
महेश जी, आज तक पत्रकार आपसे आपकी फ़िल्मों, इंडस्ट्री में चल रही गॉसिप या फिर किसी विवाद के बारे में पूछते रहे हैं। मेरा सवाल सबसे हटकर है।
महेश भट्ट- बेहतर है कि गॉसिप से हटकर सवाल पूछ रही हैं। गॉसिप वालों के लिये मुझ जैसे आदमी के पास कुछ होता नहीं है। न कोई रोमांस है, न ऐडवेंचर! एक स्ट्रगल है जो लगातार चलता जाता है।
हिन्दी फ़िल्म जगत ने बांग्ला, तमिल, पंजाबी, अंग्रेजी साहित्य रचनाओं पर तो अच्छी और बड़ी फिल्में दी है, पर ऐसा क्यों है कि किसी भी बड़े फिल्मकार ने हिन्दी साहित्य की किसी भी कृति पर ऐसी कोई फिल्म नहीं बनाई, जैसे कि अंग्रेजी में Gone with the Wind‚ War and Peace‚ Plays of Shakespeare‚ Withering Heights‚ Novels of Dickens‚ Jane Austen and others बनाई हैं।

आपके साथ जगदम्बाप्रसाद दीक्षित जैसे साहित्यकार मौजूद हैं, आपने भी उनकी या उनके द्वारा सुझाई गई किसी साहित्यिक कृति का इस्तेमाल फ़िल्म बनाने के लिए नहीं किया। ऐसा क्यों?
महेश भट्ट- इस बात को फिर दोहराना चाहूँगा कि सिनेमा एक बहुत ही कमर्शियल माध्यम है। अच्छी साहित्यिक कृतियाँ सफल कमर्शियल फ़िल्में बन सकेंगी, इसमें शक की बहुत बड़ी गुंजाइश है। हम जोखिम तो लेते हैं, लेकिन संभावनाओं के आधार पर। फिल्म लोक माध्यम है, साहित्य लोक माध्यम नहीं है। अपने मूल रूप में साहित्य काफ़ी कुछ एसोटिस्ट है। इसलिये यह ज़रूरी हो गया है कि हम दोनों को अलग-अलग मान कर देखें। सिनेमा का लोक पक्ष जैसे जैसे हावी होता जा रहा है, लिखित साहित्य से उसकी दूरी बढ़ती जा रही है। साहित्यिक कृतियों पर इधर एक दो फ़िल्मों का रिमेक हुआ है। लेकिन सवाल पूछा जा सकता है कि इनका ओरिजिनल रूप कितना कुछ कायम रखा गया है। दीक्षित एक साहित्यिक लेखक हैं। फ़िल्मों में भी हम उनका हर संभव उपयोग कर रहे हैं। उनकी लिखी स्क्रिप्ट्स पर सबसे ज्यादा फ़िल्में मैंने ही बनायी हैं। यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा।
मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में अथाह पैसा है, फिर भी इंडस्ट्री ने पटकथा लेखन, डायलाग लेखन इत्यादि को विश्वविद्यालयों में विषय के तौर पर लगवाने की मुहिम क्यों नहीं शुरू की?
महेश भट्ट - हम लोग फ़िल्में बनाते हैं। ज़रूरी होने पर भी बहुत सी मुहिमें शुरू करना हमारा काम नहीं है। अथाह पैसा होने से ही सब कुछ नहीं हो जाता। यह शिक्षा शास्त्रियों का काम है कि फ़िल्म लेखन को वे आम शिक्षा का विषय बना दें। कई जगह ऐसा किया भी गया है। `मास कम्यूनिकेशन' की शिक्षा का काफ़ी विस्तार हो रहा है। जगह-जगह कॉलेजों में इसके विभाग खुल रहे हैं जहाँ फ़िल्म कला की शिक्षा दी जा रही है।
इसी से जुड़ा एक और सवाल है कि ज्यादातर फ़िल्म कंपनियों के स्टोरी डिपार्टमेंट बेहद कमजोर हैं। वे अभी भी गुलशन नंदाई अन्दाज से बाहर नहीं आ पाये है। ऐसा क्यों?
महेश भट्ट - फ़िल्म कंपनियों के स्टोरी डिपार्टमेंट कमज़ोर हैं या नहीं, इसका फ़ैसला फ़िल्म उद्योग से बाहर रहने वाले लोग नहीं कर सकते। इसका फ़ैसला तो वह जनता करती है जो फ़िल्में देखती है। फ़िल्म चलती है तो इसका मतलब है कि स्टोरी वालों ने अच्छा काम किया है। बुरा काम करते हैं तो फ़िल्म पिट जाती है। गुलशन नंदा को बुरा क्यों कहती हैं? उन्होंने बहुत सी हिट फ़िल्में दी हैं। किसी ऊँचे टावर में बैठकर आम लोग इस बात का फ़ैसला नहीं कर सकते कि यह अच्छा है, यह घटिया या कमज़ोर है।
राधाकृष्ण प्रकाशन ने एक नई विधा शुरू की है, जिसे मंज़रनामा कहा जाता है, जैसे कि गुलजार साहब की आँधी के स्क्रीनप्ले का प्रकाशन। क्या आप भी सोचते हैं कि सारांश, अर्थ, डैडी जैसी फ़िल्मों का मंज़रनामा होना चाहिये?
महेश भट्ट - `सारांश', `अर्थ', `डैडी' जैसी फ़िल्मों की पटकथाएँ प्रकाशित हों तो अच्छा है। लेकिन जो पटकथाएँ प्रकाशित की जा रही हैं, वे सेंसर बोर्ड को दी जानेवाली स्क्रिप्ट हैं। फ़िल्म के तैयार हो जाने के बाद उसके एक-एक शॉट को देखकर सेंसर बोर्ड के लिये स्क्रिप्ट तैयार की जाती है। यह स्क्रिप्ट वह नहीं होती है जिसको लेकर फ़िल्म शूट की जाती है। शूटिंग स्क्रिप्ट का अपना एक अलग महत्व होता है।
मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में अधिकतर काम अंग्रेजी ज़बान में होता है। क्या निर्माता निर्देशक का हिन्दी से परिचय न होना ही तो हिन्दी साहित्य के प्रति अन्याय नहीं करवा रहा?
महेश भट्ट - अंग्रेजी का प्रभाव काफ़ी है, इसमें शक नहीं। बहुत से फ़िल्मकार अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हुए होते हैं। लेकिन यह दोष फ़िल्म उद्योग का नहीं है। हमारी पूरा शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी माध्यम को बहुत ज्यादा महत्व दिया गया है। सरकारी कामकाज, व्यापार, व्यवसाय, हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है। यह समस्या सिर्फ फ़िल्मों की नहीं है। इसका दायरा काफ़ी बड़ा है। इसके बारे में बड़े पैमाने पर विचार होना चाहिए। हिन्दी साहित्य के साथ न्याय अन्याय के सवाल को भी इसी दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। वैसा यह कहना ज़रूरी है कि हिन्दी साहित्य के साथ क्या हो रहा है, न्याय या अन्याय, यह सोचना फ़िल्मवालों का काम नहीं है।
क्या आपको लगता है कि हिन्दी साहित्य में वह बात नहीं जो सिनेमा के पर्दे पर आ कर तहलका मचा सके या फिर मुंबई सिनेमा में कोई दिक्कत है। प्रेमचन्द की कृतियों गोदान, गबन, शतरंज के खिलाड़ी आदि पर भी बहुत कमजोर फ़िल्में बनीं।
महेश भट्ट - फ़िल्मकारों के लिये हिन्दी साहित्य या कोई और साहित्य महत्वपूर्ण नहीं है। मैं पहले कह चुका हूँ कि सिनेमा एक लोक कला है और साहित्य पढ़े लिखे लोगों की चीज़ है, एसोटिस्ट है। इसलिये हिन्दी साहित्य या किसी और साहित्य में सिनेमा वाली बात का होना ज़रूरी नहीं है। हिन्दी साहित्य में वो बात नहीं है तो यह स्वाभाविक है। जहाँ तक प्रेमचंद की कृतियों पर बनीं फ़िल्मों का सवाल है, मैं आपकी तरह यह जजमेंट नहीं दे सकता कि वे सब की सब कमज़ोर फ़िल्में हैं।
क्या आप हिन्दी साहित्य पढ़ते हैं? अगर हाँ, तो आपको किन लेखकों की कृतियाँ प्रभावित करती है?
महेश भट्ट - नहीं। हिन्दी साहित्य की कृतियों को पढ़ने की ओर मैंने कभी ध्यान नहीं दिया।
क्या आप भविष्य में किसी महत्वपूर्ण हिन्दी कृति पर फ़िल्म बनाना चाहेंगे?
महेश भट्ट - बनाना चाहूँगा, बशर्ते कि वह कृति लोकप्रिय सिनेमा की ज़रूरतों को पूरा करती हो। फ़िलहाल इसकी संभावना नहीं है।
आप एक समर्थ कल्पनाशील, वरिष्ठ और संवेदनशील फ़िल्मकार माने जाते हैं। आपने कैरियर की शुरूआत में सारांश, डैडी और अर्थ जैसी बेहतरीन फ़िल्में दीं। लेकिन क्या वजह हुई कि बाद में ये सिलसिला जारी रहने के बजाय चालू और फार्मूला फ़िल्मों की ओर मुड़ गया?
महेश भट्ट - बदलते हुए वक़्त के साथ बदलना ज़रूरी है। मैंने यह तो कहा है कि ज़बरदस्त कॉम्पीटीशन है, ज़बरदस्त कमर्शियलाइज़ेशन है, लागत में ज़बरदस्त वृद्धि है। मैं चालू और फ़ार्मूला फ़िल्में दे रहा हूँ या नहीं, यह कहना मुश्किल है। लेकिन मैं बाज़ार में ज़िंदा रहने की कोशिश ज़रूर कर रहा हूँ। एक लड़ाई है जिसका लड़ा जाना ज़रूरी है। मैं वह लड़ाई लड़ रहा हूँ।
महेश भट्ट - फ़िल्म कंपनियों के स्टोरी डिपार्टमेंट कमज़ोर हैं या नहीं, इसका फ़ैसला फ़िल्म उद्योग से बाहर रहने वाले लोग नहीं कर सकते। इसका फ़ैसला तो वह जनता करती है जो फ़िल्में देखती है। फ़िल्म चलती है तो इसका मतलब है कि स्टोरी वालों ने अच्छा काम किया है। बुरा काम करते हैं तो फ़िल्म पिट जाती है। गुलशन नंदा को बुरा क्यों कहती हैं? उन्होंने बहुत सी हिट फ़िल्में दी हैं। किसी ऊँचे टावर में बैठकर आम लोग इस बात का फ़ैसला नहीं कर सकते कि यह अच्छा है, यह घटिया या कमज़ोर है।
राधाकृष्ण प्रकाशन ने एक नई विधा शुरू की है, जिसे मंज़रनामा कहा जाता है, जैसे कि गुलजार साहब की आँधी के स्क्रीनप्ले का प्रकाशन। क्या आप भी सोचते हैं कि सारांश, अर्थ, डैडी जैसी फ़िल्मों का मंज़रनामा होना चाहिये?
महेश भट्ट - `सारांश', `अर्थ', `डैडी' जैसी फ़िल्मों की पटकथाएँ प्रकाशित हों तो अच्छा है। लेकिन जो पटकथाएँ प्रकाशित की जा रही हैं, वे सेंसर बोर्ड को दी जानेवाली स्क्रिप्ट हैं। फ़िल्म के तैयार हो जाने के बाद उसके एक-एक शॉट को देखकर सेंसर बोर्ड के लिये स्क्रिप्ट तैयार की जाती है। यह स्क्रिप्ट वह नहीं होती है जिसको लेकर फ़िल्म शूट की जाती है। शूटिंग स्क्रिप्ट का अपना एक अलग महत्व होता है।
मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में अधिकतर काम अंग्रेजी ज़बान में होता है। क्या निर्माता निर्देशक का हिन्दी से परिचय न होना ही तो हिन्दी साहित्य के प्रति अन्याय नहीं करवा रहा?
महेश भट्ट - अंग्रेजी का प्रभाव काफ़ी है, इसमें शक नहीं। बहुत से फ़िल्मकार अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हुए होते हैं। लेकिन यह दोष फ़िल्म उद्योग का नहीं है। हमारी पूरा शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी माध्यम को बहुत ज्यादा महत्व दिया गया है। सरकारी कामकाज, व्यापार, व्यवसाय, हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है। यह समस्या सिर्फ फ़िल्मों की नहीं है। इसका दायरा काफ़ी बड़ा है। इसके बारे में बड़े पैमाने पर विचार होना चाहिए। हिन्दी साहित्य के साथ न्याय अन्याय के सवाल को भी इसी दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। वैसा यह कहना ज़रूरी है कि हिन्दी साहित्य के साथ क्या हो रहा है, न्याय या अन्याय, यह सोचना फ़िल्मवालों का काम नहीं है।
क्या आपको लगता है कि हिन्दी साहित्य में वह बात नहीं जो सिनेमा के पर्दे पर आ कर तहलका मचा सके या फिर मुंबई सिनेमा में कोई दिक्कत है। प्रेमचन्द की कृतियों गोदान, गबन, शतरंज के खिलाड़ी आदि पर भी बहुत कमजोर फ़िल्में बनीं।
महेश भट्ट - फ़िल्मकारों के लिये हिन्दी साहित्य या कोई और साहित्य महत्वपूर्ण नहीं है। मैं पहले कह चुका हूँ कि सिनेमा एक लोक कला है और साहित्य पढ़े लिखे लोगों की चीज़ है, एसोटिस्ट है। इसलिये हिन्दी साहित्य या किसी और साहित्य में सिनेमा वाली बात का होना ज़रूरी नहीं है। हिन्दी साहित्य में वो बात नहीं है तो यह स्वाभाविक है। जहाँ तक प्रेमचंद की कृतियों पर बनीं फ़िल्मों का सवाल है, मैं आपकी तरह यह जजमेंट नहीं दे सकता कि वे सब की सब कमज़ोर फ़िल्में हैं।
क्या आप हिन्दी साहित्य पढ़ते हैं? अगर हाँ, तो आपको किन लेखकों की कृतियाँ प्रभावित करती है?
महेश भट्ट - नहीं। हिन्दी साहित्य की कृतियों को पढ़ने की ओर मैंने कभी ध्यान नहीं दिया।
क्या आप भविष्य में किसी महत्वपूर्ण हिन्दी कृति पर फ़िल्म बनाना चाहेंगे?
महेश भट्ट - बनाना चाहूँगा, बशर्ते कि वह कृति लोकप्रिय सिनेमा की ज़रूरतों को पूरा करती हो। फ़िलहाल इसकी संभावना नहीं है।
आप एक समर्थ कल्पनाशील, वरिष्ठ और संवेदनशील फ़िल्मकार माने जाते हैं। आपने कैरियर की शुरूआत में सारांश, डैडी और अर्थ जैसी बेहतरीन फ़िल्में दीं। लेकिन क्या वजह हुई कि बाद में ये सिलसिला जारी रहने के बजाय चालू और फार्मूला फ़िल्मों की ओर मुड़ गया?
महेश भट्ट - बदलते हुए वक़्त के साथ बदलना ज़रूरी है। मैंने यह तो कहा है कि ज़बरदस्त कॉम्पीटीशन है, ज़बरदस्त कमर्शियलाइज़ेशन है, लागत में ज़बरदस्त वृद्धि है। मैं चालू और फ़ार्मूला फ़िल्में दे रहा हूँ या नहीं, यह कहना मुश्किल है। लेकिन मैं बाज़ार में ज़िंदा रहने की कोशिश ज़रूर कर रहा हूँ। एक लड़ाई है जिसका लड़ा जाना ज़रूरी है। मैं वह लड़ाई लड़ रहा हूँ।
क्या आपकी निगाह में एक फ़िल्म का कोई खास मकसद होता है? मसलन कोई संदेश या कुछ बेहतरीन कहने की कोशिश? या सिर्फ मनोरंजन और पैसा कमाना ही फ़िल्मों का मकसद रह गया है?

वे कौन से कारण हैं कि एक तरफ फ़िल्मकार बेहतरीन कृतियों पर फिल्में बनाने से डरते है और दूसरी तरफ अच्छी कृतियों के रचनाकार फ़िल्मी मीडिया से दूर भागते हैं।
महेश भट्ट - सचमुच ऐसा नहीं है कि साहित्यकार फ़िल्म माध्यम से दूर भागते हैं। मैंने तो देखा है कि लगभग हर साहित्यकार फ़िल्मों से जुड़ने के लिये उत्सुक ही नहीं, लालायित है। उनकी समस्या यह है कि फ़िल्म माध्यम में वे जम नहीं पाते। उन्हें समझ में ही नहीं आता कि लोक माध्यम क्या होता है, वाणिज्यिक ज़रूरतें क्या है। इसलिये वे असफल हो कर `रिजेक्ट' हो जाते हैं। हाँ, कुछ साहित्यकार फ़िल्म के लोक-स्वरूप को समझते हैं। वे बराबर फ़िल्म माध्यम से जुड़े रहते है।
क्या फ़िल्म मीडिया की ज़रूरत की जानकारी न होना अच्छे रचनाकारों को फ़िल्मों की ओर आने से रोकता है?
महेश भट्ट - यह सही है। साहित्यकारों को यह समझने में दिक्कत होती है कि फ़िल्म एक अलग माध्यम है। इसीलिये वे इससे जुड़ने में असफल हो जाते हैं।
क्या आपने सोचा है कि अच्छी कृतियों की तलाश करें ताकि उन पर सार्थक फ़िल्में बन सकें?
महेश भट्ट - नहीं। मैं अच्छी साहित्यिक कृतियों को कोई तलाश नहीं कर रहा हूँ। न ही इसकी कोई ज़रूरत महसूस करता हूँ। अच्छी कहानियों की तलाश ज़रूर रहती है जो कहीं से भी आ सकती हैं, सिर्फ साहित्य से नहीं।
क्या कोई अनूठा विषय है जिस पर आप अपनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म बनाना चाहते हों?
महेश भट्ट - सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म बनाने के चक्कर में मैं नहीं हूँ। न ही किसी अनूठे विषय की तलाश कर रहा हूँ।
आप अपनी कौन-सी फ़िल्म सबसे अच्छी मानते हैं? जिससे दर्शकों के साथ-साथ आपको भी सन्तोष मिला हो।
महेश भट्ट - मैंने कहा न कि मैं सर्वश्रेष्ठ के चक्कर में बिल्कुल नहीं हूँ। मुझे `अर्थ' या `सारांश' भी उतनी ही `सर्वश्रेष्ठ' लगती है जितनी `ज़ख्म' बाज़ार के लिहाज़ से। `सड़क' मेरी बहुत ही सफल फ़िल्म थी।
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महेश भट्ट जी की फिल्मों में, संगीत उनका एक सशक्त पहलू रहता है। तो आइये आखिर में सुनते चलें उनके द्वारा निर्देशित फिल्म "डैडी" का ये खूबसूरत नग्मा:
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32 टिप्पणियाँ
महेश भट्ट नें वही कहा जैसा वो हैं। भूत प्रेत सेक्स और अशलीलता अब उनकी फिल्मे हैं। एसे व्यापारियों से किसे उम्मीद है? ये समाज ले किसी काम के नहीं हैं।
जवाब देंहटाएंमधु जी नें बहुत गंभीरता से साक्षात्कार लिया है और बहुत अच्छे प्रश्न किये हैं। महेश भट्ट नें भी अपनी बात बेबाकी से रखी है। एक अच्छे साक्षात्कार के लिये बधाई।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंये सही है कि सिनेमा और साहित्य दोनों अलग विधाएँ हैँ।सिनेमा बनाने में बहुत पैसा लगता है और यकीनन जो पैसा लगाएगा वो मुनाफे की सोचेगा।सिनेमा तो साहित्यकारों के लिए बदलने से रहा...अगर सिनेमा से जुड़ना है तो साहित्यकारों को ही अपने आप को उसके रूप में ढालना होगा|
जवाब देंहटाएंअच्छा साक्षात्कार...
बाजार के नाम पर सिनेमा बाजारू हो गया है। जब महेश भट्ट जैसे निर्माता निर्देशक साहित्य से दूरी बनाये रखना चाहते हैं तो सिनेमा में सकारात्मकता और दिशा का अभाव रहेगा भी। कारण भी वे स्वयं दे रहे हैं कि मैं साहित्य नहीं पढता। मजबूरी भी नहीं है साहित्य पढना। दो चार फिल्मे छोड कर कितना महेश भट्ट या उसकी फिल्मो को याद रखा जायेगा यह भी वक्त ही बतायेगा।
जवाब देंहटाएंमहेश जी का यह साक्षात्कार पढकर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा साक्षात्कार है मधु जी, बधाई।
जवाब देंहटाएंनकल मारने को जब अंग्रेजी फिल्में मौजूद हैं तो हमारे फिल्मकार भला साहित्य में क्यों निगाह मारें। मधु जी आप भी किनसे पठनीयता की उम्मीद कर रही हैं।
जवाब देंहटाएंअनुज कुमार सिन्हा
भागलपुर
मैं जानना चाहता हूँ कि इस समय हिन्दी की ऐसी कौन सी कृति है जिस पर फ़िल्म बना कर मैं बाज़ार की ज़रूरतों को पूरा कर सकूँगा, एक तेज़ कॉम्पिटीशन में अपने आपको खड़ा रख सकूंगा। मुझे तो ऐसी कोई कृति नज़र नहीं आती।
जवाब देंहटाएंयह गंभीर सवाल है। क्या हमारे साहित्यकार इस प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं?
निधि जी आपकी बात का उत्तर खुद महेश भट्ट नें दिया है - "मैं पहले कह चुका हूँ कि सिनेमा एक लोक कला है और साहित्य पढ़े लिखे लोगों की चीज़ है, एसोटिस्ट है। इसलिये हिन्दी साहित्य या किसी और साहित्य में सिनेमा वाली बात का होना ज़रूरी नहीं है। हिन्दी साहित्य में वो बात नहीं है तो यह स्वाभाविक है।"
जवाब देंहटाएंमैने उपर भी लिखा है अपनी टिप्पणी में कि महेश गंभीर काम करने की आवश्यकता ही नहीं समझते अत: इनसे अपेक्षा भी नहीं होनी चाहिये।
फिल्मों का उद्देश्य केवल मनोरंजन है सुनकर खीझ उठती है। वैसे यह कहने में कोई आपत्ति नहीं कि महेश भट्ट नें साफगोई से अपनी बात की है। जो वो सोचते हैं, जैसा करते है। यह उनकी निजी सोच है, लेकिन सिनेमा अभिव्यक्ति का एक बडा माध्यम भी है। एसा न होता तो लोग किसी फिल्म से आहत न होते, किसी फिल्म के कंटेंट के लिये आन्दोलन न होते और किसी फिल्म से चर्चाये और बहस न पैदा होते। बाजार में बहुत से लोग जिन्दा रहते हैं आप भी उनमें एक हैं महेश भट्ट तो नया क्या? बहुत अच्छे से पहचाना इस इंटरव्यू को पढ कर आपको।
जवाब देंहटाएंपूरे साक्षात्कार से एक हीं बात खुलकर सामने आई है और वह यह है कि साहित्य फिल्मों के लिए नहीं होता। महेश भट्ट साहब बीते दौर का हवाला देते हुए कहते हैं कि साहित्य पर जो भी अंग्रेजी , रूसी या बांग्ला फिल्में बनी वह तब बनी जब कमर्शिलाइजेशन नहीं हुआ था। यही बात मेरे पल्ले नहीं पड़ रही। इन दिनों अंग्रेजी फिल्में हिन्दी फिल्मों से भी ज्यादा कमर्शियलाइज्ड हैं। फिर भी वहाँ साहित्य को नज़र-अंदाज़ नहीं किया जाता। बालीवुड में महेश भट्ट एक बड़ा नाम है। अगर वे बातों को उलझाकर अपना मत ऎसे रखते हैं तो औरों का क्या कहा जा सकता है। यह बस इस दौर में उनके द्वारा बनाई जा रहीं उलुल-जुलूल फिल्मों का बचाव मात्र है। रही बात फिल्मों के लिए साहित्य लिखने की तो कोई भी साहित्यकार "ज़हर","राज़" ऎसे विषय पर तो साहित्य नहीं हीं लिखना चाहेगा और अगर इन विषयों पर न लिखो तो महेश भट्ट साहब उस साहित्य को फिल्मों के लायक नहीं मानेंगे। अजीब विडंबना है।
जवाब देंहटाएंमधु जी ने बड़ी हीं सूझबूझ से महेश भट्ट का साक्षात्कार लिया है। इस प्रयास के लिए उनकी तारीफ की जानी चाहिए। मैं बस मधु जी को एक सलाह देना चाहूँगा कि " जवाबों के अनुसार सवालों में फेरबदल करते रहना चाहिए। " मैं इसी साक्षात्कार का उदाहरण देना चाहूँगा। जब महेश भट्ट ने कहा कि "वे हिन्दी साहित्य नहीं पढते और मानते हैं कि इस दौर में फिल्म बनाने लायक साहित्य नहीं लिखा जा रहा" तो पुन: यह नहीं पूछा जाना चाहिए था कि "क्या आपने सोचा है कि अच्छी कृतियों की तलाश करें ताकि उन पर सार्थक फ़िल्में बन सकें?"। यह तो साफ हीं था कि महेश भट्ट इस प्रश्न का क्या उत्तर देने वाले हैं।
इस साक्षात्कार के लिए पूरी साहित्य-शिल्पी टीम ,विशेषकर मधु जी का तहे-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ।
-विश्व दीपक
बेचारे ऋषि दा ओर विमल रोय ....खामखा फ़िल्म के मनोरंजन के साथ संदेश देते थे ....देखिये न कितनी बेकार फिल्म दी है उन्होंने हिन्दी जगत को.....बेचारे मदर इंडिया वाले महबूब खान अनपढ़ होकर खूब पढ़े लिखे गहरे बुद्दिजीवी महेश भट्ट के तर्क को नही समझे ....न देव आनंद जिन्होंने गाइड बनाई......विशुद्ध मनोरंजन की परिभाषा उन्होंने गढ़ी है .. पर एक बात उनसे कहना चाहूँगा ......साहित्य क्या है उससे जानने के लिए पढ़ना पड़ेगा न ?
जवाब देंहटाएंमेरा दृष्टिकोण है कि महेश भट्ट की फिल्मों के स्तर को देखते हुए उनको पहचाना जा सकता है। यह भी सही है कि आज की बाजारू फिल्मों को कहानी की क्या आवश्यकता है?
जवाब देंहटाएंप्रशंसनीय प्रस्तुति है। अच्छे प्रश्न और बेबाक उत्तर।
जवाब देंहटाएंNice Interview.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
MADHU ARORA KE BEBAAK SAWAALO KO
जवाब देंहटाएंMAHESH BUTT NE BHEE BEBAAKEE SE
JAWAAB DIYE HAIN.MAHESH BUTT KAA
YE KAHNA"HINDI FILM BANAANAA CHAHUN
GAA,BASHARTE VAH KRITI LOKPRIY
CINEMA KEE ZAROORTON KO POORA KARTEE HO.FILHAAL ISKEE SAMBHAAVNA
NAHIN HAI"HAMAARE LIYE EK BADAA
SAWAAL HAI.ISKA JAWAAB DDONDNAA
HOGAA.
यहाँ लोगों ने लोकप्रियता को लेकर बडी हायतॉबा मचाई थी…मार्क्सवाद अऑर कविता को गरिया कर आम जन के साहित्य की बात की थी।
जवाब देंहटाएंउम्मीद है अब बाज़ार का गणित सबके समझ मे आ गया होगा ऑर लोक्प्रियता का मिथक भी।
अजय आज़ाद
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस साक्षात्कार से है साफ
जवाब देंहटाएंफिल्में पैसा कमाने के लिए
जाती हैं बनाई, न कि
पैसा डुबाने के लिए
फिर भी सच है कि
पैसा डूब डूब जाता है।
सिनेमा में अगर पैसे को
सर्वोपरि रखा जाएगा तो
ऐसा साहित्य नजर नहीं
आएगा, फिल्म बने जिसपर।
तीसरी कसम और बासु चटर्जी
निर्देशित बहुत सारी फिल्में
साहित्य पर ही तो बनी हैं
बनी हैं और भी, निर्देशक
और भी हैं बहुत सारे
जो सिर्फ पैसे के लिए ही नहीं
(श्याम बेनेगल, मृणाल सेन आदि)
बनाते हैं फिल्में
साहित्य को भी देते हैं सम्मान
भूलते नहीं हैं पैसे को भी
और भूलना भी नहीं चाहिए
पर साहित्य को भुलाना
ठीक नहीं है।
महेश भट्ट का कहना
जवाब देंहटाएंमैं बाजार में जिंदा रहने की कोशिश कर रहा हूं
के स्थान पर सच है कि
मैं बाजार को जिंदा रखने की कोशिश कर रहा हूं
होना चाहिए था।
देव आनंद साहब ने तो कभी उस कमाई के दौर में भी बाजार में जिन्दा रहने की कोशिश नही की .....उन्होंने तो ज्यादातर बेहतरीन फिल्म दी हैं .....बाजार में तो चीजें आपकी गुणवत्ता और विशेषता पर बिकती हैं ..... खैर शायद भट्ट साहब को अब पैसा कमाने का चस्का लग गया है .....
जवाब देंहटाएंअनिल कान्त
मेरा अपना जहान
बाज़ार में जिंदा रहने की कोशिश कर रहे हैं, या जी ही बाज़ार के लिए रहे हैं?
जवाब देंहटाएंmere priy pathakoN,
जवाब देंहटाएंaapne mahesh bhaat ke interview ko pasand kiya,positive comments diye.accha aur sukhad laga.
sahityashilpi team ka aabhar ki aap logoN ke parishram se ye interview sabhee tak panhuch paaya.
aap sabhee ka aabhar.
इतना बढ़िया साक्षात्कार पढ़कर दिल खुश हो गया. भट्ट जी तुसी ग्रेट हो यार !!
जवाब देंहटाएंबेहद रुचिकर साक्षात्कार. मधु अरोरा जी को साधुवाद !!
जवाब देंहटाएंसिनेमा का लोक पक्ष जैसे जैसे हावी होता जा रहा है, लिखित साहित्य से उसकी दूरी बढ़ती जा रही है। साहित्यिक कृतियों पर इधर एक दो फ़िल्मों का रिमेक हुआ है। लेकिन सवाल पूछा जा सकता है कि इनका ओरिजिनल रूप कितना कुछ कायम रखा गया है..........बहुत सही आपने महेश भट्ट साहेब. पर कहीं ऐसा ना हो कि आगामी पीढियां सिनेमा को ही सच मान बैठें और साहित्य का शाश्वत सौन्दर्य उनके लिए नगण्य हो जाये....!!! फ़िलहाल इस अनुपम प्रस्तुति हेतु मधु जी को बधाई !!!
जवाब देंहटाएंसही कहा ! सिनेमा और समाज दोनो ही साहित्य से दूर होते जा रहे हैं । सिनेमा ने तकनीक और संचार का समाज निर्माण में कम ही उपयोग किया है ।
हटाएंjaane kyo aisa laga ki bhatt sahab ko apni film industry par bahut garv hai. Unhone apne interview me sahitya ki kafi upekchha ki hai aisa ujhe pratit hua khai ho sakta hai vo apni jagah sahi ho aakhi vo varisht v safal filmkaar jo hai !!!
जवाब देंहटाएंसाहित्यिक कृतियोँ पर
जवाब देंहटाएंअवश्य सफल और अच्छी और लँबे काल खँड तक यादगार रहे
वैसी फिल्मेँ भी बन सकतीँ हैँ -
फिल्मेँ ही क्यूँ ?
टेलिविज़न की १५० हफ्तोँ से ज्यादा चलनेवाली धारावाहिक सीरीयल्ज़ भी -
उदाहरण है सबसे प्राचीन भारतीय साहित्य "रामायण " और " महाभारत " --
जिसमेँ "महाभारत " जो विश्व की सबसे जटिल व व्यापक कथा है
उसे टीवी के लिये तैयार करने मेँ
मेरे स्व. पिताजी ने भी श्रम किया था
( स्व. पँडित नरेन्द्र शर्मा ) -
डा. हरिवँश राय बच्चनजी की आत्मकथा
"क्या भूलुँ क्या याद करुँ " पर भी एक सफल फिल्म
आराम से बन सकती है
परँतु अफसोस :-(
उन्हीँ के अभिनेता पुत्र को अभी ये विचार आया नहीँ !
ऐसी कितनी ही कथाएँ
साहित्य का हिस्सा हैँ
जो फिल्म निर्माताओँ की उपेक्षा से रुपहले पर्दे पर नहीँ आ पातीँ -
मधु जी का इन्टर्व्यु बहुत सधा हुआ और अच्छा लगा -
साहित्य शिल्पी को इस प्रस्तुति पर पुन: एक बार - बधाई !
- लावण्या
भट्ट जी ! बाज़ार की ज़रूरतों के लिये साहित्य नहीं हुआ करता । साहित्य तो समाज की ज़रूरतों के लिये हुआ करता है । बाज़ार की ज़रूरतों के लिये पोर्न है ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट ! मैंने तो इस पोस्ट को बुकमार्क ही कर दिया . धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.