
यह तुम्हारा
अद्भुत दीप्तिमान मुखमंडल
लकदक वेशभूषा
अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित
तुम्हारे इस जादुई रूप का आकर्षण
भयानक है
जो निठल्लों को लुभाता है
डराता है कायरों को
और उससे भी भयानक है
तुम्हारी यह झूठी और मादक महिमा
जो मतवाला बना देती है
जिसके बूते तुम बिराजते हो
बडे ही ठाठ-बाट के साथ
जगह-जगह नाना रूपों में
लोग करते हैं मनमानी
तुम्हारा ही नाम ले-लेकर
छीन ले रहे हो हमारी धरती
हमारी शांति, हमारी एकता
तुम्हें, शर्म नही आती ?
बडे ही ठाठ-बाट के साथ
जगह-जगह नाना रूपों में
लोग करते हैं मनमानी
तुम्हारा ही नाम ले-लेकर
छीन ले रहे हो हमारी धरती
हमारी शांति, हमारी एकता
तुम्हें, शर्म नही आती ?
***
11 टिप्पणियाँ
देवताओं को कटघरे में खडा करती बहुत सी कवितायें हिं। इस कविता में भी यही कोशिश है और जिन मानवीय स्ंदर्भों को उकेरने के लिये आस्था पर प्रश्न खडा किया गया है वह कविता का सकारात्मक पहलु है। बधाई डॉ. नंदन।
जवाब देंहटाएंनिस्संदेह अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंधर्म की आड़ में होने वाले गलत कृत्यों पर सवाल उठाती कविता अच्छी बन पड़ी है....बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता, बधाई।
जवाब देंहटाएंACHCHHEE KAVITA KE LIYE MEREE
जवाब देंहटाएंBADHAAEE.
वसीम बरेलवी साहब का एक शे'र है ..
जवाब देंहटाएं" सलीका ही नही शायद उसे महसूस करने का , जो कहता है खुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है "
सारा खेल उस ईश्वर के नज़र आने का है , उसे देख लेने कि चाह का है .. इसी वजह से इश्वर हमारे मन से निकल कर मंदिरों मस्जिदों में चला गया ... इश्वर के इस "tangible" स्वरुप की खोज ने उन लोगो को मौका दे दिया जिनका पेशा दीवारें उठा देना है , किसी न किसी वजह से.. इन्हीं सब बातो की ओर इंगित करती है ये कविता ... और सवाल करती है इश्वर से और हमारे अंतरतम से ..कि इश्वर के "स्वरुप" का इस्तेमाल हमें अखरता क्यूँ नही है ..
बेबाक कविता नंदन जी.. शुक्रिया ...
तुम्हारा ही नाम ले-लेकर
जवाब देंहटाएंछीन ले रहे हो हमारी धरती
हमारी शांति, हमारी एकता
तुम्हें, शर्म नही आती ?
कडुवा प्रश्न है। कविता अपने उद्देश्य में सफल है।
जिसके बूते तुम बिराजते हो
जवाब देंहटाएंबडे ही ठाठ-बाट के साथ
जगह-जगह नाना रूपों में
लोग करते हैं मनमानी
तुम्हारा ही नाम ले-लेकर
छीन ले रहे हो हमारी धरती
हमारी शांति, हमारी एकता
तुम्हें, शर्म नही आती ?
गंभीर अभिव्यक्ति है।
कविता को कथ्य समझने के लिये कई बार पढा...
जवाब देंहटाएंशब्द शिल्प की दर्ष्टि से कविता जितनी अच्छी है, कथ्य की दर्ष्टि में उतनी ही गंभीर... धर्म की बात तो निरंतर हुई, व्यापार भी हुआ पर जिन नैतिक पैमानों को प्रतिस्थापित करने के लिये समाज मे भगवान का अस्तित्व पैदा किया गया वह मार्ग भ्रम पैदा करने वाला हो कर रह गया तब कवि को यह सवाल उठाना पडा खुद भगवान से कि तुम्हें शर्म नहीं आती...
बहुत अच्छी रचना जो विचारों को उत्तेजित करती है. चिंतन के लिये मजबूर करती है... उत्तम रचना के लिये बधाई....
नन्दन जी,
जवाब देंहटाएंमैने एक महीने तक शिल्पी पर कमेन्ट न देने का तय किया था पर आपके चलते आज वादा तोड़ना पड़ गया।
अच्छी ऑर विचारपरक कविता के लिये बधाई। अब आप ही बताये कि यह कविता क्या किसी ऑर छंद मे लिखी जा सकती है?
कविता मे विचार के विस्तार की जो सँभावना मुक्त छंद में है वह कहीं नहीं । अब यह कविता जनता की कविता है लेकिन इसे जन जन गायेगा तो नही। हाँ यह कविता बॉद्धिक विमर्श मे जनता का पक्ष लेकर खडी होती है। विचार कविता की यही भूमिका होती है। इसे लोकप्रियता के चालू पैमानो पर कसा नहीं जा सकता। जनता के लिये लिखे जायेंगे जनगीत …जिनके शब्द आसान होन्गे,गेयता होगी ऑर शायद लोकप्रियता भी होगी। लेकिन वह भी तभी जब उसमे जनता का दुखदर्द बयान होगा। गाया तो उन्हे तभी जायेगा जब आन्दोलन होगा। आन्दोलन होगा तो वह एक वैकल्पिक व्यवस्था के लिये होगा ऑर उस व्यवस्था का नक्शा बनेगा तो किसी विचार के आधार पर ही- चाहे वह कोई भी हो।
यही बात है जो मै बार-बार करता रहा हूँ ।
एक बार फिर अच्छी कविता के लिये बधाई।
संदर्भ चैलेंजिंग है। साहस के कवि कर्म किया है। बधाई नंदन जी।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.