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काव्यालोचना [अक्टूबर माह में साहित्य शिल्पी पर प्रकाशित रचनाओं की समालोचना] - सुशील कुमार

इधर छंद को लेकर 'साहित्यशिल्पी' में महावीर शर्मा जी की एक छंदयुक्त कविता पर दी गयी टिप्पणी के आलोक में एक बहस सी चल पड़ी थी। कुछ समय पहले जयपुर की सुप्रतिष्ठित पत्रिका 'कृतिओर' में भी इस विषय पर लंबी बहस चली थी। कहने का मतलब कि कहने का मतलब कि छंद पर बहसें बराबर चल रही हैं। दरअसल यह बहस कम होता है और लोगों को अपने पक्ष में करने का उद्योग अधिक। कुछ छंदों की ओर लौटने की बात करते हैं तो कुछ आगे बढ़ने की। पर इस तरह की बहसों में विवाद ही अधिक होता है, संवाद कम क्योंकि सहमतियाँ बन नहीं पाती। 

वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी का मत है कि "कविता में छंद नहीं लय प्रमुख है। छंद उसकी एक प्रजाति है। लय का रिश्ता शिल्प के उपरी ढाँचे से न होकर कविता की अंतर्वस्तु में व्याप्त हमारी मानवीय निजता एवं प्राण-शक्ति से भी है।" 

प्रखर समालोचक डा.जीवन सिंह का मानना है कि "लय का सबंध कविता के रूप-विधान से है जो कविता के लिये प्रयुक्त वाक्यों, वाक्यांशों और शब्दों का एक प्रवाहमयी संयोजन करके पैदा की जाती है।...कविता में जिसे हम गद्यात्मकता कह रहे हैं वह कविता में सरसता और भावपरायणता का ह्रास है। दरअसल बौद्धिकता के ज्वार में हमने कविता में सरसता और भावपरायणता को इतना दरकिनार कर दिया है कि ये बातें कविता के लिये अछूत जैसी बना दी गयी है।..हमारे यहाँ गद्य साहित्य की रचना जितनी पश्चिमी प्रभाव में हुई, उतनी कविता में नहीं। इसका सीधा सा कारण है हमारे यहाँ कविता की सुदीर्घ और समृद्ध परम्परा का होना। उसकी अनदेखी कर जो रचना होगी वह नई और आधुनिक तो अवश्य होगी परन्तु आत्मिक स्तर पर उतनी समृद्ध और पूर्ण नहीं होगी। इस वजह से कभी हम कविता में छंद का सवाल उठाते हैं तो कभी लय का। यह दुविधा है। जब हमने छंद से मुक्ति लेकर मुक्त छंद को अपना लिया है तो फिर बजाय मुक्तिछंद के वैशिष्ट्य और विविधता को सम्पन्न करने के, हम छंद वापसी की बातें करने लगे। मान लीजिये छंद की वापसी हो भी गयी तो फिर दोहा छंद होगा या चौपाई होगी, मात्रिक छंद होंगे या वार्णिक या आल्हा का वीर छंद होगा या रीतिकालीन कवित्त और सवैये। कहा जा सकता है कि यह कुछ भी होगा तो अभी से कल्पना कीजिए कि बौद्धिक पिछड़ेपन और अग्रगामिता का कैसा वातावरण बनेगा? इससे गद्यात्मकता का क्षरण तो हो ही जायेगा लेकिन छंद का जो रीतिवाद और रूढ़वाद पैदा होगा, उसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। यह वैसे ही है जैसे आज कोई लोकतान्त्रिक व्यवस्था के जातिवाद, सम्प्रदायवाद, पूँजीवाद, बाहुबलवाद, आदि विकृतियों से परेशान होकर यह कहने लगे कि इससे तो राजाओं का राज, अँग्रेजी राज और सैनिक तानाशाही ही अच्छी। स्वाद बदलने के लिये या प्रयोग के लिये छंद में लिख लेना अलग बात है लेकिन अपने समय की जटिलता को व्यक्त करने के लिये छंद का लौटना शायद ही गुणकारी हो। यह सभ्यता के विभिन्न चरणों का सवाल है, न कि अकेले छंद का। हम जैसे अपनी वेश-भूषा को विशेष समारोहों पर धारण कर प्रसन्न हो लेते हैं। लेकिन सामान्यतया मध्यवर्ग की वेश-भूषा अब पैंट-शर्ट हो चुकी है। उसी तरह छंद की बात है। हम जहाँ तक आ चुके हैं उससे पीछे लौटना, मेरी राय में न उचित है और मुश्किल काम तो यह है ही।"

- समालोचक डा. जीवन सिंह ने कविता के छंद-वापसी पर अपने ये विचार श्री महेश पुनेठा द्वारा लिये गये उस साक्षात्कार के दौरान प्रकट किये हैं जो देहरादून की सुपरिचित मासिक प्रिंट पत्रिका 'लोकगंगा' के नवम्बर, 2007 अंक में पृष्ठ 29 पर छपी थी। अत: समकालीनता को वापस घसीटकर उल्टी दिशा में नहीं ले जाया जा सकता। छंद की ओर लौटने का मतलब है समय का भूतकाल में लौटना, परम्पराओं का अपने उसी समय में वापस होना। जैसे नदी का प्रवाह उलट नहीं सकता ठीक वैसे ही कविता का वर्तमान अपने पीछे नहीं लौट सकता। गीत की जगह भी नवगीत अब लिखे जाने लगे हैं। वस्तुत: कविता में विचार-बोध की जगह भावबोध की दरकार है। इसलिये छंद की जगह अगर लय की बात करें, कविता में भावप्रवणता कैसे पैदा की जाय इसकी चिंता हो, तो बहस सार्थक दिशा में आगे बढ़ सकती है।

अस्तु, अब अगर अक्‍टूबर 2008 माह अंक में प्रकाशित गजलों को छोड़ दूँ तो 'साहित्यशिल्पी' पर निम्नांकित कवितायें दृष्टिगत होती हैं: -



कविता लावण्या शाह जी की रचना सीता-स्तुति से आरंभ होती है। यह संस्कृत में लिखी एक काव्य-सुकृति है। उनकी इस कविता में अपनी परम्परा का प्रभूत खनिज विद्यमान है। इसे मैं भारतीय चित्त की कविता कहूंगा। उनसे आग्रह होगा कि इस रचना का हिंदी अनुवाद भी कविता के फॉर्म में ही प्रस्तुत किया जाए तो और भी बात बन जायेगी।

उसके बाद की कविता पवन चंदन की 'बारिश और क्षणिकायें' है। पवन चंदन की कविता का खास गुण होता है उसमें छिपी व्यंग्य-परिहास का पुट। कहने का ढंग निराला और अद्भुत! बिना पूरी कविता पढ़े कोई रह ही न पाये! जितनी मजेदार-जायकेदार उनकी कविता होती है उतने ही रसिक-हँसमुख उनका व्यक्तित्व भी है - देखिये,

तपती हुई प्रकृति/गर्मी से झुलस कर/सावन के आते ही/वसुधा पे उतर कर
बादल की मशक लेकर/तन-मन को धो रही है/लोग कहते है/बारिश हो रही है।

यहां वर्षा के तीन सोपान है, सब खटमिठ्ठे बेर का आस्वाद लिये हुये, मन में सिहरन पैदा करते हुये।

फिर दीपावली पर कुछ कवितायें आयीं हैं - प्रवीण पंडित की 'दीपावली गिफ्ट एक्सप्रेस', ब्रिजेश शर्मा की 'दीपावली तब मने' और श्रीकांत मिश्र 'कांत' की 'दीया नहीं जलेगा'। फिर ज्योति पर्व पर पं. नरेन्द्र शर्मा और लावण्या शाह की ज्योति वंदना।

प्रवीण पंडित की 'दीपावली गिफ्ट एक्सप्रेस' कविता एक रोचक बाल कविता है। बाल-कविता को कभी नज़रंदाज नहीं किया जाना चहिये। मै पहले भी कहता रहा हूँ कि अक्सर लोग इससे बचकर निकल जाना चाह्ते हैं। पर बाल कविता करना बड़ा कठिन काम होता है। वहीं ब्रिजेश शर्मा की 'दीपावली तब मने' कविता अत्यंत औसत दर्जे की कविता है जिसमें समाज के सरोकार को मात्र लिपिबद्ध कर दिया गया है। श्रीकांत मिश्र 'कांत' की 'दीया नहीं जलेगा' की थीम बहुत प्रशंसनीय है। मगर कविता में लय का अभाव एक अंश तक खटकता है। पाठक पढ़कर स्वयं यह महसूस कर सकते हैं। फिर भी दीपावली नहीं मनाने के कारण - यानि देश में फैले हिंसावृति और राजनीतिक कुचक्रों को कविता में रेखांकित करने का पूरा प्रयास किया है।

स्व. पं. नरेन्द्र शर्मा और लावण्या शाह की ज्योति वदंना ज्योति पर्व के अन्यतम गीत हैं। जीवन में सुख-समृद्धि के आलोक बिखेरने की पवित्र प्रार्थनायें हैं ये कवितायें। लावण्या शाह की कविता देखकर स्व. प. नरेन्द्र शर्मा का अभाव खलता नहीं, क्योंकि इनकी कवितायें भाषिक सामंजस्य और अभिव्यक्ति के ढंग के परस्पर समन्वय से इतना एकमेक होकर पाठक के समक्ष प्रस्तुत होता है कि लावण्या की रचना में स्व.नरेन्द्र की रचना की प्रतीति होने लगती है और पाठक सम्मोहित हो जाता है। कविता में जन के सुख की अभिलाषा का प्राचुर्य यहाँ कविता के सामाजिक मूल्य में अभिवृद्धि कर रहा है।

वही अनुपमा चौहान की कविता 'मै कुछ दिनों तनहाई चाहती हूँ' दु:ख से भींगी हुयी विशुद्ध व्यक्तिवादी कविता है। इस तरह की कविता अपनी डायरी/ब्‍लॉग में ही लिखी जानी चाहिये। तब उनकी उपादेयता बनी रहेगी। पर इनका सार्वजनिक होना ज्यादा से ज्यादा पाठकों से सहानुभूति बटोरने जैसा है जहाँ कवयित्री के दुख से द्रवित होकर उनको सांत्वना के दो शब्द ही मिल पायेंगे, उससे अधिक कुछ नहीं। जब तक कवि अपने आत्मगत अनुभव को वस्तुगत अनुभव यानि बाह्य जगत का हिस्सा नहीं बना पाता तब तक उसकी कविता व्यापकता और गहराई से दूर रहती है क्योंकि वह खुद में आत्मबद्ध होता है कि शेष दुनिया पर उसकी नज़र नहीं जाती।

आलोक शंकर की कविता 'उजालों की जानिब कहां..' भी किसी साहित्यिक चर्चा की मांग नहीं करती क्योंकि यहां भी कवि अपनी स्वकीय-वृति से उबर नहीं पाया है और कविता आत्मग्रस्तता का शिकार होकर रह गयी है।

सुषमा गर्ग की कविता' सूरज चाचा' बाल कविता है पर यह प्रवीण पंडित की कविता ''दीपावली गिफ्ट एक्स्प्रेस' से कमजोर और सपाट है जो रुचि उत्पन्न करने में उतनी सफल नहीं हुई। इसको लिखने में श्रम नहीं किया गया लगता है।

इसके बाद आता हूं विश्व दीपक की कविता - 'तेरे लब' पर। भाई मान गये विश्व दीपक जी! आपकी कविता पढ़कर एकबारगी मैं चौंक गया!! देखिये आप भी कुछ अंश-

चाँद के चकले पर लबों की बेलन डाले,
बेलते नूर हैं हमे, सेकने को उजाले ।
उफ़क को घोंटकर
सिंदूर
पोर-पोर में
सी रखा है।
धोकर धूप को,
तलकर
हाय!
अधर ने तेरे चखा है!!

अरे भाई लब पे इतनी आयतें क्यों लिख रहे हो? आपकी भाषिक समझ को देख कर लगता है कि आप अच्छा लिख सकते हैं पर आप तो प्यार की कश्ती ही चलाये जा रहे हैं!

प्राण शर्मा की कविता 'फिर जग तुझ पर क्यों मरता है' को अगर बाल कविता का दर्जा मिले तो ठीक है। है भी बाल कविता ही पर संभवत: लिखा नहीं गया है जिससे संशय की स्थिति उत्पन्न होती है। सात पहरों में लिखी इस कविता में सात प्रश्न और उसके उत्तर हैं। कविता रुचि और बाल-आस्वाद को परख कर लिखी गयी है। बच्चों को एक उज्जवल संदेश देती हुई।

कृष्ण कुमार यादव की कविता 'बच्चे की निगाह' साधारण बिबों की असाधारण अर्थ-स्फिति लिये एक महत्वपूर्ण कविता लगती है जहाँ भाव अत्यंत संश्लिष्ट हैं -

छत पर देखा
एक कबूतर घायल पड़ा है
उठा लाता है उसे
जख्मों पर मलहम लगाता है
कबूतर उन्मुक्त होकर उड़ता है।
बच्चा जोर से तालियाँ बजाकर
उसके पीछे दौड़ता है
मानों सारा आकाश
उसकी मुट्ठी में है।

उसके बाद राजीव रंजन प्रसाद  की कविता 'टुकड़े अस्तित्व के' पर आता हूँ। सभ्यता के निगेटिव चरित्र को लेकर जब कोई कविता रची जाती है और उसमें मानव-मूल्यों का संधान किया जाता है तो यह एक ज़ोखिम भरा,किंतु महत्वपूर्ण कार्य होता है। जैसे कि,रावण और कैकेयी को लेकर लिखी गयी कई कविताएँ भी हैं, जहाँ मनुष्य के उदात्त मूल्यों की सृष्टि की गयी है। राजीव रंजन प्रसाद की कविता 'टुकड़े अस्तित्व के' में भी हम एक ऐसी ही कल्पना से साक्षात्कार करते हैं। यहाँ कविता की अंतर्वस्तु इतिहास को अभिनव रुप में प्रस्तुत करती हुई दृष्टिगत हुई है जिसमें कविता का रूप, उसकी भाषा तदनुसार लक्ष्य करके कवि की संवेदना को अभिव्यक्त करती है। वर्तमान सदैव इतिहास का अंधानुगामी नहीं होता, अपने अनुसार भी सिरजता है,यह कविता उसका अप्रतिम उदाहरण हो सकती है। मानवीय संघर्ष उस ईश्वरता के भी विरुद्ध यहाँ क्रियाशील और सचेष्ट दीखता है जो हमें छ्ल-छ्द्म सिखाते हैं -"फिर ये सवाल होगा, क्या मुझसे वक्त जीता?/तुम सोच रखो उत्तर, तुम ठेके हो सत्य के/जब सामना करेंगे मेरे टुकडे अस्तित्व के..." कविता मानवमन में बैठी जड़ता ,उसकी रूढ़ि को तोड़ती हुई, सत्य के ठेकेदारों को चुनौती देती हुई उसके युगीन संघर्ष में शामिल होने की प्रेरणा देती है, उसकी जिजीविषा को उकसाती है।

उसके बाद कविता है अशोक सिंह की 'बेटियाँ'। परिवेश का दवाब अशोक सिंह के कवि को लिखने के लिये मज़बूर करता है। समकालीन यथार्थ पर सार्थक हस्तक्षेप करती उनकी यह कविता 'बेटियाँ' मानवीय रागात्मकता के आंतरिक हेतुओं के प्रति अत्यंत संवेदनशील और अनुभूतिपरक है। कवि अपने समय के जीवन-प्रवाह के निकट जाकर उसके सामाजिक अंतर्सबंधों की गहराई में इतना धँसता है कि भावनिबद्ध रूढ़ियाँ कपूर बनकर उड़ जाती हैं और मानवीय रिश्तों में एक तरह की नवीन उर्जा का तत्काल आभास दे जाती है। उपर्युक्त दृष्टि से 'बटियाँ' कविता काफी सफल हुई है।

रितु रंजन की कविता 'और फिर शून्य में' कवयित्री के सुखद कविता-कर्म के भविष्य की आश्वस्ति देती है। उनकी भाषिक समझदारी को देखकर लगता है कि यदि कवयित्री का सौंदर्यबोध आत्मबद्धता से मुक्त होकर जनचेतना के वृहत्तर आयाम को अपना सका तो रितु एक अच्छी कवयित्री के रूप में उभर सकती हैं।

इसके बाद प्रवीण पंडित की पुन: एक कविता है- 'दोगे राम?' यह कविता स्त्रियों की दशा को देखने का पुरुष -नज़रिया है। स्त्रियाँ भाग्यवादी बनकर क्या करेंगी? कोई राम नहीं आयेगा सांत्वना देने, स्पंदन कराने और अवलंबन देने। उसको वह आत्मसंबल इसी पृथ्वी से ग्रहण करना होगा और कर भी रही है। कविता की अंतिम पंक्ति ही "दोगे राम?" ही संपूर्ण कविता के गुप्त रहस्य का भेदन करती है वर्ना कविता मात्र उपदेशात्मक होकर रह गयी होती। कविता की लय रचना को जीवंत बनाती है, पर कवि ने खतरे उठाये हैं।

बुधराम यादव जी  की कविता 'फिर भी लेश मात्र अंत नहीं है क्लेश का' दु:ख का रागालाप मात्र प्रतीत होता है-

मान्यता एक एक कर सभी दरक रही
सौम्य संस्कारों से ये पीढियां सरक रही
बिम्ब रोज ढह रहे हैं आपसी प्रतीति के
वर्तमान हो रहा आजाद निज अतीत से
अब रहा विश्वास सिर्फ़ उस अशेष का
फ़िर भी लेशमात्र अंत नहीं है क्लेश का

कवि सिर्फ़ दु:ख को अभिव्यक्त कर ही कवि-कर्म की इतिश्री नहीं मान सकता। दुराशा और नैराश्य की कुहेलिका फाड़कर निकल आना भी कवि और कविता का अभिप्रेत होना चाहिये। द्वंद्व और संघर्ष में जीने की कला तो कविता से ही आती है। कवि को उस विकल्प की तलाश भी करनी होगी जो जन को जीने की उर्जा दे सके। फिर भी कविता की प्रभावान्विति तीक्ष्ण है। यह कविता मुक्त छंद में और कारगर होती।

योगेश समदर्शी की कविता 'झुलसा फकीर' जमीन की गंध देती बड़ी समृद्ध कोटि की कविता है। कविता का बांकपन उसमें प्रयुक्त लोक-शब्दों की बानगी में देखी जा सकती है।'गांव गांव में छांव ढूंढता फिरता एक फकीर' के बहाने गाँव की माली हालातों पर गहरा दृष्टिपात किया गया है।

इसके बाद की कविता लावण्या शाह की 'बीती रात का सपना' पढ़ा। वे बहुत प्रखर कवयित्री हैं पर उनकी इस कविता से यह भासमान हो रहा है कि कहीं वह जन की आवाज़ को कुंद कर रूपवाद की उन अतियों की ओर मुड़ जायें जिसका खतरा हिदी साहित्य में सदैव बना रहता है! क्योंकि उनके कविता को पढ़कर यह संशय मन में गहरा रहा है। उनके इस कवितांश से क्या समझूं-रुपहली रातोँ मेँ खिलतीँ कलियाँ जो,/भाव विभोर, स्निग्धता लिये उर मेँ,/कोमल किसलय के आलिँगन को,/रोक सहज निज प्रणयन उन्मन से/वीत राग उषा का लिये सजाती,/पल पल मेँ, खिलतीँ उपवन में!/मैँ, मन के नयनोँ से उन्हेँ देखती,/राग अहीरों के सुनती, मधुवन में,/वन ज्योत्सना, मनोकामिनी बनी,/गहराते सँवेदन, उर, प्रतिक्षण में/साथ ही, उनकी भाषिक पकड़ और रचनात्मक उर्जा को देखकर लगता है कि अगर वह आमजन के संघर्ष और द्वंद्व को अपनी कविता की अंतर्वस्तु बना पायीं तो उनकी कविता जन का कंठहार बनने में कोई विलंब भी न होगा।

आलोक शंकर के 'कुछ मुक्तक' को पढ़ते हुये लगता है कि उन्हें सितारे ,सूरज, दीपक,आसमान इत्यादि पुराने बिम्बों से बचना चाहिये। उनकी अंतिम मुक्तक कुछ ठीक लगी, पर फार्म और कन्टेन्ट नया नहीं है -

राम नही बसते धरती के मंदिर और शिवालो में
या चन्दन टीका करके बस भोग लगाने वालो में
वे मर्यादा की प्रधानता का प्रतीक हैं , संबल है
उन हृदयों में राम बसें ,जो प्रेम भाव से विह्वल।

कवि-कर्म बड़ा कठिन और जोखिम भरा काम है। पर यह एक सामाजिक कर्म है और कविता समाज की बेहतरी के लिये उत्पाद। इस लक्ष्य को पाने के लिये निरंतर कवि को नवीन की चिंता करनी होगी। रूप और वस्तु दोंनो के स्तर पर। तब जाकर कवि अपने समय को अतिक्रमित कर आगे बढ़ सकेगा। निराला, मुक्तिबोध, दिनकर, धूमिल,नागार्जुन, त्रिलोचन, विजेन्द्र जैसे कवियों ने यही किया।

उपासना अरोरा की कविता 'गिटलीघुम [बाल गीत] पर राजीव रंजन जी की टिप्पणी सही है कि 'बाल साहित्य लिखना असाधारण कार्य है। यह ऐसा ही है जैसे नयी पौध को खाद पानी से सींचना। अगर बच्चों में ऐसे संदेश जग गये तो समझिये क्रांति हो गयी।' वह अगर बात को समझ पायीं तो आगे अच्छी कवितायें लिख सकती हैं , ऐसा उनकी रचनात्मक क्षमता को देखकर अनुभव होता है पर मेहनत तो करनी पड़ेगी। और कविता के समकालीनता और काव्य-तत्व से रूबरू भी होना होगा।

सुनीता चोटिया 'शानू' की कविता 'पतंग की डोर' को पढने से आभास होता है कि कविता में जीवन के गूढ़ अनुभव को रखने का प्रयास किया गया है पर कविता के रूप और उसकी वस्तु का भी सवाल है। संवेदना का लक्ष्य कविता में उसके काव्यशास्त्रीय अनुशासन से भी उतना ही संपृक्त होता है जिसको भंग कर या जिसे अनदेखा कर अगर अपनी बात कविता में रखी जायेगी तो फिर वह कविता ही नहीं रह पायेगी। ऐसे छिछले अनुभव से बचने के लिये आवश्यक है कि हम दूसरों की भी अच्छी कविताओं पर गौर करें और अपने आस-पास घट रही छोटी-बड़ी चीजों के प्रति अपनी ज्ञानेन्द्रियाँ भी सजग रखें ताकि इन्द्रियबोध का बल हममें नित्य बढ़ता रहे। यह अच्छे कवि में स्वभावत: होता है जिससे हमारी आत्मबद्धता और आत्ममुग्धता कपूर की तरह उड़ती रहती है और हम अपनी दुनिया में शेष दुनिया को शामिल करने का जोखिम और साहस उठा पाने को प्रेरित होते रहते हैं। यह अनुभव हमें कविता के उस वृहत्तर संसार से जोड़ने में सहायक होता है जो कविता का असली यानि उसका यथार्थवादी संसार है। मात्र कल्पना का योग देकर कोई सच्ची कविता नही रच सकता।

अजय यादव की कविता 'इन्सान ही बदल गया है' बहुत छोटे पहल की कविता है जिसमें न विषय ही गंभीर और प्रौढ़ है और न शिल्प ही निखर पाया है। यह समझना होगा कि हर बार भावबोध कविता का सही रूप नहीं ले पाता। 'सब नज़ारे वही हैं पर इन्सान बदल गया है।'- यही कविता का केन्द्रीय भाव है यहाँ पर इन्सान कैसे, क्यों बदल गया है? प्रकृति क्या परिवर्तनशील नहीं है? अगर गौर से देंखे तो समूचे ब्रह्मांड में कहीं स्थिरता नहीं है। जड़-चेतन सब क्रियाशील और बदलाव की स्थिति-नियति से जूझ रहे हैं। आदमी भी तो प्रकृति का ही रूप है और वह भी रोज बदल रहा है पर जो बदलाव आदमीयत के पक्ष में नहीं है, उसको रेखांकित तो करना ही होगा। उसके लिये वह भाषा भी चाहिये जो उसको उसके रूप में ढाल सके। दूसरी बात, जैसा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का कहना था कि "कविता मे अर्थ-ग्रहण के बजाय बिम्ब-ग्रहण प्रमुख होता है, अर्थात वहाँ जो अर्थ आता है वह बिम्ब के माध्यम से आता है। बिम्ब, प्रतीक, रूपक, व्यंजनायें, फेंटेसी, मिथ, वक्रोक्तियाँ आदि कविता की कला को व्यक्त करने वाले माध्यम रहे हैं जिनसे कविता की संप्रेषण-क्षमता प्रभावित होती है और एक पृथक किंतु सुन्दर और नियोजित रास्ते से कवि-भावों तक पहुँचना पड़ता है।" यह विचार कवियों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है पर यहाँ ध्यान यह देना है कि कविता में बिम्ब के जबरन घुसपैठ से भी कविता का स्वाद बिगड़ जाता है। अगर कवि का लक्ष्य स्पष्ट न हो तो चित्रात्मकता हर बार अंतर्वस्तु का प्रकटीकरण नहीं कर पाती, क्योंकि वह बिम्ब का रुपाकार नहीं ले पाती। नतीजा, कोरी वाग्विदग्धता का शिकार हो जाती है। इससे कविता का अनिष्ट होता है। रामचंद्र शुक्ल जी को सप्रमाण रखते हुए प्रखर समालोचक डा. रमाकांत शर्मा की एक मूल्यवान स्थापना है कि "विचार और दर्शन यदि कविता में सीधे-सीधे उतर आते हैं तो कविता का सौंदर्य नष्ट ही होगा। वह बोझिल और उबाऊ हो जायेगी। लेकिन वे ही अनुभव का हिस्सा बनकर जब संवेदनात्मक औए इंद्रियबोधात्मक रुप में प्रस्तुत होते हैं तब प्रभावी, विश्वसनीय और आत्मीय हो उठते हैं। इस तथ्य की उपेक्षा के कारण ही समकालीन कविता का अधिकांश हिस्सा पटरी से उतरा जान पड़ता है।" अतं अजय यादव की इस कविता को पढ़ते हुये इन बातों पर सहज ही गौर किया जा सकता है।

उसके बाद पवन चंदन की कविता 'उपयोगिता' पर आना चाहूँगा। इस गंभीर कविता से ही उनका 'साहित्यशिल्पी' में प्रवेश हुआ है। इस कविता पर राजीव रंजन की टिप्पणी ही यथेष्ट है, मेरे कुछ कहने के बजाय, आप भी देखें- "आपकी कविता संवेदनाओं के उस पहलू को खुरचती है जहाँ आदमी के लिये भूख का सवाल सर्वोपरि है और सब गौण..जो चित्र आपने उकेरा है वह आपकी कलम के जनवादी संदर्भों को प्रस्तुत करता है। आपके द्वारा प्रस्तुत चित्र सिहराता भी है..।" मैं राजीव रंजन जी के कथ्य से सहमत इसलिये हूँ क्योंकि इस कविता ने मेरी संवेदना को भी उसी तरह स्पंदित किया। - इसे पवन जी के गहरे जीवनानुभव के तार से बँधी एक अच्छी कविता कहा जायेगा।

पर श्रीकांत मिश्र 'कांत' की कविता ' धूप आने दो' पढ़कर लगता है कि कविता वाग्जाल में उलझ कर बनते-बनते चुक गयी है। कविता को उत्कृष्टता का सोपान देने के लिये यह ज़रूरी है कि वह संश्लिष्ट तो होनी चाहिये पर असहज और विचारों में उलझी हुयी नहीं। सिर्फ़ शब्द और संवेदनायें ही कविता नहीं रच सकती, उसके भावावेग और अंतर्वस्तु में संतुलन के लिये गहरा जीवनानुभव और पका हुआ इन्द्रियबोध भी उतना ही जरूरी कारक है कविता को प्रभावी और आत्मीय बनाने के लिये।

दिव्यांशु शर्मा की कविता' बदलाव' की शुरूआत तो हुयी बड़ी उन्नत पंक्तियों से, देखिये -पांच सवा पांच बजे, सवेरे, ठिठुरता, हाथ तापता, /घर घर डोला, /पंछी भी शाम को, /उसी ढब में, /घूमते-घामते घर आ ही गए", पर कविता जैसे ही आगे विकसित हुयी, वह प्रणय की विरह-वेदना में ऐसी तब्दील हुयी कि कवि की आपा और आत्मग्रस्तता का शिकार होकर गयी। कहाँ ले जायेगी हमें यह कविता ? हम क्या प्रेमालाप की इन्हीं निजी संवेदनाओं से व्यथित होते रहेंगे या उससे आगे निकल कर एक सुन्दर भाव-जगत की कल्पना भी कविता में कर पायेंगे? क्या यह गंभीर सवाल नहीं है जिस पर हमें क्षण भर ठहरकर सोचने की जरुरत है? यह कविता किसी की निजी डायरी/ब्‍लॉग के लिये उपयुक्त है।

विपुल शुक्ला की दस क्षणिकाओं से इस अंक की शुरूआत होती है। बेहतरीन क्षणिकायें हैं ये। भाषा और भाव दोनों स्तर पर अत्यंत समृद्ध कोटि की कविता है - दो-तीन को तो फिर आप देंखें, पहला - "बहुत पहले /उनकी किसी किताब में/मिला था मुझे /एक गुलाब/दबा सा,मुरझाया सा!/मैं पागल../फिर भी नहीं समझ पाया/उसकी फ़ितरत!" और दूसरा- "कल शायद /उसके अश्कों में तेज़ाब था/जहाँ भी गिरे/छाले पड़ गये!/माँ पूछ रही थी/बेटा../ये जले के निशान कैसे हैं?" बिम्ब का काफी सफल प्रयोग हुआ है जो कविता को सम्प्रेषणीय बनाता है और पाठक के अंतस में धँसकर एक गहरा प्रभाव छोड़ता है। इन प्रेम-क्षणिकाओं में निराशा और दु:ख नहीं वरन सम्वेदना की वह टीस है- "बारह महीनों की बरसात/झेलता है /पर खड़ा है../यादों का खंडहर!/नक़ली मुस्कुराहटो की काई ने/ढांप लिया है अब/जर्जर दीवारों को " - जो आत्मबद्ध होते हुये भी प्रेम में टूट गये हर उस हृदय की व्यथा-कथा है जिसकी दिप्ति से कविता चमक उठी है हीरे-मोती की तरह,जिससे पाठक इतना प्रभावित होता है कि वह मात्र कवि का दु:ख नहीं रह पाता। यह शब्द-संयोजन के साथ बिम्ब को सही रीति से रखने का जादू है। विपुल की अंतिम क्षणिका भी देंखे -पाठ चल रहा है, / सिर्फ़ शुद्ध घी का दीपक /पवनपुत्र को स्वीकार है../ कल सर्वे था,पता चला, /गाँव का हर तीसरा बच्चा /कुपोषण का शिकार है!" कवि की संवेदना सामाजिक सरोकार को भी उतनी जीवतंता और आग्रह के साथ से प्रस्तुत करती है। कवि की भाषिक बुनावट और कहने के ढंग, यानि काव्यशास्त्रीय भाषा में 'काव्य के रूप' को देखकर कहा जा सकता है कि विपुल शुक्ला में बेहतर कवि की सभी संभावनायें मौजूद हैं।

इस अंक में सुशील कुमार की भी दो कवितायें आयी हैं - पहाड़ी लड़कियाँ (19 अक्टुबर को) और कोसी- शोक में डूबी एक नदी का नाम है( 12 अक्टुबर को)। ये कवितायें कैसी है, मैं नही जानता। हाँ, पर हिंदी की एक प्रतिष्ठित पत्रिका में स्वीकृत होकर छपने को प्रतीक्षारत हैं। इसके आगे कुमार की कविताओं पर कुछ कहना मुनासिब न होगा ।

तब तक "साहित्यशिल्पी" के सुधीजनों को प्रणाम और अपना विश्राम। हां जाते-जाते एक बात और, नवम्बर अंक से सिर्फ़ चुनी हुई कविताओं पर ही कवितालोचना का यह स्तंभ केन्द्रित होगा। जिनकी रचनायें कमजोर हैं, उनको बार-बार सामने लाकर पस्त-हौसला बनाना इस स्तंभ का लक्ष्य नहीं। उनको घबराने की भी कतई जरूरत नहीं ! कवितालोचना उनका ही मार्गदर्शन करती है जिससे वे अपनी रचना-प्रक्रिया को और सुघड़ बना सकें। पाठक-कविगण, कृपया ध्यान रहे कि मेरी दृष्टि में अब तक मात्र कवितायें ही रही हैं कवि नही, जैसा कि स्तंभ के नाम से ही स्वस्पष्ट है- कवितालोचना। किसी कवि पर लिखने के लिये तो उसके पूरे रचना-संसार से गुजरना पड़ता है। इस स्तंभ के प्रथम आलेख से अब तक जितनी बातें कविता के संबंध में बतायी गयी हैं वह खुद कविता को दशा-दिशा देती हैं क्योंकि ये बातें अपने मन से नहीं गढ़ी जाती, बल्कि ये तो कविता के चिंतक- आलोचक-मनीषियों के दुसाध्य श्रम, मंथन और संधान का फल हैं। जिसके प्रकाश में रचनाओं को देखने और टटोलने का एक लघु प्रयास किया गया है। जैसा कि मैने पूर्व में भी कहा है, कविता और काव्यालोचना सदैव अनंतिम रहने वाली यात्रा है। यह कभी शिखर तक नहीं जाती, अनवरत चलती रहती है। साथ ही, कविता और उसके प्रतिमान भी युगीन प्रवृतियों के अनुरूप बदलते रहते हैं। जहाँ तक मत-भिन्नता का प्रश्न है, यह भी हमेशा ही विद्यमान रहता है।पर जब तक कविता है, कविता का अपना सौंदर्यशास्त्र भी बना रहेगा। दोंनो का इतिहास उतना ही पुराना है।
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22 टिप्पणियाँ

  1. आमजन के संघर्ष और द्वंद्व को अपनी कविता की अंतर्वस्तु बना पायीं तो उनकी कविता जन का कंठहार बनने में कोई विलंब भी न होगा।
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    माननीय सुशील कुमार जी,
    नमस्ते -
    आप बहुत गहरे अद्ययन की तरह "साहित्य शिल्पी" पर
    प्रतुत होती कविताओँ को
    परखते हैँ और फिर
    अपने सुझाव देते हैँ
    जैसे उपरोक्त कथन मेँ है -
    आपकी आभारी हूँ -
    और सुझाव बिलकुल सही है -
    जीवन के अलग अलग समय पर
    एवम पडाव पर
    जो कविताएँ ह्र्दय से उठीँ
    वही सामने हैँ -
    मेरे पूज्य पापा जी ,
    पँडित नरेद्र शर्मा की कविताओँ का आभास , आपको, मेरी कविताओँ मेँ दीखा हो तब मैँ,
    अपना जन्म सार्थक मानती हूँ ..
    मेरी कोशिश जारी रहेगी ..
    बहुत कुछ ऐसा है जो भारत से मेरी भौगोलिक दूरी तथा मेरे जीवन के अनुभव के कारण सीमित रहा है - आम जनता का दुख दर्द भी
    दूर से ही देखा जाना है ..
    ग्राम जीवन तो तब भी
    मेरे लिये निताँत अनजाना ,
    अनदेखा सा अनुभव है.
    शायद यही मेरे काव्य मेँ
    समा जाये तब आप का
    कहना सच हो जाये .
    पुन: धन्य्वाद ..
    सादर, स स्नेह्,
    लावण्या

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  2. सुशील कुमार जी बहुत श्रम और विवेचना से समालोचना लिख रहे हैं। उनकी समालोचना वर्तमान की धारा के अनुकूल और उनकी विचारधारा के अनुरूप है। धन्यवाद। इस बार मेरी कविता नहीं थी इस लिये अतृप्त रह गया।

    छंद को ले कर मेरा मतांतर है। मैं मुक्त छंद की कवितायें लिखता हूँ लेकिन भी मानता हूँ कि छंद को लौटना होगा। आज कविता अति बैद्धिकता की शिकार हैं और मुक्त छंद के नाम पर अवमुक्त हो गयी हैं। गद्य और पद्य में अंतर करना ही मुश्किल है। विचारक लिख रहे हैं विचारकों के लिये और विचारक समझ रहे हैं विचारकों को। और वह आदमी जो कविता में जीता था कविता बिछाता था कविता से दूर है। जिस आम आदमी की बात कविता करती है यदि उसी के कान में उसी पर लिखी आज की कविता फूंक दी जाये तो बेहोश हो जायेगा। हिन्दी कविता उस आम को रशियन की जान पडेगी। हाँ कविता केवल विचारको और उनकी अंतरबहस के लिये है तो ठीक है। छंद को इस लिये लौटना होगा कि संगीत जाने अंजाने हर आम-ओ-खास का जीवन है। गज़ल इस लिये जनप्रिय है कि वह दृदय से जुडती है और आज की कविता? कविता इस तथाकथित युग से छटपटा रही है वह "मुक्त" से मुक्ति चाहती है। कविता अपने आवरण वापस माँग रही है। कविता आम आदमी की होना चाहती है, कवियों को ही यह तय करना होगा कि वे विचारकों के लिये लिखेंगे या आम आदमी की कविता। उदाहरण साहित्य शिल्पी के ही एक कवि योगेश समदर्शी का देना चाहूँगा। मिट्टी की खुशबू, उस किसान की भाषा में लिखते हैं कि किसान कविता सुनेगा और घंटो गुनगुनायेगा अपने किसी लोकधुन में ढाल कर। कविता अनुसार तो यही है और एसी ही होनी चाहिये। ग़ज़ल जी रहे हैं चूंकि वहाँ छंद जिन्दा है और कविता मर रही है क्योंकि उसे लिखने के लिये वह बौद्धिकता चाहिये जो आम नहीं है, आम की नहीं है। मैं पुरजोर मानता हूँ कि छंद लौटेंगे..आज नहीं तो कल।

    सुशील जी आपके आलेख का आभार। आपके विचार स्तुत्य हैं। ये मेरे निजी विचार है।

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  3. सुशील जी, मैने अब तह बहुत कम कविताये लिखी है, कोशिश जारी है। आपके विचार मुझे अवश्य मार्गदर्शित करेंगे।

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  4. मुझे कविता की समझ नहीं है....शायद इसीलिए भी कुछ कविताएँ मेरे सिर के ऊपर से निकल जाती हैँ लेकिन जो लिख रहे हैँ...वो दिल से लिख रहे हैँ...यकीनन अच्छी ही होंगी।मैँ सुशील जी को उनकी बहुमूल्य आलोचनाओं और सुझावों के लिए धन्यवाद देना चाहूंगा।बहुतों को इससे सीखने के लिए कुछ ना कुछ ज़रूर मिलेगा।
    मैँ नंदन जी की बाद से सहमत हूँ कि कविता को छंद में होना चाहिए कि उसे गुनगुनाया जा सके।

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  5. कविता के लिए आप अच्‍छा काम कर रहे हैं। क्‍या कोई आस पास है जो साहित्‍यशिल्‍पी की समूची रचनाओं पर भी एक नज़र डाले। साहित्‍यशिल्‍पी में कविताओं के अलावा भी बहुत कुछ छपता

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  6. आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं सुशील जी। बहुत बधाई इस सार्थक प्रयास के लिये।

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  7. बाल कविताओं को समकालीनता के तराजू में तौलना ठीक नहीं है। बाल कवितायें एक अलग विधा की तरह देखी जानी चाहिये।

    बहुत प्रभावी है काव्यालोचना। सूरजप्रकाश जी की बात भी मानिये। गद्य व कहानी विधा पर भी बातें होनी चाहिये। कविता पर अनेको दृष्टिकोण को एकत्रित किया जाये। कविता में समकालीनता और वाद बहस के मुद्दे हैं। छंद पर भी उदाहरण सहित बहस होनी चाहिये। मेरा अनुरोध है साहित्य शिल्पी संचालकों से कि इन विषयों पर आलेख प्रस्तुत करें।

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  8. सुशील जी आपसे सही कहा कि "छंद पर बहसें बराबर चल रही हैं। दरअसल यह बहस कम होता है और लोगों को अपने पक्ष में करने का उद्योग अधिक। कुछ छंदों की ओर लौटने की बात करते हैं तो कुछ आगे बढ़ने की। पर इस तरह की बहसों में विवाद ही अधिक होता है, संवाद कम क्योंकि सहमतियाँ बन नहीं पाती।" फिर भी एक सहमति बनाने की कोशिश करनी चाहिये। विचारधारा के दायरे में इस पर कभी सार्थक चर्चा नही हो सकेगी। दो विचारको के विचार तो आ गये किंतु अन्य अनेको विचारक व रचनाकार् जो अलग अलग पृष्ठभूमि में अलग अलग विचारो से जुडे हैं उनके विचार से भी अवगत होना आवश्यक है। आपने एक पक्षीय दृष्टिकोण रखा है।

    कविताओं पर आपके द्वारा प्रस्तुत काव्यालोचना बेहतरीन स्तंभ है। आप इस विधा के विद्वान हैं व बारीक विश्लेषण करते हैं।

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  9. मैं आदरणीय सूरज प्रकाश जी की बात से इत्तेफाक़ रखता हूँ। गद्य विधा पर भी ऐसा ही स्तंभ होना चाहिये। और गजल के लिये भी अलग से। बहुमूल्य सूझाव के लिये सूरज प्रकाश जी को धन्यवाद।

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  10. पिछले अंक पर आपने काव्यालोचना में मेरा बहुत उत्साह बढाया था। आपके द्वारा की जा रही यह समीक्षा आँख खोलने का कार्य करती है।

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  11. Poem has no boundaries. Good Analysis on poems.

    Alok Kataria

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  12. सर्वप्रथम सुशील भाई को धन्यवाद देना चाहूँगा इतनी सूक्ष्मता से समालोचना करने के लिए | ये वाकई काफ़ी मेहनत का काम है जिस के लिए गहन अध्ययन की आवश्यकता होती है |
    अक्टूबर माह की कविताओ की समालोचना पढ़ कर कुछ प्रश्न मन में उठे हैं ..
    क्या निजी और सार्वजनिक लेखन अलग अलग हैं ? यदि एक सार्वजनिक की गयी "निजी" या "व्यक्तिवादी" रचना में कई पाठको ने अपना कोई अंश महसूस किया है तो उस रचना को क्या कहा जाएगा ? यदि इस तरह वो जन जन से जुड़ रही है तो जनवादी नहीं हो जाती? क्या ये आत्मानुभव को बाह्य जगत का हिस्सा बनाने जैसा नही ?|यदि कुछ रचनायें सिर्फ़ डायरी में रखे जाने के लिए होती हैं तो उन का अस्तित्व में आने का कारण क्या हो ? उन का मन से काग़ज़ तक का सफर व्यर्थ है?
    निराला की सरोज स्मृति को आप किस श्रेणी में रखेंगे ?
    " कवि-कर्म एक सामाजिक कर्म है और कविता समाज की बेहतरी के लिये उत्पाद"... कोई कविता समाज की बेहतरी कर रही है या नही , इस का मानदंड क्या है ? और इन्हें कौन तय करे?
    सुशील भाई जी से प्रार्थना एवं आशा दोनों हैं है कि "छोटे भाई " की इन जिज्ञासाओं को शांत करेंगे .. :-)

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  13. नुक्कड नाम के ब्ळोग पर भी मैने छंद और छंद मुक्तता पर बहस पढी। प्रतिक्रियाओ से यह पता चलता है कि कविता बदलाव की आकांक्षी है। युग तेजी से बदल रहा है कुंठा से कविता कैसे निकलेगी और जन जन तक पहुँच कर सही मायने में जनवादी होगी यह सोचने का समय आ गया है।

    अनुज कुमार सिन्हा
    भागलपुर, बिहार

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  14. बहुत अच्छा लेख है। परिचर्चा भी बहुत अच्छी चल पडी है। बधाई।

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  15. आदरणीय पाठक-कवि-लेखक गण, इस स्तंभ में उठाये जा रहे सभी प्रश्नों और जिज्ञासा के उत्तर अगले स्तम्भ में उनके प्रश्न सहित क्रमवार दिये जायेंगे। ऐसा इसलिये किया जा रहा है कि मेरे द्वारा दिये गये स्पष्टीकरण मात्र टिप्पणी का अंश न होकर रचना यानि समालोचना का अंश भी बन सके। अगर किन्ही बंधुवर को शीघ्रता से उत्तर जानने की जिज्ञासा हो आये तो मुझे व्यक्तिगत ईमेल भी कर सकते हैं। मेरा ईमेल पता है- sk.dumka@gmail.com और मोबाईल न.- 09431310216

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  16. सुशील जी जब आपने आगामी अंक की विषय वस्तु तय कर ही दी है तो मेरे कुछ प्रश्न सम्मिलित कीजिये -

    अ) कविता को किसी वाद की क्यों आवश्यकता है?

    ब) कविता को कौन सी संस्था मानकीकृत करती है? किन पत्रिकाओं से छपने वाले कवि कहलाते हैं?

    स) एसे कौन कौन से कवि हैं जिनकी कवितायें आम आदमी तक पहुँचती हैं। (आम आदमी पर लिखी गयी जटिल कवितायें नहीं)।

    द) मुख्यधारा क्या है और इसे कौन निर्धारित करता है? मुख्यधारा में कौन कौन से कवि आते हैं और क्यों?

    साथ ही साहित्य शिल्पी से अनुरोध है कि सिक्के के दूसरे पहलू को भी खोलें। एसे विद्वानों के विचार व तर्क भी आमंत्रित करें जिससे केवल एक ही दिशा से बातें न हों। सार्थक परिचर्चा की अपेक्षा है।

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  17. सुशील जी!
    आपकी काव्यालोचना से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। मेरे लिए हर्ष की बात ये है कि पिछली बार की तरह इस बार भी आपने मेरी कविता की पंक्तियों को उद्धृत किया है।आप मेरी कविता पढकर चौंक गए ,इसको मैं अपनी खुशकिस्मती समझता हूँ,चलिए मैंने कुछ अलग ढर्रे का तो लिखा। रही बात "लब" की तो मेरे अनुसार प्रेम पर भी कविताएँ लिखी जानी चाहिए।

    आपने इस काव्यालोचना में व्यक्तिक और सामाजिक कविताओं की बात की है। मेरा मानना है कि कवि की सामाजिक जिम्मेदारी तो है हीं, लेकिन कवि भी तो इंसान है। वो भी खुद के बारे में सोच सकता है। फिर अगर वो "मैं" और "तुम" शब्दों के साथ कुछ लिखे तो क्या वो किसी को भी ना दिखाए? गुलज़ार साहब की कई रचनाएँ "मैं" और "तुम" के इर्द-गिर्द हीं बुनी होती हैं, तो क्या उन्हें प्रकाशित नहीं होना चाहिए था, बस डायरी तक हीं रखा जाना चाहिए था। इस प्रश्न के साथ मैं अनिल कुमार जी द्वारा पूछे सभी प्रश्नों को भी जोड़ना चाहूँगा।

    -विश्व दीपक

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  18. SUSHEEL KUMAR JEE,
    AAPNE MEREE KAVITA KO
    BAAL-KAVITA GHOSHIT KIYAA HAI.
    KUCHH KAVITAYEN AESEE HOTEE HAIN
    JO CHHOTON-BADON SAB KE LIYE HOTEE
    HAIN.AGAR MEREE KAVITA BAAL-SHRENEE
    MEIN HAI TO SUBHADRA KUMARI CHAUHAN
    KEE LOKPRIY KAVITA"JHANSI KEE RANI"
    KO AAP KIS SHRENEE MEIN LENGE?
    ANGREJEE KEE PRASIDH KAVITA"TWINKLE
    TWINKLE LITTLE STAR"KO AAP KYA
    KAHENGE?
    AAPKEE JAANKAAREE KE LIYE BATAA
    DOON KI MEREE YE KAVITA "BHASHA"
    PATRIKA AUR DR.KAMAL KISHORE GOENKA
    DWAARAA SAMPAADIT VISHEHANK"SHABD
    YOG"MEIN CHHAP CHUKEE HAI.ISE KEWAL
    BAAL-KAVITA KAH KAR AAPNE MUJHE
    CHONKAA DIYAA HAI.

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  19. सुशील कुमार जी आपका समालोचनात्मक लेख पढ़ा जिसे आपने बड़ी मेहनत और अपना अमूल्य समय देकर प्रस्तुत किया है जिससे कुछ पुरानी और कुछ भूली सी कविताओं को ताज़ा करने का भी अवसर मिला और उस पर समालोचना के रूप में आपके निजी विचार भी मिले जिसके लिए धन्यवाद।
    लेख पढ़ते हुए प्राण शर्मा जी की कविता की आलोचना पर दो बार सोचना पड़ गया क्योंकि इसे बाल-कविता की श्रेणी में डाल दी गई है।
    यह कविता पहले भी 'भाषा' और अन्यत्र भी छप चुकी है। किसी भी आलोचक, संपादक या पाठकों ने इसे बाल-कविता की संज्ञा नहीं दी और काफ़ी सराहना क थी।
    सुशील जी, इसमें संदेह नहीं कि इस स्तंभ के लिए बहुत समय देना पड़ता है, अन्यत्र भी लेखन में यही बात है। इस कारण कभी कभी हर रचना पर गहन अध्ययन करना संभव नहीं रहता। हो सकता है इसी कारण प्राण जी की इस कविता के साथ पूरी तरह न्याय नहीं हो पाया और इस पर बाल-कविता का ठप्पा लग गया।
    मैं चालीस वर्ष तीन महाद्वीपों में ५ वर्ष से लेकर १८ वर्षीय छात्र-छात्राओं को पढ़ा चुका हूं। इस अनुभव के आधार पर यह कहना चाहूंगा कि बाल-कविता ऐसी नहीं होती। दूसरे, कविता का केवल शाब्दिक-अर्थ की तराजू में तोलना ठीक नहंहै। उसकी भावनाओं और आशय को समझने के पश्चात ही उसे परखना चाहिए।
    थोड़ा सा ग़ौर से देखा जाए तो प्राण जी ने इसी कविता में स्पष्ट किया है कि यह कविता केवल बच्चों के ही लिए नहीं है अर्थात सभी के लिए हैः
    "बच्चों को भी बहलाता है।" "भी" शब्द से भी यह सिद्ध होता है।
    इस कविता का गहन अध्ययन करने से पता लग जाता है कि यह कविता आतंकवादियों के खिलाफ़ की तरफ इशारा करती है। इसमें नफरत, दहशत, अशिष्टता, छिप छिप कर घातें, कोई धर्म (ईमान) नहीं, गुस्से में रहना, सभी का नुक्सान करना आदि शब्दों से यही स्पष्ट होता है कि यह असामाजिक दुर्गुण आतंकियों में ही देखे जाते हैं। याद रहे कि आतंक के कई रूप होते हैं।
    एक पक्षीय समीक्षा आप जैसे विद्वान के लिए शोभा नहीं देती।
    यदि मेरे बातों से या इसके किसी भी अंश से आपको लेश-मात्र भी दुख हो तो क्षमा चाहता हूं।

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  20. susheel ji , what i really apprecite ,is that your efforts...

    aapne kitni mehnat ke saath is samalochana ko likha hai .. aapka mera dil se abhaar..

    har kavita ka vishleshan , wakai hamne ek disha deta hai sochne ke liye aur ye bhi samjhane ke liye ki , ek nai spirit ke saath , hamen apne lekhan ki quality ko improve karna hai ..
    its a real learning class for me

    badhai sweekar karen..
    vijay

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  21. समालोचना कोई फतवा या ब्रह्मवाक्य जैसा नहीं होती।उसमें भी परम्परा और काव्यशास्त्रीयता से पोषित, मगर किसी के विचार ही होते हैं।अभी तक तो समीक्षा पर उंगलि उठाने की परम्परा भी नहीं रही है पर यहाँ देख रहा हूँ कि कुछ कवियों को अपनी समालोचना बर्दाश्त नहीं हो रही और वे असहिष्णु हुये जा रहे हैं! कविता पर टीका-टिप्पणी करते हैं तो वहाँ तक तो छूट दी जा सकती है क्योंकि किसी की असमतियों से भी सहमत होना लोकतंत्रीय पद्धति का एक गुण है।

    पर अगर रचना की आलोचना की जा रही है तो उसका जबाब टिप्पणी करके या लिख-बोलकर नहीं दिया जाता। जैसे एक क्रिकेटर अपनी आलोचना सहकर उसका जबाब अपने बल्ले से देता है, न कि बोलकर। कहीं किसी रचना का छ्पना उस रचना की उत्कृष्टता का प्रमाणपत्र नहीं होता,न ही उसकी समीक्षा ही उसका भाग्यफल होता है। फिर इतनी हाय-तौबा क्यों?

    क्या सबकी वाहवाही कर दूँ तो वह बड़ी अच्छी समीक्षा हो जायेगी? कवि की उम्र और उसकी शोहरत से काव्यालोचना का कोई सरोकार नहीं,( वे सम्माननीय हैं पर) उसकी रचना से मतलब है, उसको देखना होता है समीक्षा में न कि उनके व्यामोह और माया में घिरकर कुछ लिखना होता है।

    इतने के बावजूद जो प्रश्न कायदे के हैं और काव्यालोचना के दायरे में है, उसका उत्तर जरूर दूंगा।पर कवि-गण ध्यान रखें कि संतुष्टिकरण की नीति पर समालोचना नहीं चलती।-सुशील कुमार।

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  22. सुशील जी!!
    वन्देमातरम.
    आपने सभी रचनाओं का पठन कर पूरी निरपेक्षता से उनका आकलन किया है. साधुवाद. मतभेद होना स्वतंत्र मनन-चिंतन का लक्षण है, ध्यान यह रहे कि मतभेद कभी मनभेद न बन सकें. कवि अपनी भाव भूमि पर रचना करते समय अपनी स्रष्टि का ब्रम्हा होता है किन्तु पाठक और समीक्षक की दृष्टि कवि से भिन्न भी हो सकती है. समीक्षा फतवा न होने पर भी छात्रों विशेषकर शोधार्थियों के लिए विशेष महत्त्व रखती है इसलिए व्यक्तिगत आग्रहों को समीक्षा के नाम पर परोसना निष्पक्षता पर प्रश्न चिन्ह लगता है.
    समीक्षा तो हर विधा की होती है. समीक्षक प्रवक्ता की तरह उसके विविध गुण-दोषों की चर्चा करता है, भले ही उसकी व्यक्तिगत पसंद भिन्न हो. छंद रचना को पीछे लौटना मानने की धारणा को व्यक्तिगत स्तर पर जियें कोई आपत्ति नहीं, पर समीक्ष में इसे आप्त वाक्य की तरह समाविष्ट करना मुझे छंद हीनता की पक्षधरता प्रतीत हुआ. मैंने निर्माण कार्यों पर रात-दिन कार्यरत अगणित रेजा-मजदूरों को कठोर श्रम करते समय या सुबह-शाम गाते=गुनगुनाते अनेकों बार सुना है, पर उनमें से सभी लय के साथ छंद ही गाते मिले. वे छंद के शास्त्र को न जानने पर भी मूल रचना को अपनी पसंद और लोकभाषा की शब्दावली के अनुरूप ढल लेते हैं पर होती वह भी छंद में ही है. मुझे ३५ साल के काल में कोई ग्रामीण मजदूर छंदमुक्त रचना गाते नहीं मिला. अतः छंद में लिखने को पीछे लौटने की धारणा कितनी सच है, सोचें. बेहतर होता छांदस रचनाओं का विवेचन उनके लिए नियत मानकों के आधार पर होता या गजल की तरह उन पर बात न की जाती. जिस तरह वकील या न्यायाधीश हर मुक़दमे को बिना व्यक्तिगत पसंद के लड़ते-सुनते हैं, उसी तरह समीक्षक को हर विधा की रचना को निजी पसंद को किनारे रखकर पढना तथा पूर्व निर्धारित मानकों पर परखना चाहिए. एक विधा के मानक अन्य विधा की रचना के साथ न्याय नहीं कर सकते. अस्तु...आपके श्रम तथा लगन की सराहना करता हूँ

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