
सहायक क्रिया का प्रयोग
उन्नीस सौ सत्तावन या अट्ठावन की बात है कि हिंदी के प्रसिद्ध गीतकार और ग़ज़लकार स्वगीर्य शंभुनाथ 'शेष' से मिलने का सौभाग्य मुझको उनके जालंधर के माडल टाउन के निवास स्थान पर प्राप्त हुआ था। 'सुवेला' नामक चर्चित कविता संग्रह के रचयिता थे वह। सहजता उनका बड़ा गुण था। सामनेवाले की बात का मान करते थे वह।
ग़ज़ल की बात चली तो मैंने अनुरोध भरे स्वर में उनसे पूछा, "शेष जी, ये जो उर्दू के शायर 'नहीं' के साथ 'है' या 'था' के इस्तेमाल की ज़रूरत नहीं समझते हैं और हिंदी के कवियों पर भी दोष लगाया जाता है कि सहायक क्रिया को अपनी काव्य-पंक्तियों में खा जाते है, आपकी राय में क्या यह ठीक है? अपने स्वभाव के अनुरूप वह बड़ी नम्रता से बोले - 'यूँ तो उर्दू और हिंदी में लिपि को छोड़ कर कोई विशेष अंतर नहीं है फिर भी हर ज़बान में कोई न कोई अपनी खूबी या कमी होती है। 'नहीं' के साथ 'है' या 'था' के इस्तेमाल की ज़रूरत अब तो हिंदी के कवि भी नहीं समझते हैं। वे भी वैसा ही लिखने लगे हैं। जहाँ तक काव्य-पंक्तियों में सहायक क्रिया 'है' या 'था' को खा जाने की बात है, मेरे विचार में 'अगर आप चलते तो हर कोई चलता' जैसे वाक्य के आधार पर ऐसा हुआ है। यह कोई बड़ी भूल नहीं है।"
'सुना है कि आपके प्रिय कवि निराला जी हैं। आपको उनकी कोई ग़ज़ल याद हो तो कृपया सुनाएं।'
'ज़बानी तो याद नहीं, हाँ, कापी से पढ़कर सुना सकता हूँ। महाकवि निराला भी ग़ज़ल की राह पर चले थे। पर कुछ एक ग़ज़लें लिखकर उन्होंने इस विधा से किनारा कर लिया। उनकी एक ग़ज़ल है-
साहस कभी न छोड़ा आगे कदम बढ़ाए
पट्टी पढ़ी कब उनकी झाँसे में हम कब आए
पानी पड़ा समय पर पल्लव नवीन लहरे
मौसम में पेड़ जितने फूले नहीं समाए
कलरव भरे खगों के आवास नीड़ सोहे
मन साधिकार मोहे कितने वितान छाए
जिनसे फला हुआ है वो बाग कौम का हम
हमसे मिले हुए वे आए, बसे, बसाए
जो झुरिर्यां पड़ी थी गालों पे आफ़तों की
उनको मिटा दिया है, हमने अधर हँसाए
'शेष' जी से बिदा लेने के बाद भी उनकी ग़ज़ल की मोहक प्रस्तुति मन-मस्तिष्क में देर तक अंकित रही।
उन्हीं दिनों में पंडित मेलाराम 'वफ़ा' से मिलना मेरे भाग्य में लिखा था। उर्दू शायरी में उनके और जोश मलिसिआनी के नामों की तूती बोलती थी। सैकड़ों शायर उन दोनों के शागिर्द थे। 'वफ़ा' जी से मिलने की मेरी आकांक्षा कई वर्षों से थी। इसलिए पहली बार जब मैं उनसे मिला तब भावावेश में मैंने उनके दो अशआर-
बड़ा बेदादगर वो माहजबीं है
मगर इतना नहीं जितना हसीं है
लिफ़ाफ़े में पुरज़े मेरे ख़त के हैं
मेरे ख़त का आखिर जवाब आ गया
सुना डाले। अशआर सुनकर उनकी मंद-मंद मुस्कान की खुशबू कमरे के कोने-कोने में फैल गई। उनकी आत्मीयता को देखकर मैंने उनसे भी वही प्रश्न किया जो कुछ दिन पहले 'शेष' जी से किया था। हैरत हुई जब उन्होंने भी वही उत्तर दिया था। उनसे मैं कई बार मिला, कुछ न कुछ सीखा ही मैंने। उस्ताद शायर थे वह। शायरी में वह जीते थे, गोया शायरी ही उनकी जिंदगी थी। वह ग़ज़ल में क्रिया के सही रूप और प्रयोग पर भी ज़ोर दिया करते थे। उनकी धारणा थी कि उसके ग़लत रूप और प्रयोग से काव्य का प्रभाव क्षीण हो जाता है।
क्रिया के प्रयोग में काल का ध्यान
ग़ज़ल में क्रिया के प्रयोग की सबसे बड़ी भूल है; उसके शेर के दोनों मिसरों को एक काल में न लिखना। क्रिया के प्रति ग़ज़लकार की उदासीनता सराहनीय नहीं है। एक मिसरा वतर्मानकालिक क्रिया में और दूसरा मिसरा भूतकालिक या भविष्य कालिक क्रिया में लिखना ग़लत है। शेर में दो भिन्न कालों की क्रियाओं का प्रयोग करना ग़ज़लकार की अज्ञानता और अपरिपक्वता का द्योतक है। मसलन, उर्दू के एक अज्ञात शायर का शेर है-
न जाने लगी आग वो थी कहाँ से
धुआँ उठ रहा है मेरे आशियाँ से
शायद शायर कहना चाहता था-
न जाने लगी आग है ये कहाँ से
धुआँ उठ रहा है मेरे आशियाँ से
हिंदी के शेरों में भी दो भिन्न कालों की क्रियाओं के (गलत) प्रयोग हैं। हस्ती-मल-हस्ती का शेर है -
जब कली, शाख, पत्ते सभी हँसते हों
वो मौसम लगा बस सुहाना मुझे
उपयुक्त शेर के दोनों मिसरे अलग-अलग काल का बोध कराते हैं। शेर का विषय दो भिन्न-भिन्न काल क्रियाओं में उलझकर रह गया है। वह एक क्रिया में लिखा जाता तो पढ़ने में अच्छा लगता। मसलन-
जब कली, शाख, पत्ते सभी हँसते हैं
वो ही मौसम है लगता सुहाना मुझे
ज़हीर कुरैशी का शेर भी इसी दोष का शिकार है-
हम आत्मा से मिलने को आतुर रहें मगर
बाधा बने हुए हैं ये रिश्ते शरीर के
क्रिया में एक काल के रूप का अभाव है। शेर यूँ होता तो प्रभावी था-
हम आत्मा से मिलने को व्याकुल रहे बड़े
बाधा बने मगर सभी रिश्ते शरीर के
भवानी शंकर का शेर है-
हाड़ सूखे, खेत बंजर और ये जलता मकान
देखना है, चुप रहेगा और कब तक आसमान
चूँकि शेर की दूसरी पंक्ति का मुख्यांश 'चुप रहेगा' और 'कब तक आसमान' भविष्यतकाल को दर्शाता है इसलिए 'देखना है' का प्रयोग अखरता है। 'देखेगें' का प्रयोग सही होता। लगभग आठ दशक पहले लिखा गया उस्ताद शायर पं. रामप्रसाद ’बिस्मिल’ के शेर में ’देखना है’ का प्रयोग कितना सटीक है -
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में है
बालस्वरूप 'राही' के दोनों शेरों में भी क्रिया की भिन्नता देखी जा सकती है -
मिल गया भीख में भूखे को निवाला लेकिन
उसपे चीलों की शुरू से ही नज़र है यारो
तब से हर शख्स की कोशिश है उसे दूर रखें
जब से यह बात चली उसमें हुनर है यारो
क्रियाओं में एकरूपता न होने से शेर शिथिल हैं। पहले शेर के मिसरे में 'है' के स्थान पर 'थी' और दूसरे शेर के दूसरे मिसरे में 'चली' शब्द के साथ 'थी' की अपेक्षा थी।
18 टिप्पणियाँ
आपका क्रिया को ले कर लेख इतना स्पष्ट है कि इसमें प्रश्न की कम ही गुंजायिश है। निताला की गज़ल पढवाने का धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट के लिए बधाई ......गणतंत्र दिवस की शुभकानाएं
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट के लिए बधाई ......गणतंत्र दिवस की शुभकानाएं
जवाब देंहटाएंनंदन जी से सहमत हूँ, बस एक प्रश्न आपने लिखा है;- "ग़ज़ल में क्रिया के प्रयोग की सबसे बड़ी भूल है; उसके शेर के दोनों मिसरों को एक काल में न लिखना।"
जवाब देंहटाएंयदि एक मिसरे में काल स्पष्ट हो गया हो तो दूसरे मिसरे में काल पुन: स्पष्ट करने की आवश्यकता है क्या? क्या कविता में इतनी छोट संभव नहीं है।
बहुत अच्छा आलेख है। गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंनिराली जी की इस शैली की गज़ल पढ कर बहुत अच्छा लगा। बहुत अच्छा आलेख है। गणतंत्र दिवस की आपको ढेरों बधाई।
जवाब देंहटाएंNice Starting. You are requested to pls take care the Spellings and Punctuation of Hindi Language.
जवाब देंहटाएंEk Dost
Vipin Sharma
NIDHI JEE,GADYA HO YAA PADYA,BAAT
जवाब देंहटाएंTAB BANTEE HAI JAB DO PANKTION
MEIN PRAYUKT KRIYAYEN EK KAAL KO
DARSHATEE HAIN,YANI EK DOOSRE KE
LIYE SAARTHAK HON.PANKTIAN SARTHAK
NAHIN RAHEGEE AGAR HUM YE KAHENGE--
HARBOLON-BUNDELON KE MUNH
HAMNE SUNEE KAHANI THEE
KHOOB LADEE MARDAANEE
VAH TO JHANSI WALI RANI HAI.
अच्छा लेख ...अच्छा लगा ...
जवाब देंहटाएंअनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
आप की कलम से एक और संभाल के रखने योग्य लेख....ग़ज़ल प्रेमियों के वरदान है आप की ये श्रृखला...प्रणाम आपको...
जवाब देंहटाएंनीरज
A complete article.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
संपूर्ण आलेख है। प्राण जी से बहुत सीखा है। अब मुझसे कितना लिखा जायेगा यह तो पता नहीं।
जवाब देंहटाएंप्राण साहब आपका उदाहरण समझने में आसान है। क्रियाओं की एकरूपिता का मैं समर्थन करता हूँ। विधा को उसकी नीयम बद्धता के साथ कहना, कहन का प्रभाव ही बढाता है। आपको 60वे गणतंत्र दिवस की बधाई।
जवाब देंहटाएंप्रणाम प्राण साहब,
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ
---आपका हार्दिक स्वागत है
गुलाबी कोंपलें
प्राण भाई साहब ने कई बार असावधानी से अलग काल के लिये लिखी गयीँ पँक्तियोँ पर ध्यान केन्द्रित करवा कर बहुत सही मार्गदर्शन दिया है - शुक्रिया !
जवाब देंहटाएंआपके ये पाठ सँजोकर रखने लायक हैँ
- लावण्या
यह देखा गया है कि बड़े बड़े शायरों को भी कभी कभी क्रिया के प्रयोग में काल का ध्यान नहीं रहता लेकिन प्राण जी की पैनी नज़र से बच नहीं पाते। ग़ज़ल में लिखने की इच्छा रखने वाले कवि यदि आपके लेखों पर थोड़ा ध्यान दें तो उन्हें स्वयं ही स्वरचित ग़ज़लों में अधिक आनंद महसूस होने लगेगा। अगले सोमवार का इंतज़ार है।
जवाब देंहटाएंप्राण जी, साहित्य शिल्पी टीम और सभी को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं।
बहुत अंधेरा था, और अग्यान भी।
जवाब देंहटाएंआपने दिया जला रखा है प्राण साहब !स्वयं का आकलन संभव हो पा रहा है।
सच , कुछ भी नहीं आता।
गुरु बिन ग्यान कहां?
प्रवीण पंडित
न जाने लगी आग वो थी कहाँ से
जवाब देंहटाएंधुआँ उठ रहा है मेरे आशियाँ से
आग लगने के बाद और आग के बुझने के पहले बहुत देर तक धुआं उठता रहता है. इसलिए आग का लगाना भूतकाल तथा धुआं निकलना वर्तमान काल हो तो गलत कैसे होगा?
क्या दो मिसरों में लिंग और वचन भी एक जैसे नहीं होना चाहिए? यदि हाँ तो उदहारण के साथ सीखिए.
आपके लेख पढ़कर शायरों की समझदार जमात पैदा होगी.
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.