
बाजरे के खेत की
बंजर यादों पर
पसरी धूल
और धूल-धुसरित
जिंदगी का दस्तरखान।
सच कहता हूँ-
एक वह दिन
मेरे कंठ में
तेरी जिह्वा का सगा
चिरपरिचित
जूठा
सरसो के साग का निवाला
जो बन बैठा-
मेंहदी का काँटा
या फिर मेंहदी का काटा
(मैने मेंहदी नहीं देखी
इसलिए क्या पता-
मेंहदी ने काँटे पाले हैं
या तेरी नियत ने बोया था उन्हें
मेंहदी के पत्तों पर)
तेरी हथेलियों की मेंहदी का!!
और एक आज का दिन
नहीं निगले जाते मुझसे
अपने हिस्से की पहचान के
हिज्जे भी।
अब तो काहे का सरसो,
काहे का बाजरा,
काहे का तेरे दीदार का दस्तरखान,
बस तेरी हथेलियों की मेंहदी-
मेरे गले का काँटा
और आँखों के कोटरों का मवाद।
आह! बहुत हुआ!!
मेरे मन!
शुभ नहीं
बेगैरत दाँतों में फँसे
पुराने चाँद के चिथड़ो को ढोना।
आज हीं उतार दे
आँखों का सारा गुरूर,
सारा आक्रोश
अपने द्वि-कपोलों के मध्य,
एक साँस अंदर-
एक साँस बाहर,
कर ले आचमन
और खींच ला अंतड़ियों मे चुभ रहे
आँखों के घाव को,
गले के काँटे को।
आज हीं.............
16 टिप्पणियाँ
सुंदर बिम्ब और बढ़िया भावाभिव्यक्ति ......... शुभकामना अविनाश जी
जवाब देंहटाएंबहुत कठिन सी, परन्तु भावुक कविता। बार बार पढ़नी पड़ी।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
सच कहता हूँ-
जवाब देंहटाएंएक वह दिन
मेरे कंठ में
तेरी जिह्वा का सगा
चिरपरिचित
जूठा
सरसो के साग का निवाला
जो बन बैठा-
मेंहदी का काँटा
या फिर मेंहदी का काटा
(मैने मेंहदी नहीं देखी
इसलिए क्या पता-
मेंहदी ने काँटे पाले हैं
bahut sundar bhav bhari kavita.
सच कहता हूँ-
जवाब देंहटाएंएक वह दिन
मेरे कंठ में
तेरी जिह्वा का सगा
चिरपरिचित
जूठा
सरसो के साग का निवाला
जो बन बैठा-
मेंहदी का काँटा
या फिर मेंहदी का काटा
(मैने मेंहदी नहीं देखी
इसलिए क्या पता-
मेंहदी ने काँटे पाले हैं
bahut sundar bhav bhari kavita.
bahut gehre bhav sundar
जवाब देंहटाएंNice poem.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
कई बार पढा तब समझ सकी फिर कई बार पढा और वाह वाह कर उठी।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी कविता है तनहा जी, बधाई।
जवाब देंहटाएंविश्वदीपक तनहा असाधारण कवि हैं। तनहा जी के बिम्ब गुलज़ार की याद दिलाते हैं और कथ्य की मौलिकता का सानी नहीं। कविता में शब्द प्रयोग, कथ्य का उतार चढाव और स्तर यह बताता है कि कलम की दक्षता क्या होती है। आपके बिम्ब पहली नजर में कविता को जटिल करते हैं लेकिन जैसे जैसे सुलझते हैं डुबोते जाते हैं।
जवाब देंहटाएं***राजीव रंजन प्रसाद
कई बार पढने पर कुछ-कुछ समझ आई आपकी कविता लेकिन फिर भी इसे बार-बार पढना अच्छा लग रहा है। उम्मीद है कि जल्द ही समझ जाऊँगा।
जवाब देंहटाएंदरअसल क्या है कि स्कूल में तो कभी ध्यान ही नहीं दिया कि टीचर क्या पढा रहे हैँ और क्या नहीं?
भावुक कविता। जो समझ न आए वह छायावादी है :)
जवाब देंहटाएंKalam ki bunawat is bar thodi jatil hai............poori tarah suljha nahin paya hoon abhi tak...........lekin aapki anya rachnaaon ki tarah kavita ka uljha hua roop hi iski khoobsoorti ban pada hai.
जवाब देंहटाएंUljhe hue shabdon se suljhe hue bhav nichodne par badhai.
सुन्दर भाव अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंऱचना धीमे धीमे मानस मे उतरती है और फिर जड़ें जमा लेती है।
जवाब देंहटाएंअनूठे बिम्ब , विश्व दीपक जी की अपनी विशिष्ट शैली मे।
प्रवीण पंडित
कविता को पढने और पसंद करने के लिए सभी गुणिजनों का शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंलगता है "कान्त" जी जल्दबाजी में टिप्पणी कर गए, तभी तो उन्होंने "शुभकामना अविनाश जी" लिख दिया है। वैसे कोई बात नहीं, उन्होंने कविता पढी तो।
-विश्व दीपक
achi kavita ke liye badhai ..
जवाब देंहटाएंaapka
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
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