जा सकती है।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत बुरे होंगे वे दिन
    जब रात की होगी बिल्कुल देह जैसी
    और उम्मीद की चेकबुक जैसी
    विश्वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन
    खुशी घर का कोई नया सामान
    और समझौते मजबूरी नहीं बन जायेंगे आदत.
    " जीवन के एक ऐसे सच को उजागर करती पंक्तियाँ जिन्हें हम आम जीवन मे समझ नही पाते मगर होता ऐसे ही है....और हम इनको सुख सुविधा मन कर भ्रम जाल मे उलझे रहते हैं....शानदार.."

    Regards

    जवाब देंहटाएं
  4. कितनी अच्‍छी बातें लिखी....कितने सुंदर ढंग से...बहुत अच्‍छा लगा।

    जवाब देंहटाएं
  5. आदरणीय अशोक जी
    नमस्कार .

    कविता का प्रारम्भ जिस ढंग से हुआ है .. वो बेहतरीन है .. कविता हम सभी को अपने संगर्ष के दिन याद दिलाती है ....लेकिन संघर्ष किया किसलिए जाता है ? ..एक बेहतर ज़िन्दगी के लिए !! .. जहाँ इतनी खुशियाँ तो अवश्य " खरीदी " जा सके कि जीना दुश्वार न लगे और कोई भी मुश्किल का सामना कर सकें .. और निश्चित ही , इन खुशियाँ का एक मोल होंगा ,जो की आपकी कविता के second part में है .. we have to pay a price for whatever we seek.. ..

    हर इंसान की ज़िन्दगी ऐसी ही होती है , जैसा आपने दर्शाया है .. संघर्ष के दिनों की खुशियाँ का कोई मोल नही होता है ,.. वो अमर होतें है .. और जब ज़िन्दगी में सबकुछ मिल जाएँ ,जिसके लिए संघर्ष किया हो , तब ज़िन्दगी ऐसी ही बेमानी लगती है , जैसा आपने लिखा है ..

    फिर ये शिकायत क्यों .. मैं नंदन जी से सहमत हूँ .. हमने हर हाल में अपने मन की खुशी को खोजना होंगा ..

    well , कविता बहुत अच्छी बन पढ़ी है , मुझे अपने संघर्ष के दिन याद आ गए , जब मैं तीन तीन दिन भूखा रहता था और street light के नीचे पढता था .. ये अलग बात है की ,आज मेरे पास 6 degrees है ,engineering ,MBA,Economics etc .. लेकिन जो खुशी उन संघर्ष के दिनों में थी , वो अब इस जीवन में कभी भी नही मिलेंगी .. फिर भी , खुशियाँ ढूँढना है और खुश रहना है ..

    आपको बधाई
    आपका छोटा भाई
    विजय

    जवाब देंहटाएं
  6. लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन
    जब आने लगेगें इन दिनों के सपने!

    अशोक की बहुत अच्छी रचना है। लेकिन इन दिनों के सपने में ही हर आदमी जीता है। हाल ही में केवल कृष्ण शर्मा जी की कविता इसी मंच पर पढी थी। कट्टर वामपंथी रचना लेकिन सपना वहाँ भी थी कुछ एसा ही सपना। लिंक दे रही हूँ-
    http://www.sahityashilpi.com/2009/01/blog-post_2643.html
    मुझे लगता है कविता स्वयं को उडेलती है। आत्माभिव्यक्ति है केवल। बाकी विद्वान जन कहेंगे। बात अन्यथा लगे तो क्षमा कीजियेगा।

    जवाब देंहटाएं
  7. अशोक जी
    बदलते समय को आपने बहुत अच्छे शब्दों में बाँधा है. बीता हुआ समय अधिकतर अच्छा ही होता है चाहे कष्टकर रहा हो..बीत जाने के बाद सहज सा लगता है यदि उसके बाद समय अच्छा रहे.. परन्तु यदि वही कड़ी बार बार स्वयं को दोहराती रहे तब यह असहनीय हो जाता है.
    उम्मीद पर दुनिया कायम है इसलिए सोचता हूँ की आने वाले सपने और समय दोनों भी अच्छे ही होंगे...हाँ हमें अपने में बहुत परिवर्तन लाना पड़ेगा .. सुंदर रचना के लिए बधाई

    जवाब देंहटाएं
  8. दोस्त की तरह बात करती एक सहज सी कविता … यह यथार्थ सिर्फ़ कवि का नही है, नन्दन जी यह समझना होगा कि कवि इन दिनो को भी अच्छा नही कह रहा … क्या मात्र इस वजह से कि उसे दोस्तो की चाय मे मजबूरी मिलानी पड रही है … पर यह दिन सबसे बुरे दिन भी नही है क्योंकि मन चातक सा अबाध उड सकता है ……किन्तु आगे बढ्ने और सीढिया चढ्ने में अन्तर भी हो सकता है …जिन्दा रहने की आपाधापी कई बार जिन्दा होने के एहसास को छीन भी लेती है यह चुनाव कवि का नही…कविता को पाश की सबसे ख़तरनाक है/जीने के दुहरा मे फन्स जाना /न होना तडप का /सब सहन कर जाना…से जोडकर देखा जाना चाहिये। असन्तुष्ट होना लडने की पहली शर्त है।

    जवाब देंहटाएं
  9. पवन जी कविता मुझे बहुत अच्छी लगी है। कविता असंतोष को स्पष्ट करती है। हाँ कविता में पाश वाली पंक्ति का जोर नहीं है। कविता कहीं नहीं कहती कि मैं असंतुष्ट हू इस लिये लडूंगा अपितु कवि की कविता ही छोटी होती जा रही हैं। कवि लिखता है कि-

    नींद सपनों की जगह गोलियों की हो गई गुलाम
    और कविता लिखी गई फाईलों की टिप्पणियों सी.

    लेकिन कवि अपने असंतोष के खिलाफ नहीं उठा। वह बागी नहीं है। उसे दिन बुरे लगेगें तो भी वह जियेगा अपनी सुविधा में चूंकि जीवन उसकी प्राथमिकता है और कविता नहीं। पाश की कविता खिलाफत करती है जबकि कवि की यह कविता उसे निरीह सिद्ध करती है।

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत बुरे होंगे वे दिन
    जब रात की होगी बिल्कुल देह जैसी
    और उम्मीद की चेकबुक जैसी
    विश्वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन
    खुशी घर का कोई नया सामान
    और समझौते मजबूरी नहीं बन जायेंगे आदत.

    सचमुच यह हो रहा है। आधा मध्यमवर्ग आपकी कविता से स्वयं को जुडा पायेगा।

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  11. बहुत सुन्दर और गहरी रचना, बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  12. कविता दो भागो में बंटी हुई है | पहला भाग एक संघर्ष और उस संघर्ष में छिपी हुई अनेको छोटी छोटी खुशियों से और आत्मसंतुष्टि से जुड़ा हुआ है | उपभोग के साधन न होने के बावजूद एक दिलासा है दिल को , कि संघर्ष जारी है जीवन की तरह | दूसरा भाग उस दशा को दर्शाता है जहाँ साधन तो हैं सुख सुविधाओं के , पर अब तक बहुत सी चीज़ें अपना मूल अर्थ खो चुकी हैं ... अपनी आत्मा खो चुकी हैं ... "फाइलों पर लिखी गयी टिप्पणी सी कविता" उस आत्मा के खोने का सूचक है ... दोनों भागो में फाइलें , नींद , कविता ,दोस्त , नेम प्लेट सांझे आब्जेक्ट्स हैं और वही दोनों भागो को जोड़ते हैं | एक तुलना भी है इन सांझे आब्जेक्ट्स की शक्लो में और उस तुलना से पनपा विरोधाभास भी ..
    किसी एक टिप्पणी में कवि के विद्रोह पर प्रश्न चिह्न लगाया गया है ... मैं असहमत हूँ उस से ...
    "लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन
    जब आने लगेगें इन दिनों के सपने!"..
    इन पंक्तियों में कवि का विद्रोह साफ़ झलकता है क्यूंकि वह इन दिनों से संतुष्ट नही है... उन्हें अच्छा नहीं कह रहा है .. कुल मिला कर एक बेहतरीन रचना .. जो जी गयी है , और जी जाती है ....

    जवाब देंहटाएं
  13. और समझौते मजबूरी नहीं बन जायेंगे आदत...एसा न हो भाई। कविता बहुत अच्छी है। और इसका मर्म भी अच्छा लगा यानि कि

    लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन
    जब आने लगेगें इन दिनों के सपने!

    आप अच्छे कवि हैं।

    जवाब देंहटाएं
  14. समय के एक भाग को उकेरती कविता ...

    जवाब देंहटाएं
  15. शुक्रिया मित्रों
    दरअसल कविता का अर्थ तो वही होता है जो पाठक समझे…तो किसी से कोई शिकायत नही
    लेकिन दो बातें आपसे साझा करना चाहुन्गा…मै वैसी ज़िन्दगी जी नही रहा उन्के तो सपने से भी डरता हूँ …कविता व्यक्तिगत होते हुए भी सामाजिक होती है…पाश का ज़िक्र कुछ मित्र ले आये…दरअसल पाश के जिस विद्रोही तेवर की बात की गयी है वह उनके पूरे कवि व्यक्तित्व से निकलती है। इस कविता मे वे कहीं लडने की बात नही करते बस सबसे ख़तरनाक दिनो की ओर इशारा करते हुए सपनो के ख़त्म हो जाने को सबसे ख़तरनाक बताते हुए कविता समाप्त कर देते हैं । यह समय वह है जब सपने ख़त्म नही होते बदल जाते हैं तो मैने कोशिश की है अपने समय की सच्चाई को सामने रखने की कोशिश की है…यह अपना दर्द बयान करने वाली बात नही एक ख़तरनाक समय से सावधान करने की कोशिश है। निरीहता तो नही है यह भाई कि कही नही लिखा कि जीना पडेगा/मुझे तो उन सपनो से सावधान रहने कि फ़िक्र है। हाँ हर कविता के फ़र्मेट मे लडुन्गा नही फ़िट बैठता।
    अब अगर सम्प्रेषित नहीं हो पाया तो कसूर सिर माथे पर।

    जवाब देंहटाएं
  16. हाँ !यथास्थिति बनाये रखना तो परिवर्तन विरोधी है भाई। सवाल तो बदलते समय मे बेहतर दुनिया के सपनो को बचाये रखने का है।
    अभाव बुरे नही होते तो अच्छे भी नही…हम तो ज़माने भर मे शान्ति,सम्रुद्धि और समाजवाद चाहते है जहाँ मनुष्य मुनाफ़े की अन्धी हवस की जगह अपने रचनात्मकता को विस्तार दे सके।

    जवाब देंहटाएं
  17. अशोक जी का स्पष्टीकरण सही है। कवि का अपनी रचना के प्रति दृष्टिकोण दिखायी पडता है। पाठको का मंतव्य भी उनकी निगाह से देखने पर सही जान पडता है जैसा अशोक जी कहते हैं दरअसल कविता का अर्थ तो वही होता है जो पाठक समझे। मेरी दृष्टि में भी रचना सशक्त है।

    जवाब देंहटाएं
  18. बहुत अच्छी कविता है अशोक जी। बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  19. बुरे नहीं वे दिन भी
    जब ज़रूरतों ने कर दिया था इतना मजबूर
    कि लटपटा जाती थी जबान बार बार
    और वे भी नहीं
    जब दोस्तों की चाय में
    दूध की जगह मिलानी होती थी मजबूरियां
    बहुत सुंदर लिखा है.

    जवाब देंहटाएं
  20. माफ़ कीजियेगा अशोक पाण्डेय जी, आपकी यह कविता कहीं से भी कविता के मानदंडों पर खरी नहीं उतरती है. कविता के लिये जिस भाषा, जिस बिम्बात्मक अनूभूति और जिस सम्वेदना की ज़रूरत होती है…वह तो नही ही है, कथ्य के स्तर पर भी अत्यन्त घिसा पिटा बयान है जिसमे कोई चमक नही। भाई लोग तो बड़ाई करते रहते हैं, करते रहेंगे...

    जवाब देंहटाएं
  21. यह टिप्पणी सुशील भाई ने मेरे ब्लाग पर की थी। आज शायद नाराज़ है तो क्षमा याचना सहित उनकी राय पाठकों के लिये

    अशोक कुमार पाण्डेय की कविता ‘सबसे बुरे दिन’ उन बुरे दिनों के प्रति आदमी को सचेत करता है जहाँ आदमीयत की गंध का उसके कठिन समय की विकट परिस्थिति में बनावटी पूँजी-गंधों से दब कर कहीं खो जाने का डर बना रहता है। पर यह संशय आज के पूँजी केन्द्रित वातवरण के व्यामोह में फँसे समाज में बिल्कुल जायज है। दरअसल इस कविता में सुविधाभोगी वर्ग के प्रच्छन्न हेतुओं के प्रति एक आंतरिक विद्रोह का भाव है जो मन के तरंगों में एक सकारात्मक विक्षोभ की आवृतियाँ पैदा करता है। कविता पढ़कर आदमी यह सोचने को उद्धत होता है कि वह अपने अभाव के दिन तो किसी तरह हँस- खेल कर जी ही सकता है पर भोग-प्रमाद की सुविधाओं की लालच से बने दिन का एक पल भी जीना दूभर हो जायेगा क्योंकि धन हमारे चारो ओर मायाजाल की ऐसी श्रेणियाँ रचता है जिसमें वस्तु ही प्रधान होता है,आदमी के बजाय। वह आर्थिक श्रेणियों का आधार-मात्र और कहें कि उसका पिच्छ्लग्गू बनकर रह जाता है। कविता में अभिव्यक्ति का ढंग भी अनूठा है जो पाठक को अंत तक लीन रखता है। कवि की शब्दों में वह ताक़त है जिससे कवि की संवेदना निजी होते हुये भी पाठक की संवेदना में घुल जाता है और कवि के कहने का सत्व पाठक के विचार का तत्व बन जाता है। एक अच्छी कविता के लिये अशोक कुमार पाण्डेय जी को बधाई।-सुशील कुमार।

    जवाब देंहटाएं
  22. बहुत बढ़िया कविता। दिन बुरे शायद उतने नहीं होते जितना उन्हें बिताने का हमारा तरीका होता है।
    घुघूती बासूती

    जवाब देंहटाएं
  23. सुशील जी की टिप्पणी निसन्देह वह बयान करती है जो मै कहना चाह्ता था……सुशील जी वाकई अद्भुत आलोचक हैं
    09179371433

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  24. susheel ji ek behtar alochak hai , jo hamen ye bataati hai ki kya sahi hai aur kya galat .. unki spasht alochana se hamne to seekhane ko hi milenga .. hamesha ..

    waise mai kavitaon ke baaren men jyada jaanata nahi hoon..

    जवाब देंहटाएं
  25. मित्रों,

    कम से कम दस टिप्पणी हटायी गयी हैं जिनका रचना से कोई संबंध नहीं था।

    यह आपस में लडने का मंच नहीं है और इस प्रकार की किसी भी टिप्पणी का इस मंच पर स्वागत नहीं है। आपसी लडाईया कृपया मंच से बाहर ही रखें।

    वेबसाईट को और इसमें हिन्दी तथा साहित्य के लिये किये जा रहे प्रयासों को तभी गंभीरता से लिया जा सकता है जब पाठक भी उस दायित्व को समझेंगे। निजी विचारधारा को प्रसारित कीजिये लेकिन अपनी रचनाओं से, लेखक को गालियाँ दे कर या कटाक्ष कर के नहीं, एसा करना आपकी लेखकीय गरिमा को तो गिराता ही है इस मंच की गंभीरता को भी समाप्त करता है।

    रचनायें कितनी अच्छी हैं उसकी विवेचना पाठक करते हैं। अंतर्जाल के पाठक और प्रिंट मीडिया के पाठक जैसा झगडा बार बार इस मंच पर हुआ है। हम वेब माध्यम को उतना ही गंभीर मानते हैं और अपने पाठकों का हृदय से सम्मान करते हैं। पाठक पाठक है और उसे पूरा हक है आपकी रचना अंगीकृत करने का, पसंद करने का या अपनी समझ से खारिज करने का। उस मूल्यांकन की अवमानना कृपया लेखक अथवा टिप्पणीकार न करें।

    साहित्य शिल्पी मंच अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करता है इस लिये किसी भी प्रकार का मॉडरेशन नहीं लगाया जा रहा है। कृपया हिन्दी, साहित्य और इस मंच की गरिमा को गिरने न दें। हमारी करबद्ध प्रार्थना है।

    सहयोगाकांक्षी
    -साहित्य शिल्पी

    जवाब देंहटाएं
  26. आप साहित्य से सम्बंधित ब्लॉग चला रहे हैं इससे जाहिर है कि आप सहृदय हैं. यह बहुत खुशी की बात है. मैं इसके लिए आपको साधुवाद देता हूँ. लेकिन एक अनुरोध है कि भाषा पर विशेष ध्यान दें, अन्यथा आपका उद्देश्य विफल हो जाएगा. अकबर इलाहाबादी के शेर में आपने 'दुनियाँ' लिख रखा है जबकि सही लफ्ज़ है 'दुनिया'. इसी तरह दूसरे मिसरे में 'खरीददार' लिखा हुआ है जबकि सही लफ्ज़ है 'खरीदार.'

    उम्मीद है आप इसे आलोचना की तरह नहीं, सुझाव के तौर पर लेंगे. धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  27. सबसे बुरे दिन
    वे होंगे जब
    सब शोक में
    होंगे डूबे
    छितराते उतराते
    यादों के नहीं
    सपनों के जंगल में
    अपने से ही बतियाते
    मोबाइल पर खिलखिलाते
    कीबोर्ड पर चमचमाते
    अक्षर रंग बदल रहे होंगे।

    कविता बेहतरीन है
    इसी से स्‍पष्‍ट है
    दस लोगों जिनकी
    टिप्‍पणियां हटाई गई हैं
    उन्‍हें कविता अधिक पसंद
    आई होगी,
    फिर अहसास हुआ होगा
    हमारे लेखन से बेहतर लेखन
    इसलिए उगली होगी आग।

    वैसे आग ऊर्जा ही है
    अब उससे कोई
    जलता है
    कोई पलता है
    लेकिन कविता का
    तो पढ़ने से
    पता चलता है।

    जवाब देंहटाएं
  28. साहित्य शिल्प के संचलाकगण ! बहुत सही लिखा आपने की यह आपस में लडने का मंच नहीं है और इस प्रकार की किसी भी टिप्पणी का इस मंच पर स्वागत नहीं है। आपसी लडाईया कृपया मंच से बाहर ही रखें।......पर बेहतर हो की यह बात सभी पर लागू हो. अशोक पाण्डेय की कविता पर कमेन्ट हुए तो आपको यह बात याद आई, पर इससे पहले भी तो ऐसा हुआ है...पर आपने कुछ नहीं बोला....कहीं कुछ खास लोगों को आपका वरदहस्त तो नहीं है ?....मुझे ख़ुशी होगी यदि आप सभी के सम्बन्ध में सामान मानदंड अपनाते.

    जवाब देंहटाएं
  29. मान्यवर बाजीगर,
    आपकी टिप्पणी इस लिये नहीं हटायी जा रही है कि बात स्पष्ट हो। कुछ रचनाओं पर लगातार विषय से इतर विवाद हुए हैं। हमारा मंतव्य है कि यहाँ केवल रचना पर बात हो। किसी भी निर्णय के किये समय लगता है और यह तय है कि साहित्य शिल्पी पर इस तरह की टिप्पणिया स्थान नहीं पा सकती। हमारे किये सभी रचनायें महत्वपूर्ण हैं और सभी लेखक माननीय।

    कृपया पाठक सहयोग करें जिससे हम आपके लिये बेहतर से बेहतर सामग्री उपलब्ध करा सकें।

    जवाब देंहटाएं
  30. बहुत बुरे होंगे वे दिन
    जब रात की होगी बिल्कुल देह जैसी
    और उम्मीद की चेकबुक जैसी
    विश्वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन
    खुशी घर का कोई नया सामान
    और समझौते मजबूरी नहीं बन जायेंगे आदत.


    bahut sach kaha hai
    aajkal yahi halat hai kitna bura sach hai jo sawapn mein bhi bura hai

    जवाब देंहटाएं
  31. बहुत अच्छी रचना है अशोक जी, बहुत अनुभव से उपजी रचना लगती है.. दर्शन से उपजे शब्द. विचार से ओतप्रोत भाव भूत से वर्तमान तक का चित्र अच्छे कथ्य की रचना है, समाज को सोचने के लिये मजबूर करने वाली रचना है... सुंदर रचना के लिये बधाई स्वीकार करें अशोक जी...

    जवाब देंहटाएं
  32. Paash's complete poetry in Hindi is available at my blog http://paash.wordpress.com .Those who have not read Paash 's most famous poem on this subject-SAB SE KHATARNAK can read it at my blog.

    जवाब देंहटाएं

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