
युवा किसी भी समाज और राष्ट्र के कर्णधार हैं, वे उसके भावी निर्माता हैं। चाहे वह नेता या शासक के रूप में हों, चाहे डाक्टर, इन्जीनियर, वैज्ञानिक, साहित्यकार व कलाकार के रूप में हों। इन सभी रूपों में उनके ऊपर अपनी सभ्यता, संस्कृति, कला एवम् ज्ञान की परम्पराओं को मानवीय संवेदनाओं के साथ आगे ले जाने का गहरा दायित्व होता है। पर इसके विपरीत अगर वही युवा वर्ग उन परम्परागत विरासतों का वाहक बनने से इन्कार कर दे तो निश्चितत: किसी भी राष्ट्र का भविष्य खतरे में पड़ सकता है।
युवा शब्द अपने आप में ही ऊर्जा और आन्दोलन का प्रतीक है। युवा को किसी राष्ट्र की नींव तो नहीं कहा जा सकता पर यह वह दीवार अवश्य है जिस पर राष्ट्र की भावी छतों को सम्हालने का दायित्व है। भारत की कुल आबादी में युवाओं की हिस्सेदारी करीब 50 प्रतिशत है जो कि विश्व के अन्य देशों के मुकाबले काफी है। इस युवा शक्ति का सम्पूर्ण दोहन सुनिश्चित करने की चुनौती इस समय सबसे बड़ी है। जब तक यह ऊर्जा और आन्दोलन सकारात्मक रूप में है तब तक तो ठीक है, पर ज्यों ही इसका नकारात्मक रूप में इस्तेमाल होने लगता है वह विध्वंसात्मक बन जाती है। ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर किन कारणों से युवा ऊर्जा का सकारात्मक इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है? वस्तुत: इसके पीछे जहाँ एक ओर अपनी संस्कृति और जीवन मूल्यों से दूर हटना है, वहीं दूसरी तरफ हमारी शिक्षा व्यवस्था का भी दोष है। इन सब के बीच आज का युवा अपने को असुरक्षित महसूस करता है, फलस्वरूप वह शार्टकट तरीकों से लम्बी दूरी की दौड़ लगाना चाहता है। जीवन के सारे मूल्यों के ऊपर उसे ‘अर्थ‘ भारी नजर आता है। इसके अलावा समाज में नायकों के बदलते प्रतिमान ने भी युवाओं के भटकाव में कोई कसर नहीं छोड़ी है। फिल्मी परदे और अपराध की दुनिया के नायकों की भाँति वह रातों-रात उस शोहरत और मंजिल को पा लेना चाहता है, जो सिर्फ एक मृगतृष्णा है। ऐसे में एक तो उम्र का दोष, उस पर व्यवस्था की विसंगतियाँ, सार्वजनिक जीवन में आदर्श नेतृत्व का अभाव एवम् नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन ये सारी बातें मिलकर युवाओं को कुण्ठाग्रस्त एवम् भटकाव की ओर ले जाती हैं, नतीजन-अपराध, शोषण, आतंकवाद, अशिक्षा, बेरोजगारी एवम् भ्रष्टाचार जैसी समस्याएँ जन्म लेती हैं।
भारतीय संस्कृति ने समग्र विश्व को धर्म, कर्म, त्याग, ज्ञान, सदाचार और मानवता की भावना सिखाई है। सामाजिक मूल्यों के रक्षार्थ वर्णाश्रम व्यवस्था, संयुक्त परिवार, पुरूषार्थ एवम् गुरूकुल प्रणाली की नींव रखी। भारतीय संस्कृति की एक अन्य विशेषता समन्वय व सौहार्द रहा है, जबकि अन्य संस्कृतियाँ आत्म केन्द्रित रही हैं। इसी कारण भारतीय दर्शन आत्मदर्शन के साथ-साथ परमात्मा दर्शन की भी मीमांसा करते हैं। अंग्रेजी शासन व्यवस्था एवम् उसके पश्चात हुए औद्योगीकरण, नगरीकरण और अन्तत: पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव ने भारतीय संस्कृति पर काफी प्रभाव डाला। निश्चितत: इन सबका असर युवा वर्ग पर भी पड़ा है। आर्थिक उदारीकरण और भूमण्डलीकरण के बाद तो युवा वर्ग के विचार-व्यवहार में काफी तेजी से परिवर्तन आया है। पूँजीवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बाजारी लाभ की अन्धी दौड़ और उपभोक्तावादी विचारधारा के अन्धानुकरण ने उसे ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और शार्टकट के गर्त में धकेल दिया। कभी विद्या, श्रम, चरित्रबल और व्यवहारिकता को सफलता के मानदण्ड माना जाता था पर आज सफलता की परिभाषा ही बदल गयी है। आज का युवा अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों से परे सिर्फ आर्थिक उत्तरदायित्वों की ही चिन्ता करता है।
युवाओं को प्रभावित करने में फिल्मी दुनिया और विज्ञापनों का काफी बड़ा हाथ रहा है पर इनके सकारात्मक तत्वों की बजाय नकारात्मक तत्वों ने ही युवाओं को ज्यादा प्रभावित किया है। फिल्मी पर्दे पर हिंसा, बलात्कार, प्रणय दृश्य, यौन-उच्छृंखलता एवम् रातों-रात अमीर बनने के दृश्यों को देखकर आज का युवा उसी जिन्दगी को वास्तविक रूप में जीना चाहता है। फिल्मी पर्दे पर पहने जाने वाले अधोवस्त्र ही आधुनिकता का पर्याय बन गये हैं। वास्तव में पर्दे का नायक आज के युवा की कुण्ठाओं का विस्फोट है। पर युवा वर्ग यह नहीं सोचता कि पर्दे की दुनिया वास्तविक नहीं हो सकती, पर्दे पर अच्छा काम करने वाला नायक वास्तविक जिन्दगी में खलनायक भी हो सकता है।
शिक्षा एक व्यवसाय नहीं संस्कार है, पर जब हम आज की शिक्षा व्यवस्था देखते हैं, तो यह व्यवसाय ही ज्यादा ही नजर आती है। युवा वर्ग स्कूल व कालेजों के माध्यम से ही दुनिया को देखने की नजर पाता है, पर शिक्षा में सामाजिक और नैतिक मूल्यों का अभाव होने के कारण वह न तो उपयोगी प्रतीत होती है व न ही युवा वर्ग इसमें कोई खास रूचि लेता है। अत: शिक्षा मात्र डिग्री प्राप्त करने का गोरखधंधा बन कर रह गयी है। पहले शिक्षा के प्रसार को सरस्वती की पूजा समझा जाता था, फिर जीवन मूल्य, फिर किताबी और अन्तत: इसका सीधा सरोकार मात्र रोजगार से जुड़ गया है। ऐसे में शिक्षा की व्यवहारिक उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। शिक्षा संस्थानों में प्रवेश का उद्देश्य डिग्री लेकर अहम् सन्तुष्टि, मनोरंजन, नये सम्बन्ध बनाना और चुनाव लड़ना रह गया है। छात्र संघों की राजनीति ने कालेजों में स्वस्थ वातावरण बनाने के बजाय माहौल को दूषित ही किया है, जिससे अपराधों में बढ़ोत्तरी हुई है। ऐसे में युवा वर्ग की सक्रियता हिंसात्मक कार्यों, उपद्रवों, हड़तालों, अपराधों और अनुशासनहीनता के रूप में ही दिखाई देती है। शिक्षा में सामाजिक और नैतिक मूल्यों के अभाव ने युवाओं को नैतिक मूल्यों के सरेआम उल्लंघन की ओर अग्रसर किया है, मसलन-मादक द्रव्यों व धूम्रपान की आदतें, यौन-शुचिता का अभाव, कालेज को विद्या स्थल की बजाय फैशन ग्राउण्ड की शरणस्थली बना दिया है। दुर्भाग्य से आज के गुरुजन भी प्रभावी रूप में सामाजिक और नैतिक मूल्यों को स्थापित करने में असफल रहे हैं।
आज के युवा को सबसे ज्यादा राजनीति ने प्रभावित किया है, पर राजनीति भी आज पदों की दौड़ तक ही सीमित रह गयी है। स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने जब मताधिकर की उम्र अट्ठारह वर्ष की थी तो उन्होंने “इक्कीसवीं सदी युवाओं की” के आह्वान के साथ की थी पर राजनीति के शीर्ष पर बैठे नेताओं ने युवाओं का उपयोग सिर्फ मोहरों के रूप में किया। विचारधारा के अनुयायियों की बजाय व्यक्ति की चापलूसी को महत्ता दी गयी। स्वतन्त्रता से पूर्व जहाँ राजनीति देश-प्रेम और कर्तव्य बोध से प्रेरित थी, वहीं स्वतन्त्रता के बाद चुनाव लड़ने, अपराधियों को संरक्षण देने और महत्वपूर्ण पद हथियाने तक सीमित रह गयी। राजनीतिज्ञों ने भी युवा कुण्ठा को उभारकर उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल किया और भविष्य के अच्छे सब्जबाग दिखाकर उनका शोषण किया। विभिन्न राजनैतिक दलों के युवा संगठन भी शोशेबाजी तक ही सीमित रह गये हैं। ऐसे में अवसरवाद की राजनीति ने युवाओं को हिंसा भड़काने, हड़ताल व प्रदर्शनों में आगे करके उनकी भावनाओं को भड़काने और स्वयं सत्ता पर काबिज होकर युवा पीढ़ी को गुमराह किया है।
आदर्श नेतृत्व ही युवाओं को सही दिशा दिखा सकता है, पर जब नेतृत्व ही भ्रष्ट हो तो युवाओं का क्या? किसी दौर में युवाओं के आदर्श गाँधी, नेहरू, विवेकानन्द, आजाद जैसे लोग या उनके आसपास के सफल व्यक्ति, वैज्ञानिक और शिक्षक रहे। पर आज के युवाओं के आदर्श वही हैं, जो शार्टकट के माध्यम से ऊँचाइयों पर पहुँच जाते हैं। फिल्मी अभिनेता, अभिनेत्रियाँ, विश्व-सुन्दरियाँ, भ्रष्ट अधिकारी, अपराध जगत के डान, उद्योगपति और राजनीतिज्ञ लोग उनके आदर्श बन गये हैं। नतीजन, अपनी संस्कृति के प्रतिमानों और उद्यमशीलता को भूलकर रातों-रात ग्लैमर की चकाचौंध में वे शीर्ष पर पहुँचना चाहते हैं। पर वे यह भूल जाते हैं कि जिस प्रकार एक हाथ से ताली नहीं बज सकती, उसी प्रकार बिना उद्यम के कोई ठोस कार्य भी नहीं हो सकता। कभी देश की आजादी में युवाओं ने अहम् भूमिका निभाई और जरूरत पड़ने पर नेतृत्व भी किया। कभी विवेकानन्द जैसे व्यक्तित्व ने युवा कर्मठता का ज्ञान दिया तो सन् 1977 में लोकनायक के आह्वान पर सारे देश के युवा एक होकर सड़कों पर निकल आये. पर आज वही युवा अपनी आन्तरिक शक्ति को भूलकर चन्द लोगों के हाथों का खिलौना बन गये हैं।
आज का युवा संक्रमण काल से गुजर रहा है। वह अपने बलबूते आगे तो बढ़ना चाहता है, पर परिस्थितियाँ और समाज उसका साथ नहीं देते। चाहे वह राजनीति हो, फिल्म व मीडिया जगत हो, शिक्षा हो, उच्च नेतृत्व हो- हर किसी ने उसे सुखद जीवन के सब्ज-बाग दिखाये और फिर उसको भँवर में छोड़ दिया। ऐसे में पीढ़ियों के बीच जनरेशन गैप भी बढ़ा है। समाज की कथनी-करनी में भी जमीन आसमान का अन्तर है। एक तरफ वह सभी को डिग्रीधारी देखना चाहता है, पर उन सभी हेतु रोजगार उपलब्ध नहीं करा पाता. नतीजन- निर्धनता, मँहगाई, भ्रष्टाचार इन सभी की मार सबसे पहले युवाओं पर पड़ती है। इसी प्रकार व्यावहारिक जगत में आरक्षण, भ्रष्टाचार, स्वार्थ, भाई-भतीजावाद और कुर्सी की लालसा जैसी चीजों ने युवा हृदय को झकझोर दिया है। जब वह देखता है कि योग्यता और ईमानदारी से कार्य सम्भव नहीं, तो कुण्ठाग्रस्त होकर गलत रास्तों पर चल पड़ता है। निश्चितत: ऐसे में ही समाज के दुश्मन उनकी भावनाओं को भड़काकर व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह के लिए प्रेरित करते हैं, फलत: अपराध और आतंकवाद का जन्म होता है। युवाओं को मताधिकार तो दे दिया गया है पर उच्च पदों पर पहुँचने और निर्णय लेने के उनके स्वप्न को दमित करके उनका इस्तेमाल नेताओं द्वारा सिर्फ अपने स्वार्थ में किया जा रहा है।
इसमें कोई शक नहीं कि युवा वर्ग ही भावी राष्ट्र की आधा्रशिला रखता है, पर दु:ख तब होता है जब समाज युवाओं में भटकाव हेतु युवाओं को ही दोषी ठहराता है। क्या समाज की युवाओं के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं? जिम्मेदार पदों पर बैठे व्यक्ति जब सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों का सरेआम क्षरण करते नजर आते हैं, तो फिर युवाओं को ही दोष क्यों? क्या मीडिया “राष्ट्रीय युवा दिवस” को वही कवरेज देता है, जो “वैलेण्टाइन-डे” को मिलता है? एक व्यक्ति द्वारा अटपटे बयान देकर या किसी युवती द्वारा अर्धनग्न पोज देकर जो (बद्) नाम हासिल किया जा सकता है, वह दूर किसी गाँव में समाज सेवा कर रहे व्यक्ति को तभी मिलता है जब उसे किसी अन्तरा’ट्रीय पुरस्कार से नवाजा जाता है। आखिर ये दोहरापन क्यों?
युवाओं ने आरम्भ से ही इस देश के आन्दोलनों में रचनात्मक भूमिका निभाई है- चाहे वह सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक या सांस्कृतिक कोई भी हो। लेकिन आज युवा आन्दोलनों के पीछे किन्हीं सार्थक उद्देश्यों का अभाव दिखता है। युवा आज उद्देश्यहीनता और दिशाहीनता से ग्रस्त है. ऐसे में कोई शक नहीं कि यदि समय रहते युवा वर्ग को उचित दिशा नहीं मिली तो राष्ट्र का अहित होने एवम् अव्यवस्था फैलने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। युवा व्यवहार मूलत: एक शैक्षणिक, सामाजिक, संरचनात्मक और मूल्यपरक समस्या है जिसके लिए राजनैतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक सभी कारक जिम्मेदार हैं। ऐसे में समाज के अन्य वर्गों को भी जिम्मेदारियों का अहसास होना चाहिए, सिर्फ युवाओं को दोष देने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि सवाल सिर्फ युवा शक्ति के भटकाव का नहीं है, वरन् अपनी संस्कृति, सभ्यता, मूल्यों, कला एवम् ज्ञान की परम्पराओं को भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने का भी है। युवाओं को भी ध्यान देना होगा कि कहीं उनका उपयोग सिर्फ मोहरों के रूप में न किया जाय।
22 टिप्पणियाँ
विवेकानंद जी के खूबसूरत फोटो के साथ इतना सारगर्भित विचार पढना रोचक एवं सामयिक लगा. ''साहित्य शिल्पी'' दिनों-ब-दिन इसी तरह लोकप्रिय होता रहे और हमें अच्छे विचार मिलते रहें. कृष्ण कुमार जी को इस अनुपम प्रस्तुति के लिए बधाई.
जवाब देंहटाएंसर्वप्रथम युवा दिवस की ढेरों बधाइयाँ. समकालीन समाज में युवाओं की स्थिति की पड़ताल करता के.के. जी का लेख पढ़कर अभिभूत हूँ.बहुत संजीदगी से लिखा गया है यह लेख..बधाई.
जवाब देंहटाएं''स्वामी विवेकानंद जयंती'' और ''युवा दिवस'' पर हार्दिक बधाइयाँ.
जवाब देंहटाएंYuva shakti par bada prabhavi lekh hai. Apne itni khubsurati se likh hai ki is lekh ko bar-bar padhne ka man karta hai.
जवाब देंहटाएंविवेकानंद जयंति पर बहुत ही अच्छी तरह से लिखा गया व उद्वेलित करने वाला आलेख है।
जवाब देंहटाएं"सिर्फ युवाओं को दोष देने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि सवाल सिर्फ युवा शक्ति के भटकाव का नहीं है, वरन् अपनी संस्कृति, सभ्यता, मूल्यों, कला एवम् ज्ञान की परम्पराओं को भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने का भी है। युवाओं को भी ध्यान देना होगा कि कहीं उनका उपयोग सिर्फ मोहरों के रूप में न किया जाय।"
जवाब देंहटाएंविचारोत्तेजक।
इसमें कोई शक नहीं कि युवा वर्ग ही भावी राष्ट्र की आधारशिला रखता है, पर दुःख तब होता है जब समाज युवाओं में भटकाव हेतु युवाओं को ही दोषी ठहराता है। क्या समाज की युवाओं के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं?....लाजवाब विचारों की प्रस्तुति.स्वामी विवेकानंद जयंती की शुभकामनायें !!
जवाब देंहटाएंइसके विपरीत अगर वही युवा वर्ग उन परम्परागत विरासतों का वाहक बनने से इन्कार कर दे तो निश्चिततः किसी भी राष्ट्र का भविष्य खतरे में पड़ सकता है।....Bade krantikari vichar hain.Aj aise hi vicharon ki jarurat hai.
जवाब देंहटाएं''स्वामी विवेकानंद जयंती'' और ''युवा दिवस'' पर ''युवा'' की तरफ से आप सभी शुभचिंतकों को बधाई. बस यूँ ही लेखनी को धार देकर अपनी रचनाशीलता में अभिवृद्धि करते रहें.
जवाब देंहटाएंयुवा सोच को धार देता एक बेहतरीन आलेख.
जवाब देंहटाएंस्वामी विवेकानंद जयंती और युवा दिवस की शुभकामनायें !!
कायल हूँ कृष्ण कुमार जी की सोच का.एक युवा का युवा वर्ग के प्रति बेहद संजीदा चिंतन.यदि कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस लेख को हर युवा को पढना चाहिए.
जवाब देंहटाएंयुवाओं को भी ध्यान देना होगा कि कहीं उनका उपयोग सिर्फ मोहरों के रूप में न किया जाय।
जवाब देंहटाएं..आज युवा संक्रमण काल में जी रहा है. एक तरफ रोजगार की चिंता, दूसरी तरफ अपनी संस्कृति को बचाने की जद्दोजहद..पर राजनेता से लेकर सभी लोग उसे मात्र मोहरा के रूप में उपयोग करना चाहते है, बड़ी जटिल दुविधा है. kk ji जैसे युवा प्रशासक की कलम से ऐसा लेख युवाओं को राह दिखाता है...बधाई !!!
''युवा दिवस'' की हार्दिक बधाइयाँ !
जवाब देंहटाएंbahut achha likha hai. yuva shakti ko inse prerna leni chahiye.
जवाब देंहटाएंअत्यन्त सार्थक लेख लिखा है आपने यादव जी..
जवाब देंहटाएंनिश्चित रूप से आज युवा शक्ति को एकत्रित कर सकारात्मक दिशा में कार्यशील करने की आवश्यकता है..यह काम स्वामी विवेकानन्द जी के आदर्शों पर चल कर आसानी से किया जा सकता है.
आपकी चिंताएं वाकई सही है. एक एक बात सोचने को मजबूर करती हैं... पर मैं सवाल उठाना चाहता हूं कि आज इस परिस्थिती का जिम्मेदार कौन है, क्या आज का युवा है इसका जिम्मेदार? या आज के बच्चे जो कुछ सालों बाद युवा हो जायेंगे और तब तक आपक चिंताएं भी इसी गति से विकसित हो चुकी होंगी.... बिल्कुल सही गणना की आपने कि ५० प्रतिशत युवक हैं और बाके के युवक नहीं हैं तो क्या उस ५० प्रतिशत में सब सही है... जिस घर में बाप शराबी हो, सिग्रेट पीता हो, भ्रस्टाचार के पैसे से सांतान पाल रहा हो ईमान को बेच चुका हो ऐसे घरों मे कैसे युवक तैयार होंगे जनाब .... आप एक सिरे से आज का युवक यह, आज का युवक वह .... पर मैं पूछता हूं कि इस नौबत के पीछे कौन...? जिस सिक़षा व्य्वस्था को पहले की पीढी ने बनाया विकसित किया उसी पर तो चला यह बैचारा बालक और उस्की खामियों से विकसित हो कर युवक हो गया... ईमानदारी का तो इसे पता भी नही यह कौन बेचारी,, मित्र खामी युवा वर्ग की बिल्कुल भी नहीं है... उससे पहले की पीढी नाकारा हो गई.... साहित्य के प्रति दूरी की भाषा १९४७ के बाद से ही आनी शुरू हो गई थी... आजादी की पहले किरण देखने वाले मा बाप बन चुके लोगों ने अपने बच्चचो को कभी वह पाठ पढाये ही नहीं जिन्हे आप आज के युवकों मे देखना चाह्ते है... आज के हो या आज से पहले के मा बाप ने बच्चों पर पैसा यह सोच कर लागाया कि यह आगे चलकर उपजाऊ हो जाये, यानि कि रामैटैरियल समझ कर इन्हे बडा आदमी बनाने की कोशिश की गई,,, वास्तव मैं पैसे का महिमा मंडन घुट्टी में पिलाया जाने लगा... हर काम पैसे के लिये पैसे से पैसी बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा हो गये... बच्चे पैदा करना न करना भी पैसे के खेल का हिस्सा बन गया... जैसे ही इंसान पैसे कमाने के चक्र से बाहर हुआ उसे फैंकने योग्य समझा जाने लगा... जैसा बीज बोया है बिल्कुल वैसी हे फसल आ रही है तो फल को देख कर डर कैस.... जब हम किसी को लूट कर फरेब करके बेईमानी के रास्ते से रोटी कमा कर बच्छो को खिलाते हैं तो वह बच्छे इमानदारी का पुतला कैसे बन सकते है... सादा जीवन उच्च विचार की परिकल्पना इस देश में ही जन्मी और इसी देश मे खारिज कर दी गई... हम लाख पाश्चात्य सभ्यता को दोषी ठहरा दें पर बात यह सही नहीं है... सभ्यता हामारी अपनी है... जैसे मेरी थाली में कोई भी मेरी बिना इच्छा के मुझे आज तक मांस नही खिला सका दारू नहीं पिला सका, घूस से मुझे खरीद नहीं सका ठीक इसी तरह कोई सभ्यता मुझ पर भारी कैसे हो सकती है... विवेकानंद ने जिन विचारों को पूरे विश्व के सामने रखा किसके कहने पर रखा , अपनी प्रेरणा और अपने प्रयास का परिणाम है जनाब... बहस सार्थक तब हो जब हम कठोर कदम उठा सके अपने जीवन को बदलने का निश्चय कर सके... तो आने वाले युवक खुद बदल जायेंगे ... हम भी युवक है या थे तो हमने कौन से तीर मार लिये .... युवको को कोशने नही उन्हे प्रोत्साहित करने से ही कुछ होने वाला है... फिल्मों को नई दिशा में प्रिवर्तित करने का रास्ता अंगिकार करना होगा... जीवन की प्रार्थमिकताएं नए सिरे से तय करने की जरूरत है.... कभी विस्तार से लिखूंगा फिलहाल मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि अभी भी आंधेरा उतना नहीं है... दीपक भी जल रहे है... लोग प्रकाश लाने में जुटे है... बस हम उन्हें नहीं देख पा रहे है... यदि आप उन्हें देखना चाह्ते है तो इस लिंक पर ऐसे ही एक प्रयास का उदाहरण आपको मिल सकता है...
जवाब देंहटाएंhttp://bhartiyapaksha.com/?p=951आप इस तरह के सदप्रयासों से जुडने की इच्छा भर पैदा कर लीजिये बस! युवकों को कोशिए मत उन्मे बहुत ऊर्जा है... मैं तो उनकी ऊर्जा को नमन करता हूं....
Impressive comment ! I am agree with your thought (with Yogesh samdershi).
जवाब देंहटाएंवाह ! विचारोत्तेजक सारगर्भित सार्थक इस सुंदर आलेख हेतु आपका साधुवाद....अपने सभी मुद्दों को इस आलेख में समेत लिया है....ईश्वर करे सबलोग इसे पढ़ें और इसपर विचार करते हुए सकारात्मक रूप में इसे व्यवहार में उतारें.
जवाब देंहटाएंसच्चाई ब्याँ करते विचारोतेजक लेख के लिए श्री कृष्ण कुमार यादव जी को बहुत-बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंExcellent speech
जवाब देंहटाएंExcellent speech
जवाब देंहटाएंExcellent speech
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.