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एक था मुर्गा [कहानी] - दिव्या माथुर

जैसे जैसे साँझ ढलती, रेत निगलने को आतुर समुद्र की उद्दंड और क्रुद्ध लहरें आक्रामक होती चली जाती. कभी कभी तो उनका उत्पात इतना बढ़ जाता कि वे चट्टानोँ तक से टकरा जातीं और उनको समुद्र मे डुबा मारने में कोई कसर न छोडतीं. फिर बियाबाँ में सायँ सायँ करती भयानक हवा की सीटियाँ और पेड़ों को जड़ से उखाड़ देने वाले झक्कड़ों का शोर अक्षता के कानों से होकर उसके मस्तिष्क मे पैठ जाता. न वह ठीक से कुछ सोच पाती, न ही कुछ करने को उसका मन करता. डाक्टर कहता कि टिनिटस का कोई इलाज नहीं. कितने शौक से आई थी वह इंगलैंड कि जैसे यहाँ कोई न ग़म होगा और न कोई कहने सुनने वाला. उसके मित्रों के शब्दों में उसकी तो ‘बस अब मौजाँ ही मौजाँ’. किंतु जब से वह हीथ्रो हवाईअड्डे पर उतरी, वो दिन और आज का दिन, उसके कानों का ये शोर उसे पागल किये रहता है. विंस्टन उसका जब तब मज़ाक उड़ाता रहता है कि वह दिल्ली से न जाने कितनी चीज़ें अपने कानों में भर कर लन्दन लाई थी.

अक्षता सोचती कि कैसी अटपटी सी कहानी थी जो बचपन मे दादी माँ उसे सुनाया करतीं थीं. बहुत हँसती थी वह मन ही मन पर किसी तरह अपने पर संयम पा लेती थी कि कहीं गुस्से में दादी माँ उसे अकेला छोड़ अपनी मियानी में माला फेरने न बैठ जाएँ. मम्मी पापा का घर आने का कोई समय तो बंधा नहीं था और आकर भी वे इस हालत में तो कतई नहीं होते थे वे कि बेटी से ठीक से दो बात ही कर पाते. जन्मदिन, दीवाली और क्रिसमस पर महँगे तोहफे लाकर वे अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते. हाँ, ‘गुड्नाइट’ करने वे उसके कमरे में अवश्य आते थे. कई बार तो वे उसके तकिये को ही चूमकर चले जाते क्यूँकि वह तो दादी माँ के पास ही सो जाती थी. सुबह सुबह बेचारी दादी माँ की शामत आ जाती कि अपने पास सुलाकर वह अक्षता को बिगाड़ कर ही दम लेंगी. दादी को डाँट पड़ते देख अक्षता गुस्से में पाँव पटक कर कहती, ‘दादी माँ ने मुझे थोड़े ही बुलाया था अपने पास, मैं ही डर कर उनके पास आई थी.’ इस पर भी मम्मी कहती, ‘देखा, कैसी ज़ुबान चलने लगी है आपकी लाड़ली की.’ ऐसे में दादी भी अक्षता को इशारे से चुप रहने को ही कहतीं तो अक्षता को बड़ी हैरानी होती कि कोई कैसे इतनी बेइंसाफ़ी सह सकता था. दादी ने एक बार उसे बताया था कि बात बढ़ाने से कोई फ़ायदा नहीं होगा. उनका बेटा खुल्लमखुल्ला माँ की तरफ़दारी नहीं कर पाएगा और उसे पत्नी का कोप अलग सहना पड़ेगा.

‘एक मुर्गा था. जब उसने नगर में राजकुमारी को देखा तो बस वह देखता ही रह गया. मन ही मन उसने ठान ली कि वह शादी करेगा तो राजकुमारी से ही, नहीं तो वह कुँवारा ही रह जाएगा.’ अक्षता अपना सिर दादी की गोद मे रखकर लेट जाती और उनकी गुदगुदी उंगलियाँ उसके घने बालों को सुलझाने लगतीं. कभी सिर तो कभी माथा, तो कभी पीठ, दादी माँ की उंगलियाँ मानो उसे सहलाते थकती ही न थीं और अक्षता को और क्या चाहिए था. ‘तो जनाब, मुर्गा चल दिया राजधानी, राजा से मिलने.’’ ’राजा से मिलने? तुम तो कह रही थीं कि वह राजकुमारी से शादी करना चाहता था?’ अक्षता को बीच मे राजा का व्यवधान बिल्कुल पसन्द न था.

‘लाडो रानी, राजकुमारी का हाथ तो वह राजा से ही माँगेगा कि नई?’ जब दादी को पोती पर लाड़ उमड़ता तो वह उसे ‘लाडो रानी’ कहकर पुकारतीं जबकि उसका घर का नाम ‘अंशु’ था.

‘दादी माँ, मुर्गे को क्या राजकुमारी का बस हाथ ही चाहिए था?’

अक्षता कभी कभी दादी माँ को इतना खिजाती कि उसके सिर पर चलती उनकी उंगलियाँ रुक जातीं. जल्दी ही वह उनका हाथ पकड़ कर वापिस अपने सिर पर रख लेती और दादी माँ फिर से शुरु हो जातीं.

‘रास्ते मे उसे नदी मिली. नदी ने पूछा, ‘मुर्गे मुर्गे कहाँ चले, यूँ बने ठने?’

मुर्गे ने जवाब दिया, ‘राजकुमारी से ब्याह रचाने.’

मुर्गे के साथ साथ चलते हुए नदी इठलाती हुई बोली, ‘मुर्गे भैया, क्या तुम मुझे बारात मे नहीं ले चलोगे?’

मुर्गे ने कहा, ‘क्यों नहीं, नदी मौसी, मेरा अपना और कौन है, तुम्हारा पानी पी पीकर मैं बड़ा हुआ हूँ, भला तुम नहीं चलोगी तो कौन चलेगा मेरी बारात में? आओ बैठ जाओ मेरे कान में.’ और नदी मुर्गे के कान में बैठ गई.

जंगल मे उसे शेर मिला. उसने गुर्रा के पूछा, ‘मुर्गे मियाँ, ये सजे धजे तुम कहाँ चले?’

मुर्गे की क्या औकात कि शेर को मना करता. ‘क्यों नहीं, शेर चाचाजी, आप साथ चलोगे, तो मेरी हिम्मत बंधी रहेगी. आओ बैठ जाओ मेरे कान में.’ और शेर भी आ पसरा मुर्गे के कान में. जब तक मुर्गा राजधानी पहुँचा, उसके कान में नदी, नाले, चींटे चींटियाँ, हाथी, घोड़े, शेर, आग, बरसात इत्यादि सब मिलकर बन्ने बन्नियाँ गा रहे थे. ’बन्ने तेरे बाबा लाख हज़ारी, बन्ने तेरी दादी नख़रे वाली.’

हर रात वही एक कहानी दादी माँ अनेकों अन्दाज़ में उसे सुनाती, ख़ूब रस रस ले लेकर. चिड़िया, तोते, मैना, नदी, हाथी, शेर आदि पशु पक्षियों की आवाज़ों की नकल उतारने में वह सिद्धहस्त थीं और अपने गीतों के भन्डार से निकालतीं हर रोज़ एक नया गीत अथवा बन्ना और बन्नी. जहाँ उनका मन आता, कहानी रोक कर पूरे पूरे गीत गाने बैठ जातीं. अक्षता को उनकी आवाज़ जरा भी सुरीली नहीं लगती थी किंतु कुछ बात थी उनकी आवाज़ में, जो उसे मोह लेती. शून्य में किसी को इंगित करते हुए और आँखें नचा नचा कर और चटकारे ले लेकर, वह यूँ गातीं जैसे कि बन्ना बन्नी और उनके घरवाले सामने बैठे हों, ‘बन्ने तेरे नाना तांगे वाले, बन्ने तेरी नानी भैंगी काली’, और हँसते हँसते अक्षता लोट पोट हो जाती.

खैर अक्षता भी तो नदी, समुद्र, पहाड़ और महाद्वीप पार करती इंग्लैंड आई थी, विंस्टन से ब्याह के इरादे से, न जाने कितने सपने अपने मन में संजोए. वही विंस्टन जो कालेज की एक ‘स्टूडैंट्स एक्सचेंज स्कीम’ के अंतर्गत मुम्बई में अक्षता का अतिथि था. मुम्बई दर्शन के दौरान वे दोनों जल्दी ही एक दूसरे के करीब आ गए थे. हालांकि जहाँ कमसिन अक्षता अपना तन मन धन न्योछावर करने को आतुर थी, वहीं विंस्टन के लिए इस प्रकार की निकटता का कोई खास महत्व न था. नादान तो थी ही, स्नेह की भूखी अक्षता को यदि जीवन में पहली बार आदर मिला तो वह विंस्टन से ही, जो उसे ‘आकछाता’ के नाम से ही पुकारता रहा. कई दिनों तक दोनों के बीच यही खेल चलता रहा जब तक कि मम्मी ने उसकी दुविधा यह कहकर दूर नहीं कर दी कि वह भी उसे ‘अंशु’ कहकर पुकार सकता था हालाँकि अक्षता को अपना ये घरेलू नाम बिल्कुल पसन्द न था.

दादी अब बूढ़ी हो चली थीं, बीमार रहने लगीं थीं और वैसे भी अक्षता उनकी कब सुनने वाली थी. एक दो बार उन्होंने टोका तो मम्मी पापा ने ही उन्हें चुप करा दिया कि घूमने फिरने में रात बेरात तो हो ही जाती है. वे बड़े खुश थे अपनी बेटी के चुनाव से, उसके ‘फ़र्स्ट लव’ से. पड़ोस में वे सिर उठा के निकलते कि एक गोरा उनके घर में मेहमान था. उन्हें अपने आप पर बड़ा अभिमान था कि वे इतने प्रगतिशील विचारों वाले माँ-बाप थे. वैसे भी वे अपनी इकलौती और मेधावी बेटी के लिए कुछ भी कर सकते थे. पापा को जैसे ही पता लगा कि विंस्टन किंग्स कालेज का छात्र था जहाँ से बरसों पहले उन्होंने भूविज्ञान में डिग्री ली थी, तो वे वैसे ही उससे प्रभावित हो गए थे.

“लगता है किसी राजघराने से ताल्लुक है विंस्टन का. इसकी त्वचा तो देखो कैसी मुलायम और साफ़ है. इसे इंडियन कपड़े पहना दो कितना हैंडसम लगे!” मम्मी की आँखों में इतनी चमक पहली बार देखी थी अक्षता ने. विदेश में बसने की अपनी अधूरी इच्छा शायद वह बेटी के माध्यम से पूरी होता देखना चाह रहीं थीं. पापा से विवाह ही उन्होंने इसलिए रचाया था कि वह इंगलैंड में पढ़ रहे थे.

अक्षता जो अब तक केवल सिनेमा और रैस्त्रांस तक सीमित थी, विंस्टन के साथ क्लबों के चक्कर भी लगाने लगी, जिनकी फेहरिस्त विंस्टन अपने साथ इंगलैंड से लाया था. अक्षता तो अब अपनी चहेती सहेलियों को भी टरकाने लगी थी ताकि अधिक से अधिक समय वह स्वयं अकेले विंस्टन के साथ गुज़ार सके. ख़ैर, उसे पक्का विश्वास था कि उसका राजकुमार विंस्टन ही था, जिसके प्रस्थान के उपरांत ही मनचली अक्षता ने भी इंगलैंड में पढ़ने की ठानी. अपने माँ बाप के पैसे और दबदबे का उपयोग करके विंस्टन के कालेज में ही दाखिला लेकर अक्षता ने उसे हक्का बक्का कर दिया था.

किंग्स कालेज के होस्टल में उसे जगह नहीं मिली तो विंस्टन के अनुरोध पर उसकी मौसेरी बहन, ऐनी ने उसे अपने फ़्लैट में रहने को एक कमरा दे दिया. जो कालेज से कोई अधिक दूर न था. वैसे भी विंस्टन और उसके मित्र, जब देखो तब ऐनी के फ़्लैट में ही धरे रहते थे, जो विल्स्डन ग्रीन के एक सघन इलाके में था. अक्षता को बड़ा अचम्भा होता था कि कहाँ कहाँ से इकट्ठे किए थे विंस्टन ने अपने मित्र, पहले और दूसरे साल के छात्रों के अलावा, कोई कूड़ा उठाने वाला था तो कोई बढ़ई. जब वे कभी मस्ती में आते तो दर्जनों बीयर की बोतलें और तरह तरह की शराब पी लेते कि अक्षता को उनसे डर लगने लगता कि न जाने वे क्या कर बैठें. वह स्वयं दिखाने को सिर्फ़ जिन एण्ड टी का एक ग्लास लेती और पूरी शाम उसी पर गुज़ार देती. उसे लगता कि मम्मी तो ये बात कभी मान ही नहीं सकतीं कि विंस्टन ऐसे लोगों में उठता बैठता था.

ऐनी से अक्षता की दोस्ती पहले दिन से ही पक्की हो गई थी. अक्षता उसे छोटे मोटे उपहार देकर खुश जो रखती थी. तिस पर ऐनी को भारतीय खाना बड़ा पसन्द था. चाहे खुद के लिए कभी न पकाया हो पर ऐनी और विंस्टन के लिए अक्षता हफ़्ते में दो एक बार खाना पकाती, ‘क्विक इंडिअन फ़ूड इन मिनट्स’ नामक एक किताब उसे लंदन के एक बुक स्टोर में मिल गई थी और सुपर मार्केट से उसे सारे मसाले मिल गए थे.

पहले ही दिन ऐनी ने अक्षता को बता दिया था कि विंस्टन शादीशुदा था. मन ही मन अक्षता को बड़ा धक्का लगा था कि विंस्टन ने इस बात का उससे कभी ज़िक्र तक नहीं किया था. ऊपर से अपने को संयत करते हुए, वह झट बोल उठी थी कि उसे यह बात मालूम थी. कैसे कहती कि जिसे वह अपना ‘वेरी क्लोज़ फ़्रैंड’ बता रही थी, उसने उसे इतनी बड़ी बात तक नहीं बताई थी. जैसे कि अक्षता की आदत थी, उसने ऐनी की बात सुनकर भी अनसुनी कर दी थी जैसे उसका कोई महत्व ही न था. बजाय विंस्टन से दूरी रखती, वह उसके और नज़दीक आने का प्रयत्न करने लगी. जानते बूझते कुएँ में कूदने का जोखिम वह उठाने को तत्पर थी, अपने मम्मी पापा की उसे कोई परवाह न थी. उन्हें तो व्यथित करके मानो उसे शांति मिलती थी. ऐनी शुरु में हैरान और परेशान हुई पर फिर जल्दी ही उसने ये बात स्वीकार कर ली कि वे दोनों एक दूसरे को बहुत पसन्द करते थे.

यात्रा के खट्टे मीठे अनुभव अक्षता के कान की बारात में शामिल हो गए थे और दादी माँ की कहानी और दिलचस्प हो चली थी. ऐनी और विंस्टन की मित्रमंडली और उसके माँ और बाप की आवाजें शामिल हो गईं थीं अब सैंकड़ों उन आवाज़ों में जो अक्षता निकाल सकती थी. उसकी इस प्रतिभा से उसके सारे मित्र सम्मोहित थे. इम्तहान सिर पर थे और अक्षता पढाई की जगह मनोरंजन का केन्द्र बनी हुई थी. मित्र अपना मनोरंजन करते और फिर मन लगा कर पढ़ते भी थे किंतु अक्षता केवल मौज मस्ती में ही लगे रहना चाहती थी; मुर्गे सी, अपने विवाह की तैयारी में डूबी हुई पर यहाँ कौन आ पाएगा उसके विवाह पर? उसके सगे रिश्तेदारों के पास तो हवाई टिकेट ख़रीदने लायक धन भी नहीं है. बीमार दादी माँ तो बिल्कुल ही नहीं आ पाएंगी पर उसके मम्मी पापा तो ये मौका कभी नहीं छोड़ेंगे. उसके फुसफुसे दिमाग़ में एक बार भी ये नहीं आया कि विंस्टन विवाहित था और तलाक लिए बिना विवाह नहीं कर सकता था. अब तक ज़िन्दगी में उसे वो सब हासिल हुआ था जिसकी उसने ज़िद की, चाहे रो धो कर अथवा पैर पटक कर तो अब क्या मुश्किल हो सकती थी.

अपने फ़ैशनेबल और डिज़ाइनर जूते, पर्स और कपड़ों का प्रदर्शन करके उसने कालेज के छात्र छात्राओं में अपनी धाक वैसे ही जमा ली थी. विशेषत: विंस्टन के मित्रों को चुन चुन कर वह अपनी ओर मिलाने में लगी थी, मानो उसकी बेवफ़ाई का बदला लेना चाहती हो. जब कि अक्षता को लेकर विंस्टन के सीधे सादे दिमाग में कोई उलझन न थी, वह उसे वैसे ही पेश आता जैसे कि अपने अन्य मित्रों से. यही वजह थी कि अक्षता और अधिक व्यथित थी. जिस के लिए वह अपना घर और देश तक छोड़ आई, उसे कुछ खबर ही न थी. भारत में अक्षता ने उसे कितना घुमाया फिराया और उसकी कितनी खातिर की थी. जब से वह लन्दन आई, विंस्टन उसे एक बार भी कहीं घुमाने नहीं ले गया. दो एक बार जब सारे मित्र किसी भोजनालय में साथ जाते भी तो सब अपने अपने पैसे निकाल कर मेज़ पर रख देते थे, जिसे वे ‘लेट अस गो डच’ कहते थे. अक्षता को बडा अचम्भा होता, विशेषतः जब पति पत्नी भी अपने अपने पैसे अलग अलग देते. बारी बारी सब दें तो बुरा तो न लगे. पश्चिमी सभ्यता को अपनाने को राज़ी अक्षता को कई बातें बड़ी अजीब लगतीं. ऐनी की एक और प्रिय सहेली थी मारिया जिसके दो बच्चे हो गए थे पर अभी तक वह अपने प्रेमी से शादी नहीं कर पा रही थी. ऐसे ही कितने जोड़े अपने बच्चों के साथ होस्टल में रह रहे थे.
पश्चिमी संगीत भी अक्षता को कभी नहीं समझ आया. वह विंस्टन और ऐनी के साथ पौप म्युज़िक सुनने तो चली जाती थी, उनके साथ अपने दोनों हाथ ऊँचे कर कर के उन्हें दिखाती भी थी कि उसे आनन्द आ रहा है, जबकि उसका सिर फ़टने को हो रहा होता था. कुछ मशहूर गायक तो ऐसी भौंडी आवाज़ में गाते थे कि उसे लगता कि कहे कि ‘भैया ज़रा, गला ही खंखार लो’. औरतों की आवाज़ में गाने वाले गायक और भी मशहूर थे. दादी सुनती तो कह उठतीं, ‘मरे हीजड़े सी आवाज़, मर्द हो तो मर्द की आवाज़ में गाओ.’ अक्षता की मीठी आवाज़ का यहाँ शायद कोई ग्राहक न था. दादी के आग्रह पर उसने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेनी शुरु की थी जिसे वह चाहते हुए भी पूरी न कर पाई. “कितना भी पढ़ लिख जाओ गुड़िया रानी, गाना बजाना तो सीखना ही होगा, नहीं तो कौन करेगा तुमसे शादी?”
खैर, दादी माँ की अनुपस्थिति में भी हर रात अक्षता मुर्गे की कहानी खुद ब खुद कहती सुनती.

‘दरबार मे पहुँचकर बने ठने मुर्गे ने सीना ठोक कर राजा से राजकुमारी का हाथ माँगा. उसके क़ान मे बैठी आशंकित भीड़ सांस रोके बैठी थी. राजा के क्रोध का ठिकाना न था. उसने अपने सेनापति को आदेश दिया कि मुर्गे को आग में भून कर पेश किया जाए. मुर्गे को वह तन्दूर में झोंकने ही जा रहा था कि उसके कान से नदी निकली और तन्दूर तो क्या, उसने राजा के महल को ही पानी में डुबो दिया. मुर्गे को हाथी के पाँव तले कुचलने का कुचक्र भी उल्टा पड़ा क्यूंकि मुर्गे के कान से निकल कर चींटियों ने राजा के हाथियों पर हमला बोल दिया और ऐसी भगदड़ मची कि राजा के कई सिपाही मारे गए. राजा और उसके सेनापति ने क्या क्या न यत्न किये पर हट्टा कट्टा मुर्गा अपनी बारात सहित डिगाए न डिगा. राज्य में त्राहि त्राहि मच गई. राजा को हार माननी ही पड़ी. उसने अपनी इकलौती पुत्री का विवाह मुर्गे से कर दिया.’ मुर्गे के विवाह के रस्मो रिवाज़ दादी बड़े खुलासे के साथ बतातीं हालाँकि अक्षता को तो केवल बन्ना बन्नी सुनने का ही शौक था. कभी बन्ने के यहाँ लगन की रस्म हो रही है, ‘लगुन आई हरे हरे, लगुन आई मेरे अँगना, रघुनन्दन फूले न समाए’, तो उधर बन्नो के यहाँ भात चढ़ रही है, ‘मेरा छोटा सा भैया भात लेके आया ज़रा देखना,’ तो उधर बन्ने को सेहरा पहनाया जा रहा है, ‘इतर में डूब रही एक लड़ी सेहरे की. महफ़िल में जाके कह दो बन्ने के जीजाजी से, दोनों हाथों से उठा लाएं लड़ी सेहरे की.’ दादी दोनों अखाड़ों में व्यस्त रहतीं. इधर दूल्हे की भाभी को काजल अँजाई की याद दिलवातीं तो उधर बहनों को याद दिलातीं कि घोड़े को दाना खिलाने की एवज में सोने की बालियों से कम पर राज़ी न हों. उनके चेहरे की रौनक से लगता कि जैसे सचमुच किसी की शादी हो रही हो.

खैर, कहानी का अंत दादी हमेशा इस बात से करतीं कि राजा ने मुर्गे को घर जवाँई बनाने की पूरी पूरी कोशिश की किंतु मुर्गा आधा राजपाट लेकर भी घर जवाँई बनने को राज़ी नहीं हुआ. अक्षता को पूरा विश्वास था कि कहानी के अंत से घरजवाँई वाले किस्से का कोई सरोकार न था. यह कहानी दादी की अपनी जोड़ी हुई थी. दादी माँ अपने बेटे से नाराज़ थीं कि वह अपना अच्छा भला घर छोड़ कर बहू के घर आ बसा था. ऐसा तो उन्होंने जीवन में कभी न सोचा था. बहू के आगे उनकी एक न चली थी. दादी का और कौन था जो अपने इकलौते बेटे को छोड देतीं. उन्हें सीढियों के बीच बने एक छोटे से कमरे में जगह दे दी गई, जिसे वह मियानी कहती थीं. जहाँ से उन्हें सिर्फ़ ये सुनाई देता था कि बहु बेटा सुबह कब घर से निकले और रात गए कब घर लौटे. सप्ताहांत पर वे किट्टी पार्टीज़, रोटेरी क्लब और न जाने कितने क्लबों में व्यस्त रहते. होली दीवाली के अवसर पर ज़रूर मिलना होता था. अक्षता की जिज्ञासा और दादी की हठ की वजह से सारे त्योहार मनाए जाते थे. वे दोनों इतनी उत्साहित रहतीं कि कई दिन पहले से शोर मचाना शुरु कर देतीं ताकि पापा या मम्मी कहीं भूल न जाएँ. दादी की मानो मन की मुराद पूरी हो जाती इन त्योहारों पर कि कम से कम पूरा परिवार तो इकट्ठा उठता बैठता. ठीक से पूजा पाठ होता, पकवान् बनते, दादी और पोती आस पड़ोस में मिठाई बाँटती फिरतीं. नहीं तो वो और उनकी मियानी. इस पौश इलाके में कोई मिलता जुलता भी तो नहीं था कि किसी को बुला लो या कहीं चले ही जाओ.

अक्षता को लेकर वह कभी कभी हुमायूँ पार्क तक हो आती थीं. मकबरे की सीढियों पर पाँव लटकाए, वे दोनो घंटों अंताक्षरी खेलतीं. अक्षता के नए अटपटे गाने जब उन्हें समझ नहीं आते तो बच्चों की तरह उससे लड़तीं कि भला ये भी कोई गाना हुआ और अक्षता उनसे भिड़ जाती जब कोई बहुत पुराना गाना उसका न सुना हुआ होता. कभी कभी वे घंटों चुपचाप बैठी रहतीं, अपने अपने सपनों में खोई, जब तक कि चाय का समय न हो जाता जो बहुत महत्वपूर्ण था. तुलसी, सौंफ़, अदरक और इलाइची की चाय के साथ, भुनी हुई मुँगफली के दाने, चूरमे के लड्डू, पकौड़ियाँ या कभी कभी खीरे के सैंडविच, जिसका लोभ वह बिल्कुल संवरण नहीं कर पातीं थीं.

यहाँ तो सुबह शाम, वही कार्नफ्लैक्स, डबलरोटी पर भारत का स्वादिष्ट मक्खन भी नहीं, मार्जरीन जैसी चिकनाई, आलू, सलाद के पत्ते और ज़्यादा से ज़्यादा टमाटर. अक्षता को ये समझ नहीं आता कि कैसे ये लोग अपना जीवन इन बेस्वाद खाने पर गुज़ार सकते थे. ऐनी और विंस्टन को भी लगता था कि खाने का न समय था न शौक किंतु जब अक्षता पकाती तो कैसे गप्प गप्प खाते थे दोनों.

विंस्टन का कैथी से विवाह उसकी माँ के आग्रह पर हुआ था जब कि वह पूरी तरह से वयस्क भी नहीं हुआ था. अक्षता का विचार था कि यह विवाह कोई मायने नहीं रखता था, विशेषतः तब जब कि वे इकट्ठे रह भी नहीं रहे थे. ऐनी का भी यही विचार था. जो भी हो, अपने और विंस्टन के भविष्य के विषय में अक्षता मन ही मन योजनाएँ बनाती, जानते हुए कि विंस्टन की खूसट माँ नैंसी इस बेमेल विवाह के लिए कभी भी राज़ी नहीं होगी. अक्खड और घमंडी नैंसी के किस्से वह ऐनी से सुनती आई है. ऐनी को अपनी नैंसी मौसी से ज़रूर कोई जन्म का बैर था. विंस्टन के विवाह पर भी सुना है कि ऐनी ने मौसी का खूब डटकर विरोध किया था किंतु दब्बू विंस्टन माँ का लाड़ला बेटा था. फिर गोरों की कूटनीति से अक्षता कभी टक्कर नहीं ले पाएगी, न वह और न ही उसके नए मित्र, जो अब उसकी कान की बारात में शामिल हो गए थे.

ऐनी का कहना था कि बेकार की बातें सोचने की अपेक्षा अक्षता को असल मुद्दे पर केंद्रित होकर वार करना चाहिए. ऐनी के काम करने के तरीके बड़े सुव्यवस्थित हैं. अक्षता ने कहीं पढ़ा था कि सारी गोरी जात की ही ये विशषता है – जज़्बात को अलग रख कर विषयनिष्ठ होकर काम करना, जो अक्षता के लिए सम्भव नहीं था, वह भावुक हो उठती है. कभी विंस्टन की माँ नैंसी के प्रति तो कभी विंस्टन की पत्नी कैथी के प्रति. ऐनी चाहती थी कि विंस्टन को अक्षता से विवाह कर लेना चाहिए. कैथी के प्रति उसे कोई सहानुभूति नहीं थी.

अक्षता की कहानी का अंत चौथाई राजपाट से भी सम्भव न था. नैंसी घाघ थी पर अक्षता भी कोई छोटा मोटा भारतीय राजा नहीं जिसे वह छोटी सी धमकी या घूस से पटा लें. विशेषतः जब उनका एक महत्वपूर्ण मोहरा यानि कि ऐनी, अक्षता की धरोहर था. यूँ तो विंस्टन अक्षता पर जी जान से फिदा था किंतु अपनी माँ के सामने उसकी सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती थी. एक बड़ा मसला था उस हवेलीनुमा महल का. कहीं नैंसी विंस्टन को जायदाद से बेदख़ल न कर दे. वैसे धन और दौलत की परवाह विंस्टन को ऐसी नहीं थी जितनी कि सम्बंधों की. जो भी हो, माँ की वह बहुत इज़्ज़त करता था. कैथी से उसके सम्बंध बड़े औपचारिक थे; जब भी मिलना होता, गाल पे एक छोटा सा चुम्बन भर जितने.

ऐनी की आड़ में विंस्टन अक्षता के सम्बंध परवान चढ़े तो चढ़ते ही चले गए. विंस्टन के जन्मदिन की पार्टी में, ऐनी के साथ साथ अक्षता ने भी खूब वोडका और जिन ऐण्ड टी का पान किया. उसे समझ नहीं आया कि जब जन्मदिन विंस्टन का था और उसने ही सबको आने का न्योता दिया था तो क्यों सब अपने अपने पैसों से पी रहे थे. उसने सोचा कि यहाँ पार्टी करना कितना आसान था. खैर, सुबह के चार बजे रहे थे जब क्लब बन्द हुआ और वह ऐनी, मारिआ और विंस्टन के साथ घर पहुँची. ऐनी और मारिया इकट्ठे सो गईं. चाहती तो अक्षता विंस्टन का बिस्तर सोफ़े पर लगा सकती थी किंतु उस रात न वह ख़ुद को रोक पाई और न ही उसने विंस्टन को ही निरुत्साहित किया. उस रात उसे लगा जैसे कि वह ब्रिटिश संस्कृति में पूरी तरह ढल गई हो. उसने सोचा कि वह क्यों रोके ख़ुद को और अपने जज़्बातों को जबकि उसके चारों ओर युवक युवतियाँ मज़े कर रहे थे. वह अब वयस्क थी.

बी.एस.सी का यह अंतिम वर्ष था. इम्तहान पास करने की चेष्टा करने की जगह, अक्षता और ऐनी का लक्ष्य नैंसी को पछाड़ना बन गया था. कभी कभी अक्षता को लगता कि विंस्टन दादी की कहानी के नायक उस मुर्गे जैसा है जो सबकी बस हाँ में हाँ मिलाता रहता है. जब ख़तरा सामने आएगा तो वह निष्क्रिय हो जाएगा और माँ अथवा ऐनी या उसके मित्र उसे परिस्थिति से उबार लेंगे. वह अब भी नहीं जानता था कि माँ और अक्षता का मामला कैसे सुलझाए. न वह माँ से टक्कर लेने को तैयार था और न ही उससे अक्षता को छोड़ते बनता था. अब वह ऐनी पर आधारित था.
ऐनी के उकसाने पर नैंसी ने अक्षता को क्रिसमस मनाने डैवन आने की दावत दी. वह भी अक्षता को करीब से देखना चाहतीं थीं. जब से विंस्टन भारत से आया था, अक्षता का नाम उसकी ज़ुबान पर चढ़ा हुआ था. हर फ़ोटो में मुस्कुराती अक्षता का चेहरा उनको ख़तरे का आभास देता रहा था. पहले हर सप्ताहांत पर वह डैवन में धरा रहता था पर जब से अक्षता लन्दन आई थी, उसका माँ के पास आना जाना भी कम हो गया था. ऐनी के मन की थाह लेना भी आवश्यक था क्यूंकि विंस्टन पर ऐनी का काफ़ी दबदबा था.

डैवन बड़ा खुला इलाका है, जहाँ बादल, बारिश और हवा का साम्राज्य है. इतनी ठंड अक्षता को अपने पूरे जीवन मे कभी नहीं लगी. मानो वह हवेली एक ठंडा शमशान हो और उसके वासी चलती फिरती लाशे, ठंडे, स्पन्दनहीन. उसे अपने मम्मी पापा की बहुत याद आई, खासतौर पर अपनी दादी माँ की गोद की. एक यंत्रचलित ठंडी मुस्कान के अलावा मेहमानों के पास देने को कुछ नहीं था. अक्षता सबके लिए उपहार लाई थी पर उसे नहीं लगा कि फूलों और शराब की बोतलों के अलावा कोई कुछ लेकर आया था.

अक्षता को लगा कि क्यूगार्डन के बीचों बीच जो एक छोटा सा महल है, कुछ कुछ वैसा ही था ये महल. दिल्ली में उसका अपना घर ही इस से कहीं बड़ा होगा. इस महल के फ़र्श बड़े और भारी चौकोर पत्थरों से बने थे. सारे अतिथि फ़र्श की तारीफ़े करते नहीं अघा रहे थे. अगर ये अक्षता के सफेद संगमरमर के फ़र्श देख लें तो बेहोश ही हो जाएं. ऊँची छ्तों वाले दो बड़े हालनुमा कमरों मे टँगे वृहत रूपचित्र लगता हर आने जाने वाले पर नज़र रख रहे हों. किसी चीज़ को छूना तो दूर, उसे गौर से देखना भी गुनाह लग रहा था. रात को डर के मारे वह बाथरूम तक नहीं जा पाई, पहली मंज़िल का फ़र्श और कमरे सब लकड़ी के बने थे. कदम भी रखो तो चूँ चरर चूँ चरर की आवाज़ सारे मेहमानों को जगा दे, विशेषतः रात के सन्नाटे में. उस पर अक्षता को याद नहीं रहा कि बाथरूम का दरवाज़ा कौन सा था. सुबह सुबह नींद लगी ही थी कि चिड़ियों की चीं चीं के शोर ने अक्षता की नींद हराम कर दी. उसके कानों की बारात रात से ही आपस में टकरा रही थी. उसे लगा कि बस लंदन वापिस चली जाए.

ऐनी की दाहिनी आँख मे गुहाजिनी निकल आई थी, वह काला चश्मा लगाए अपने कमरे में बन्द हो गई थी. नैंसी की कड़ी निगरानी की वजह से विंस्टन भी अक्षता से मेहमानों की तरह पेश आ रहा था. कितनी अकेली महसूस कर रही थी वह इस समय, ‘हेलो हाऊ आर यू’ के अलावा किसी से कोई बात नहीं हो पा रही थी. लगता ही नहीं था कि ये सब अतिथि मित्र और सम्बंधी थे. इतनी औपचारिकता! नैंसी अपने पति को ‘मिस्टर बेकर’ कहकर सम्बोधित कर रही थी और विंस्टन अपनी माँ को ‘मैडम’!

अक्षता ने दादी माँ का मंत्र डोहरा कर काला धागा ऐनी के बाये पांव के अंगूठे पर बाँध दिया. शायद ऐनी को भी उसी स्नेह और अपनेपन की आवश्यकता थी जो अक्षता को दादी माँ से मिला था. वही बातें जिसका अक्षता मज़ाक उड़ाती आई थी, उसने अनजाने मे अपना ली थीं. विंस्टन हैरान था और उसके माँ बाप स्तम्भित; पर काले धागे से चैन मिला था ऐनी को, हालांकि विंस्टन के चाचा कहे बिना नहीं रह सके थे, “यू वांट मी टू बिलीव इन दिस मम्बो जम्बो!"
लाख छिपाने के बावजूद, नैंसी ने उनके अप्रत्यक्ष सम्बंधों को भाँप लिया था. ये नहीं कि अक्षता ने नैंसी से संवाद स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया किंतु वह अक्षता को अपमान की सीमा तक नज़रअन्दाज़ कर रहीं थीं. कैथी से भी बात करना दीवार से सिर मारना था क्योंकि वह किसी बात का जवाब तक नहीं दे पा रही थी. उसकी बीमारी के विषय में बात करना निषिद्ध था. ऐनी ने बताया थी कि कैथी को दौरे पड़ते थे और उन दौरों पर अंकुश रखने के लिये जो दवाइयाँ उसे दी जाती थी, उनसे वह कभी फूल के कुप्पा हो जाती तो कभी सिकुड़ कर तोरी. ऐनी का विचार था कि विंस्टन की उपस्थिति कैथी को परेशान करती थी पर नैंसी का कहना था कि इसका कारण था विंस्टन की उपेक्षा. जो भी हो पर कैथी को छोडने का अर्थ था उस शानदार हवेली से विदा जो उसे कैथी के मुआवज़े मे मिली थी. ख़ैर, कैथी इतनी सीधी सादी और छुईमुई सी युवती थी, जिसके मन में कोई मैल न था. उससे घृणा करना तो क्या उसके लिए मन में बुराई लाना भी अक्षता को पाप सा लग रहा था.

क्रिस्मस के पारंपरिक दोपहर के खाने में हिरण का गोश्त, सौसेजस, ब्रस्सल्स स्प्राऊटरस, आलू, सेम, गाजर आदि उबली तरकारियाँ परोसी गईं. सब कुछ नपा तुला. जैसे ही अक्षता ने हिरण का गोश्त लेने से मना किया, विंस्टन और मिस्टर बेकर ने नैंसी की डपटती आँखों के सामने उसकी प्लेट में रखे गोश्त और सासेजस झपट लिए. बाकी के मेहमानों की आँखों से भी छलक रहा था कि काश उसका छोड़ा भोजन उनके हिस्से में आया होता. अपने अपने नैपकिंस से होंठों को छू छूकर, काँटे और चम्मच से खाना खा रहे थे बड़े एहतियात से मेहमान, जो अक्षता के लिये बड़ा औपचारिक था.

शराब पीते, खाना खाते और बातें करते चार बजने को आए. मिस्टर बेकर को ज़बरदस्ती फादर क्रिसमस बनने को बाध्य किया गया. लाल रंग का ढीला ढाला चोगा, लम्बी लाल टोपी और सफैद दाढी मूंछे लगाए वह उपहार बांटने लगे. उनके अपने तो थोड़े से ही उपहार थे जो जल्दी ही निपट गए पर अक्षता के उपहार थे कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे. विंस्टन और ऐनी के लिये उसने चार चार उपहार लिए थे जबकि उन दोनों ने मिलकर उसके लिए एक ही उपहार ख़रीदा था, मफ़लर और दस्ताने. नैन्सी और मिस्टर बेकर के लिये वह भारत से महँगे उपहार लाई थी जो उन्हें बहुत अच्छे लगे. सबकी आँखे फटी फटी की रह गई. अक्षता को अब लगा कि सचमुच कुछ ज़्यादा ही हो गया था.

भोजन के बाद जब सब मदिरापान कर रहे थे, विंस्टन ने मुर्गे की कहानी से अतिथिओं का मनोरंजन करना चाहा. जहाँ कुछ मेहमानों ने दबी ज़ुबान में मज़ाक उड़ाया, वहीं कुछ को कहानी अच्छी लगी. नैंसी के विशलेषण से अक्षता भी प्रभावित लग रही थी. उन्होंने कहा कि जहाँ एक ओर प्रकृति, मानव सम्बन्धों और पशु पक्षियों के विषय में विस्तृत जानकारी बच्चों को खेल खेल में दे दी गई, वहीं उन्हें कर्मठता, सह्रदयता और साहस जैसे गुणों का महत्व भी समझा दिया गया. उन्होंने यह भी कहा कि अक्षता को इस कहानी को अवश्य किसी पत्रिका में छपवाना चाहिए. न जाने ये उपहारों का कमाल था या सचमुच ही उन्हें कहानी अच्छी लगी थी कि वह अक्षता से खुल कर बातचीत करने लगीं थीं और अन्य लोग भी कुछ गर्माये से लग रहे थे, शायद शराब का असर हो.

ऐनी और अक्षता करीब सात बजे वापिस होस्टल पहुँचे और उन्होंने आते ही जम के सोने की सोची. यकायक अक्षता की तबियत खराब होने लगी, उसके पेट मे भयंकर दर्द उठा. पहले तो उसने सोचा कि अटपटा खाने पीने से हुआ होगा पर जब नहीं रहा गया तो ऐनी उसे सैंट्रल मिडलसैक्स अस्पताल ले गई. डाक्टर का निदान था कि अक्षता गर्भ से थी.

अक्षता को जीवन में पहली बार उलझन का सामना करना पड़ा था कि वह कैसे ये बात मम्मी पापा को या दादी को बता पाएगी. भारत में होती तो शायद उसे भला बुरा करार दिया जाता और मम्मी पापा उसका गर्भपात करवाने की सोचते. वह खुश थी कि वह भारत में नहीं थी हालाँकि उसे कोई भय न था कि मम्मी पापा क्या कहेंगे, न ही उसे कालेज के मित्रों की परवाह ही थी. पर फिर भी वह बस खुद में सिमट सी गई थी.

अक्षता से अधिक परेशान थी ऐनी, न जाने क्यूँ? उसने सोचा कि अक्षता अत्यधिक असमंजस में थी और इसी लिए विचार विमर्श नहीं कर पा रही थी. जाने गर्भपात की न सोच रही हो. ऐनी ने विंस्टन को अपराध भावना से ग्रसित करके ही छोड़ा. वैसे भी पिता बनने की सूचना ने उसे झकझोर के रख दिया था. वह अधिकतर समय उन दोनों के साथ ही बिताने लगा था. अक्षता के पास से वह तब तक नहीं हिलता जब तक कि वह दस बार नहीं कहती कि वह बिल्कुल ठीक है. उसे लगता कि कहीं उसकी गैरहाज़िरी में वह कुछ उल्टा पल्टा न कर बैठे. अक्षता तो हैरान थी कि जिसे पाने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार थी, वह उसकी झोली में पके आम सा आ गिरा था.

नैंसी को जब पता लगा तो वह खूब भन्नाई. जब ज़ायदाद से बेदखल करने की धमकी भी काम न आई तो वह भन्ना के विंस्टन से बोली थी कि ‘दिस प्रैगनैंसी हैज़ बीन स्टेज्ड टु गैट यू माइ ब्वौय.’ विंस्टन गुस्से में पाँव पटकता घर छोड़ कर आ गया था और आते ही उसने कैथी से तलाक के लिये अर्ज़ी भी दे दी. अब माँ की भी उसे कोई परवाह न थी और न ही ज़ायदाद की. नैंसी के पास कोई और चारा न था या कहिए कि यह उनकी ढलती उम्र का तकाज़ा था. बुनियादी तौर पर वह जानती थी कि कैथी से तो वंश चलने से रहा.

अक्षता के कान में बैठी बारात अभी बन्ने बन्नी ही गा रही थी कि यकायक जच्चा बच्चा के गीत ढूँढे जाने लगे. दादी माँ की कहानी तो विवाहोपरांत ही खत्म हो जाती थी. बच्चों तक तो वह कभी पहुँचती ही नहीं थी. लगा जैसे कि अक्षता का खज़ाना खाली हो गया हो. उसे एक भी जच्चा याद न थी सिवा दिल्ली के हीजड़ों द्वारा गाया जाने वाला वह गीत जो बच्चा होने पर वे घरों में जाकर भद्दी आवाज़ और तालियों के साथ गाते थे, ‘काले काले बाल लला के, घूंघर वाले बाल लला के.’ ख़ैर, उसके कानों का शोर संगीत में बदलने लगा था और उसे याद आया अपनी मम्मी का प्रिय भजन, जो वह कभी कभी गुनगुनाया करतीं थीं, ‘ठुमक चलत राम चन्द्र बाजत पैंजनियाँ.’ वह कैसे भूल गई अपनी माँ की गाई लोरियाँ जो वह उसे बचपन में सुनाया करती थीं? क्यों वह इतना दूर हो गई अपनी माँ से? क्या दादी की वजह से, जिन्हें मम्मी बिल्कुल पसन्द नहीं थीं. जब समझने लायक हुई तो अक्षता ने भी मन ही मन दादी पर हुई ज़्यादती का ज़िम्मेदार उन्हें ही ठहरा दिया. आज पहली बार उसे महसूस हुआ कि शायद बेटे पर बस न चलते देख दादी ने बहू को दोषी मान कर तसल्ली कर ली हो. खैर, मम्मी पापा को भी समाचार दे दिया गया था. खुश होने के बजाय वे कर भी क्या सकते थे; दादी माँ का क्या हश्र हुआ, भगवान ही जाने! मम्मी पापा ने शायद उन्हें ये बात बताई ही न हो.

* * * *

नैंसी आई थी अपना जातिसूचक ‘स्टिफ़ अप्पर लिप’ लिये किंतु पालने मे झूल रहे नील ने उन पर न जाने क्या जादू किया कि वह बोली, ‘अरे ये तो बिल्कुल विंस्टन जैसा दिखता है. देखो, मिस्टर बेकर, है न?’ वे ऐसी निहाल हुईं कि उनको वहाँ से हटाना किसी के वश में न था. अगले दिन वह कैथी को भी लेकर आई थीं. अक्षता से अनुमति ले ली थी उन्होंने. कैथी के चेहरे पर फैली विशुद्ध और प्यारी सी मुस्कुराहट अक्षता को अपराध भावना से ज्यूँ मुक्त कर गई.
नील के घुँघराले बालों में अक्षता की उंगलियाँ दादी माँ सी फिरने लगीं. टुकुर टुकुर वह अपनी सलोनी माँ को देख रहा था जो उसे उसकी पड़दादी की कहानी सुना रही थी, ‘एक था मुर्गा...’

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17 टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छी लगी यह कहानी। प्रवासी साहित्य जैसा शब्द मुझे हमेशा से अटपटा लगता था चूंकि परिवेश बदल जाने से भी लेखक का मन और प्रवृत्ति प्रकृति नहीं बदलती। मुर्गे का बिम्ब और कहानी की नायिका की पीडा के परोक्ष में बुना गया कथानक स-शक्त है।

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  2. थोडी लम्बी पर एक अच्छी कहानी के लिये बधाई

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  3. DIVYA JEE,MURGE KAA ROOPAK AAPNE
    KHOOB NIBHAAYAA HAI.KAHANI SHURU SE
    LEKAR AAKHIR TAK MAN KO BAANDHE
    RAKHTEE HAI.BADHAAEE.

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  4. एक अच्छी कहानी के लिये....
    बधाई

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  5. अंधे स्वार्थों की दौड़ में पिछड़ते हमारे बुजुर्ग और प्राचीन परंपरायें, स्नेह के आभास को तरसते बच्चे, सामाजिक परिवेशों का टकराव सभी कुछ बड़ी सहजता से कथानक में पिरोया गया है. बहुत अच्छी कहानी!
    साहित्य शिल्पी पर दिव्या माथुर जी का स्वागत है!

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  6. अच्छी कहानी है दिव्या जी! इस मंच से आपको पढ़कर अच्छा लगा.

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  7. अंतरजाल के माध्यम के लिहाज़ से कहानी कुछ लंबी ज़रूर थी, पर कुल मिलाकर इसे पढ़ना अच्छी लगा.
    दिव्या माथुर जी का स्वागत है!

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  8. सुंदर कथा है. पढ़वाने का आभार!

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  9. मुर्गे के उपमान को अच्छी तरह कहानी में आपनें प्रयोग में लाया है। टूटते सामाजित तानेबाने और टूटती वर्जनायें भी साफ समझी जा सकती है।

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  10. कहानी लम्बी अवश्य है लेकिन शिल्प कसा हुआ है। पढने में अरुचिकर कहीं नहीं लगती। बहुत बधाई दिव्या जी। साहित्य शिल्पी पर आपका स्वागत है।

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  11. दिव्या जी आपकी कहानी कथानक और शिल्प दोनों ही पक्षों में अच्छी है। आपको इस मंच पर निरंतर पढने की इच्छा है। नव वर्ष की बधाई स्वीकार करें।

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  12. शिल्पा जी को उनकी इस भावनात्मक कहानी के लिए बहुत-बहुत बधाई....

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  13. पुरातन को नूतन के साथ भावनात्मक रूप से बाँधा है आपने.. बधाई

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  14. संवेदन शील कहानी है। अच्छा लगा इसे पढना।

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  15. bahut hi acchi aur sanvedansheel kahani ..

    bahut bahut badhai ..

    aapka
    vijay
    http://poemsofvijay.blogspot.com/

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