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शहीद हूँ मैं [कविता पोस्टर] - विजय कुमार सपत्ति/ सुमेधा

आतंकवाद का मुकाबला कैसे हो? बशीर साहब की पंक्तियाँ याद आती हैं:-

लोग टूट जाते हैं, एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में।

कैसा नपुंसक है यह देश, बर्फ हो जाता है। लगातार निर्दोष मारे जा रहे हैं। लगातार एक छद्म युद्ध शांति के कबूतर का गला घोंट रहा है। हम सीना ठोक कर कहते हैं कि हम बडे जान वाले लोग हैं, कल जहाँ गोलियाँ चली थी, आज वहीं से अपने ऑफिस के लिये निकले हैं। आह!! इस गफलत का करें क्या हम? हम अपने विकल्पहीन होने को भी गर्व का विषय बना लेते हैं और अपनी बेबसी पर तालियाँ पीट लेते हैं।

हम कितने असहान फरामोश हैं कि याद नहीं रखते वे घटनायें भी जिनका असर हमारे ही जीवन पर पडता है। यह भी कि हम इतने आम हैं कि सुबह को घर से निकलें तो शाम को हमारा घर लौट कर आना तय नहीं है। यह भी कि अगर हम या हममें से कुछ अब तक साँस ले रहे हैं तो उसका कारण हैं हमारे प्रहरी, हमारे सैनिक, हमारे सिपाही। 26/11 की आतंकवादी घटना पर अब धूल पडने लगी है। हम सामान्य होने लगे हैं। हम भूलने लगे हैं कि यह घटना शहादत की बहुत सी कहानियों को समेटे है, बहुत सी माओं की आँखें पत्थर हो गयी है और बहुत सी बहनों के जीवन का रंग सफेद हो गया है। हाँ हम अहसान फरामोश हैं, भूल जाते हैं कि शहादत कुछ परिवारों के दीपक बुझाती है, तब हमारे घर के चिराग रौशन रहते हैं।

हम याद रखें अपने शहीदों को और हमारे भीतर वह आक्रोश जीवित रहे जिसके दबाव में व्यवस्था सजग रहे और आतंकवाद पर लगाम लगे। इसी उद्देश्य के साथ एक प्रदर्शनी पुणे में यशवंत राव कला दालान में 23 से 26 जनवरी के मध्य आयोजित की गयी थी। यह प्रदर्शनी दो कलाओं का संगम थी जिसमें कविता और उस पर बने पोस्टर प्रदर्शित किये गये थे। साहित्य शिल्पी विजय कुमार सपत्ति की कविता “शहीद हूँ मैं” भी इस प्रदर्शनी का हिस्सा थी।
 इस कविता पर पोस्टर तैयार किया था प्रतिभाशाली चित्रकार कुमारी सुमेधा नें।


[अपने बनाये पोस्टर के सम्मुख चित्रकार सुमेधा] 

विजय कुमार सपत्ति की यह कविता “शहीद हूँ मैं” साहित्य शिल्पी पर पूर्व प्रकाशित है। 

[अपनी कविता - पोस्टर के सम्मुख विजय कुमार सपत्ति] 

आज इस रचना पर बने पोस्टर व इस कार्यक्रम में लगाये गये कुछ चित्र हम प्रस्तुत कर रहे हैं।
हमारी संवेदनाओं का जगा रहना आवश्यक है।

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21 टिप्पणियाँ

  1. विजय कुमार जी तथा सुमेघा जी को उनके प्रयास के लिए बहुत-बहुत बधाई

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  2. शहीद हूँ मैं, अच्छी कविता है और उस पर बना सुमेधा जी का पोस्टर मन संवेदना से भर देता है। एसे प्रयासों की बहुत आवश्यकता है।

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  3. सही मायनों में एसे आयोजन आतंकवाद के खिलाफ शब्दयुद्ध कहे जा सकते हैं। विजय सपत्ति एवं सुमेधा जी बधाई के पात्र हैं।

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  4. इस आयोजन की बहुत सार्तकता है। बधाई।

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  5. विजय जी इस कविता में एक संवेदना है एक आवाज है और हर नागरिक के लिये आवाज है। उनकी आत्मा को झकझोरने क आपका प्रयास सफल है। सुमेधा बहुत प्रतिभाशाली चित्रकार प्रतीत होती हैं।

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  6. यह बात अक्षरक्ष: सत्य है कि "हम याद रखें अपने शहीदों को और हमारे भीतर वह आक्रोश जीवित रहे जिसके दबाव में व्यवस्था सजग रहे और आतंकवाद पर लगाम लगे"

    सफल आयोजन के लिये आयोजकों, कवि विजय सपत्ति तथा चित्रकार सुमेधा को बधाई।

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  7. मैं इस post के लिए साहित्य शिल्पी का आभारी हूँ.

    ये exhibition , क्षितिज के द्वारा पुणे में आयोजित की गई थी . श्री संजय भारद्वाज और श्रीमती सुधा भारद्वाज ने अपने अथक प्रयासों द्वारा इस प्रयोजन को सार्थक किया ..इसकी पृष्ठभूमि २६/११ के आतंकी हमले पर है ... हमारे देश में आतंकी हमलो के द्वारा करीब १८००० नागरिक मारे जा चुके है जो की हमारे युद्धों में मारे जाने वाले सैनिको से कहीं ज्यादा है .. आख़िर बेक़सूर नागरिको का दोष क्या है , सिर्फ़ इतना की वो एक ऐसे देश के नागरिक है , जहाँ राजनैतिक स्वार्थ अपनी परमसीमा पर है ... जहाँ हमें आज़ादी की असली कीमत नही मालूम ... जहाँ ,हमारी संवेदानाएं मर चुकी है ...जहाँ ये देश पूरी तरह से banana country बन चुका है ..

    मुझे एक कथा याद आती है .. जब प्रथ्विराज चौहान को उनके कवि ने जोश दिलाया था , एक और कथा है , जहाँ कृष्ण , अर्जुन को अपने शब्दों के द्बारा युद्ध के लिए प्रेरित करते है .. “शब्द और युद्ध permanent है लेकिन आतंक temporary है !” This makes us to wake up to the call of the nation .

    राजीव जी ने कितना सार्थक लिखा है ...
    " कैसा नपुंसक है यह देश, बर्फ हो जाता है। लगातार निर्दोष मारे जा रहे हैं। लगातार एक छद्म युद्ध शांति के कबूतर का गला घोंट रहा है। हम सीना ठोक कर कहते हैं कि हम बडे जान वाले लोग हैं, कल जहाँ गोलियाँ चली थी, आज वहीं से अपने ऑफिस के लिये निकले हैं। आह!! इस गफलत का करें क्या हम? हम अपने विकल्पहीन होने को भी गर्व का विषय बना लेते हैं और अपनी बेबसी पर तालियाँ पीट लेते हैं।"

    ये सारे शब्द हमें कुछ कह रहे हैं....

    मैं ये समझता हूँ की शब्दों के द्वारा ही हम इस सोये हुए और करीब करीब मरे हुए समाज में एक दुसरे युद्ध की भावना ला सकते है , ये युद्ध निश्चित तौर पर एक अच्छे देश के निर्माण के लिए होंगा..

    आपका
    विजय

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  8. शब्द युद्ध जारी रहना चाहिये जिससे हम सजग हों। इस आलोक को विस्तार चाहिये। यह इस लिये होता है कि हम एक नहीं हैं। हम कहीं जाति में विबक्त हैं तो कहीं धर्म में। एसा समाज टूटेगा ही और आतंकवाद का शिकार बजेगा। समय आ गया है कि हम पहले स्वयं से मुकाबला करें और फिर आतंकवाद से भी।

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  9. सुमेधा जी आपका पोस्टर बिना कहे बहुत कुछ कहता है। देखता रहा और आँख भर गयी।

    अनुज कुमार सिन्हा
    भागलपुर

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  10. वतन पर मिटने वालों का निशाँ रहे इसलिये एसी कोशिशों की लगातार आवश्यकता है। कविता तो अच्छी है ही, सुमेधा जी की पेंटिंग बहुत अच्छी है।

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  11. कवि और चित्रकार दोनों ने ही बहुत प्रभावित किया है. दोनों को बहुत-बहुत बधाई.

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  12. Kavi aur chitrakaar ko unkee
    krition ke liye badhaaee.

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  13. बलि चढ़ा दो
    इतनी उपर
    जाये तो वापिस आने न पाये
    आतंकवाद और पाकिस्‍तान
    दोनों के विरुद्ध कवि तुम
    ऐसा शब्‍दयुद्ध छेड़ो
    चित्रों में समस्‍त भावना
    अपनी मन मानस में बिखेरो।

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  14. vijay ji ki bhavnaon aur unke vicharon se hamesha hi bhaut prabhavit rahi hoon
    chitrkari bhi bhaut achhi rahi
    shaheed kavita bahut hi samvedansheel rahi

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  15. सुमेधा की पोस्टर और सपत्ति की कविता दोनो लाजबाब!

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  16. विजय कुमार जी,
    सुमेघा जी,

    दोनों ने बहुत प्रभावित किया ...

    अच्छे प्रयास के लिये
    बहुत-बहुत बधाई

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  17. सुमेधा जी व विजय कुमार जी दोनो बधाई के पात्र है.. शब्दों और चित्रों के माध्यम से सटीक अभिव्यक्ति हुई है.. हमारे भीतर का आक्रोश और बलिदानी व्यक्तियों के प्रति निष्ठा ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजली है

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  18. आप दोनों की यह संगत प्रस्तुति बेमिसाल है।झकझोरती है, संवेदित करती है,साथ ही उस जज़्बे को भी जगाए रखने मे सहायक है जो आदमी के अंतस को कुछ करगुज़रने के लिये तैय्यार करती है।
    बधाई।

    प्रवीण पंडित

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